Russo-Ukraine War का असर, अब सस्ता भोजन मिलना मुश्किल, घटते नहीं दिख रहे दाम

Russo-Ukraine War: यूक्रेन में जारी युद्ध खाद्य कीमतों को हमेशा के लिए बदल सकता है। लोगों को सस्ता और आसानी से उपलब्ध होने वाला खाना मिलना मुश्किल होने वाला है।

Written By :  Neel Mani Lal
Published By :  Shashi kant gautam
Update:2022-05-08 18:42 IST

  रूस यूक्रेन युद्ध-सस्ता भोजन हुआ मुश्किल: Photo - Social Media

Lucknow: दुनिया भर में भोजन की कीमतें इस वर्ष के रिकॉर्ड उच्चतम स्तर पर हैं। इसकी एक वजह रूस-यूक्रेन युद्ध (Russo-Ukraine War) है क्योंकि ये दोनों देश गेहूं और उर्वरक के प्रमुख निर्यातक (Major Exporting Countries of Wheat and Fertilizers) हैं और युद्ध के बाद से निर्यात बहुत घट गया है। जानकारों का कहना है कि यूक्रेन में जारी युद्ध खाद्य कीमतों को हमेशा के लिए बदल सकता है। लोगों को सस्ता और आसानी से उपलब्ध होने वाला खाना मिलना मुश्किल होने वाला है।

साथ ही साथ ही जलवायु परिवर्तन (Climate change) द्वारा सूखे, बाढ़ और गर्मी का फसलों पर विपरीत असर भी है। एक्सपर्ट्स का कहना है कि अगर खाद्य वस्तुओं की कीमतों में ऐसे तेजी बनी रही तो यह सरकारों की जेब तो खाली करेगी ही साथ ही देशों में राजनीतिक उथल-पुथल को बढ़ावा दे सकती है। यह जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए उठाए जा कदमों को प्रभावित कर सकती है।

मार्च में गेहूं की कीमतें 14 साल के शीर्ष लेवल पर

सस्टेनेबल फूड सिस्टम्स (IPES) के विशेषज्ञों के अंतर्राष्ट्रीय पैनल ने एक रिपोर्ट में कहा है कि मार्च में गेहूं की कीमतें 14 साल के शीर्ष लेवल पर पहुंच गईं थीं और मक्के की कीमतें सबसे अधिक दर्ज की गईं हैं। इसने बुनियादी स्टेपल को अधिक महंगा बना दिया है - विशेष रूप से सबसे गरीब लोगों के लिए। अगर उचित कदम नहीं उठाए जाते हैं तो ऊंची कीमतें रहना अब सामान्य हो सकता है।

अनाज के वैश्विक निर्यात का 30 प्रतिशत हिस्सा रूस और यूक्रेन से आता है, लेकिन युद्ध के चलते यह रुका हुआ है। इस देशों से निर्यात रुकने के कारण अनाज के दाम आसमान छूने लगे हैं। निम्न आय और आयात पर निर्भर रहने वाले देशों के लिए यह स्थिति काफी मुश्किलें पैदा कर रही हैं। अफ्रीका अपनी जरूरत का करीब 40 प्रतिशत अनाज यूक्रेन और रूस से आयात करता है और यहां इन दिनों हालात काफी खराब हो गए हैं।

न्यू नॉर्मल

जलवायु परिवर्तन, व्यापक गरीबी और संघर्ष अब वैश्विक खाद्य सुरक्षा के लिए "स्थानिक और व्यापक" जोखिम बना रहे हैं - जिसका अर्थ है कि उच्च खाद्य मूल्य नए सामान्य हो सकते हैं, जब तक कि खतरों पर अंकुश लगाने के लिए कार्रवाई नहीं की जाती है।

पैनल ने जलवायु परिवर्तन को सीमित करने के लिए तेजी से उत्सर्जन में कटौती करने, कमोडिटी सट्टेबाजी से निपटने, ऋण राहत देने, रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता को काटने, व्यापार को फिर से आकार देने और राष्ट्रीय अनाज भंडार को कम करने के सुझाव दिए हैं।यदि इन चीजों की उपेक्षा की जाती है, तो दुनिया खुद को भविष्य के भयावह और व्यवस्थित भोजन संकटों में पाएगी, रूस और यूक्रेन से गेहूं के निर्यात में व्यवधान मूल्य वृद्धि का पूरा कारण नहीं है। मूल्य वृद्धि तो अब मक्का, चावल और सोया बाजारों में फैल गई है क्योंकि खरीदार वैकल्पिक अनाज की तलाश करते हैं।

सट्टेबाज भी सक्रिय

संघर्ष से प्रेरित होकर, वित्तीय सट्टेबाजों ने अनाज के वायदा में व्यापार में छलांग लगाई है। जी7 के कृषि मंत्रियों ने शिकायत की है कि सट्टेबाजों ने कृत्रिम रूप से कीमतों को बढ़ा दिया है क्योंकि वे बाजार की अनिश्चितता से लाभ की तलाश करते हैं। 2007-2008 और 2011-2012 के खाद्य मूल्य संकटों के बाद से सरकारें अत्यधिक अटकलें पर अंकुश लगाने और खाद्य स्टॉक और कमोडिटी बाजारों की पारदर्शिता सुनिश्चित करने में विफल रही हैं।

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प्रोडक्शन पर असर

अनाज उत्पादक देशों (grain producing countries) ने कहा है कि वो अधिक अन्न उगाने की तैयारी कर रहे हैं, लेकिन इस पर भी युद्ध का असर पड़ा है। दरअसल, वैश्विक जरूरत का करीब 40 फीसदी पोटाश रूस और बेलारूस निर्यात करते हैं, लेकिन युद्ध के चलते इस पर असर पड़ा है और कई देशों में उर्वरक का संकट खड़ा हो गया है। भारत ने अनाज का निर्यात बढ़ाने की बात कही है, लेकिन यहां भी गर्मी के चलते उत्पादन पर असर पड़ा है।

जलवायु परिवर्तन के चलते असामान्य बारिश, सूखा और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएं किसानों के लिए फसलें उगाना मुश्किल कर रही हैं। जानकार मानते हैं कि बढ़ते कार्बन उत्सर्जन के साथ यह समस्या बढ़ती जाएगी।इसके अलावा अनाज, चावल और दूसरी फसलों की खेती करने लायक जमीन भी सीमित है। ब्राजील जैसे देशों में जब फसलें उगाने के लिए जमीन बढ़ाई गई तो वहां जंगलों को काटना पड़ा, जो पर्यावरण के लिहाज से बड़ा नुकसान है। अगर वैश्विक बाजार में खाद्य वस्तुओं के दाम बढ़ते रहे तो संघर्ष प्रभावित देशों में मानवीय सहायता करने वाली संस्थाओं के लिए अनाज खरीदना मुश्किल हो जाएगा।

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