हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट में लोग मोमबत्ती की जगह अपने स्मार्टफोन का फ्लैश जलाकर विरोध जता रहे हैं। प्रदर्शन का संदेश धार्मिक नहीं बल्कि पूरी तरह राजनीतिक है। लोग प्रधानमंत्री विक्टर ओरबान से एक विवादित श्रम कानून को रद्द करने की मांग कर रहे हैं। इस कानून के तहत कंपनियां अपने कर्मचारियों से साल में 400 घंटे तक ओवरटाइम काम करने को कह सकती हैं। यह कानून 13 दिसंबर को संसद ने पास किया। उसके बाद से हंगरी में प्रदर्शन आए दिन व्यापक होते जा रहे हैं। प्रदर्शनकारी इसे 'गुलामी कानून' कह रहे हैं। कुछ रैलियों में तो हिंसा भी हुई।
बुडापेस्ट में प्रदर्शन शांतिपूर्ण अंदाज में शुरू हुआ. लेकिन पुलिस ने आंसू गैस दागकर आक्रोश को बढ़ा दिया। रैली में 10,000 से 15,000 लोग शामिल थे। अपनी आठ साल की सत्ता में विक्टर ओरबान पहली बार इतने बड़े जनविरोध का सामना कर रहे हैं।
प्रदर्शन के लिए ओवरटाइम वाले कानून के साथ साथ सामाजिक नीतियों के प्रति उपजा असंतोष भी जिम्मेदार है। ओरबान के शासनकाल में कर्मचारियों के अधिकार घटते गए और कंपनी के मैनेजर ताकतवर होते चले गए।
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बेघरों और आप्रवासियों पर ओरबान की कार्रवाई से भी लोग नाखुश हैं। जेल की सजा पाने वाले मैसेडोनिया के पूर्व प्रधानमंत्री निकोला ग्रुएव्स्की को बचाकर देश से बाहर निकलवाने के लिए ओरबान की आलोचना हो रही है। सर्बिया की राजधानी बेलग्राद में 15 और 16 दिसंबर को हजारों लोगों ने प्रदर्शन किया. वहां प्रदर्शनकारियों ने सीटी और हॉर्न बजाकर सरकार के प्रति अपनी नाराजगी जाहिर की। ताजा प्रदर्शन ने 1990 के दशक में हुए बड़े प्रदर्शनों की याद ताजा कर दी।
सर्बिया में असल में प्रदर्शन की शुरुआत सर्बियन लेफ्ट पार्टी के प्रमुछ बोर्को स्टेफानोविच पर हुए बर्बर हमले के बाद हुई। नवंबर के अंत में क्रुसेवाच शहर में काली कमीज पहने एक शख्स ने स्टेफानोविच पर लोहे की रॉड से जानलेवा हमला किया। स्टेफानोविच बुरी तरह घायल हुए. राष्ट्रपति अलेक्जांडर वुसिच ने हमले की निंदा की, साजिश रचने वाले पकड़े भी गए। शक की सुई सरकार पर है।
अल्बानिया : ट्यूशन फीस की चिंगारी
बाल्कन इलाके के एक और देश अल्बानिया में भी दिसंबर की शुरुआत से प्रदर्शन हो रहे हैं. छात्र और आम लोग यूनिवर्सिटी की ट्यूशन फीस सस्ती करने की मांग कर रहे हैं। देश की सरकारी यूनिवर्सिटियों में सालाना फीस 160 से 2,560 यूरो तक है। गरीब देश अल्बानिया में औसत आय 350 यूरो प्रति माह है। प्रदर्शनों की शुरुआत राजधानी तिराना से हुई और देखते ही देखते दूसरे शहरों में भी सरकार विरोधी नारे गूंजने लगे। प्रदर्शनकारियों ने सड़कें जाम कर दीं। अल्बानिया में प्रधानमंत्री इदी रमा की नीतियों के खिलाफ पहले से ही असंतोष का भाव है। बुरी गरीबी और महंगे पेट्रोल ने लोगों की कमर तोडऩे का काम किया है।
फ्रांस: येलो वेस्ट का क्या होगा?
महंगे पेट्रोल के खिलाफ रोड ब्लॉक से शुरू हुआ फ्रांस का येलो वेस्ट प्रदर्शन जल्द ही राजधानी पेरिस से बाहर निकलकर देश भर में फैल गया। राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों ने ईंधन का दाम घटाकर प्रदर्शन को ठंडा करने की कोशिश की। साथ ही स्ट्रासबर्ग में हुए आतंकी हमले के चलते भी प्रदर्शन कुछ हद तक हाशिये पर जा चुका है। प्रदर्शनकारियों को शांत कराने के लिए राष्ट्रपति को आपातकालीन योजना पेश करनी पड़ी। न्यूनतम मजदूरी 100 यूरो बढ़ाने का एलान किया गया है। जीवाश्म ईंधन पर इको टैक्स लगाने के विरोध में शुरू हुए येलो वेस्ट प्रदर्शन ने अपनी मांगे तो मनवा ली, लेकिन फ्रांस में आए दिन हो रहे प्रदर्शनों से सरकारी नीतियों के प्रति लोगों के असंतोष का सामने आ रहा है। फ्रांस अपने आर्थिक विकास को तेज करना चाहता है, लेकिन सुधारों की कोशिशें विवादों में घिर जा रही हैं।
जर्मनी : पर्यावरण बनता बड़ा मुद्दा
आर्थिक रूप से जर्मनी का समृद्ध राज्य बवेरिया छह दशक से मध्य दक्षिणपंथी पार्टी सीएसयू का गढ़ रहा है। लेकिन अक्टूबर में हुए प्रांतीय चुनावों में सीएसयू को बेहद ज्यादा नुकसान हुआ। पार्टी के वोटों में 10 फीसदी से ज्यादा गिरावट आई। लेकिन सबसे ज्यादा हैरानी पर्यावरण मुद्दों की वकालत करने वाली ग्रीन पार्टी के जोरदार प्रदर्शन पर हुई। बवेरिया में ग्रीन पार्टी दूसरे नंबर पर रही।
ग्रीन पार्टी की इस जीत से ठीक पहले जर्मनी के एक दूसरे राज्य में हामबाखर जंगलों को बचाने के लिए बड़े प्रदर्शन हुए. कोयले के इस्तेमाल को लेकर जर्मन सरकार खासी दबाव में है. गर्मियों में स्वीडन की 15 साल की एक छात्रा ग्रेटा थुनबेर्ग ने स्कूल स्ट्राइक फॉर क्लामेंट नाम के अभियान छेड़ा।
पोलैंड में हुए जलवायु सम्मेलन के दौरान ग्रेटा ने जोरदार भाषण दिया और उसके बाद से ही यूरोप के कई देशों के छात्र पर्यावरण रक्षा के अभियानों में भाग ले रहे हैं। 14 दिसंबर को जर्मनी के बर्लिन, हैम्बर्ग, म्यूनिख, कोलोन, कील और ग्योटिंगन समेत कई शहरों में छात्र ने मार्च निकाला।
एक बात साफ नजर आ रही है कि कई यूरोपीय देशों के लोग मौजूदा नीतियों से खुश नहीं हैं। अब यह सरकारों पर है कि वह कितनी तेजी और संजीदगी से इस असंतोष को शांत करती हैं।