संयुक्त राष्ट्र– विफलता के 75 साल

संयुक्त राष्ट्र की विफलता का कोई एक कारण नहीं है बल्कि ये लीडरशिप, प्रबंधन और अनुशासन की भरी कमी और व्यापक अक्षमता से उपजी वजहें हैं।

Update: 2020-10-25 07:39 GMT
संयुक्त राष्ट्र– विफलता के 75 साल (Photo by social media)

नई दिल्ली: संयुक्त राष्ट्र आज अपनी स्थापना के 75 साल पूरे कर रहा है। अफ़सोस की बात है कि 75 साल का सफ़र इस संगठन की विफलताओं से भरा हुआ है। कहने को संयुक्त राष्ट्र सभी देशों की बराबरी से मदद करने, भुखमरी, युद्ध, अशिक्षा आदि समस्याओं को दूर करने के लिए बना है लेकिन इस संगठन के इतिहास में तमाम ऐसे वाकये आये हैं जब ये पूरी तरह फेल साबित हुआ है। सन 1945 में वजूद में आये इस संगठन के पास अपने 75 साल के अपने इतिहास में संयुक्त राष्ट्र के पास गौरव करने लायक बहुत कम उदाहरण होंगे।

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संयुक्त राष्ट्र की विफलता का कोई एक कारण नहीं है बल्कि ये लीडरशिप, प्रबंधन और अनुशासन की भरी कमी और व्यापक अक्षमता से उपजी वजहें हैं। ये घुन संयुक्त राष्ट्र के समस्त अंगों में लगा हुआ है। विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनेस्को, यूनिसेफ, ह्यूमन राइट्स कमीशन आदि सब अक्षम और बेअसर साबित हो चुके हैं।

कोरोना महामारी से लडाई में यूएन नदारद

दुनिया भर में लाखों लोगों की जान ले चुके कोरोना वायरस महामारी ने संयुक्त राष्ट्र की विफलता को सामने ला दिया है। ये विफलता है इस वायरस को हराने में देशों को एकजुट करने की और यही वजह है कि अब संयुक्त राष्ट्र में व्यापक बदलाव की मांग ने फिर जोर पकड़ लिया है। खुद संयुक्त राष्ट्र के महासचिव अंतोनियो गुतेर्रेस ने कहा है कि महामारी अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की स्पष्ट परीक्षा है और इस टेस्ट में हम फेल रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र की हालत ये है कि आपसी सहयोग की बजे यहाँ बड़ी ताकतों के बीच तनाव बढ़ता जा रहा है, अमीर-गरीब देशों के बीच खाई बढ़ती जा रही है और किसी भी गंभीर मुद्दे पर यूएन के 193 देश शायद ही कभी एकमत होते हैं। ऐसे में सुधारों की बात ही बेमानी हो जाती है।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद 50 देशों के साथ अस्तित्व में आये संयुक्त राष्ट्र का उसके बाद से व्यापक विस्तार हुआ है। 75 साल पहले इसके संस्थापक सदस्यों ने अमेरिका के सान फ्रांसिस्को शहर में यूएन चार्टर पर हस्ताक्षर किये थे और ‘आने वाली पीढ़ियों को युद्ध की विभीषिका से बचाने’ की कसम खाई थी लेकिन इन 75 सालों में न जाने कितने युद्ध हुए हैं और आज भी जारी हैं। दुनिया अब भी असामनता, भूख और बीमारियों से ग्रसित है।

डब्लूएचओ का हाल

इस वर्ष जब कोरोना संकट शुरू हुआ तब संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी विश्व स्वास्थ्य संगठन आँख बंद करके सोता ही रहा। डब्लूएचओ इस बात का अंदाजा ही नहीं लगा पाया कि चीन कितना सच बोल रहा है और कितनी जानकारी छिपा रहा है। डब्लूएचओ वही बोलता रहा जो उसे चीन बता रहा था। पूरी दुनिया के सामने डब्लूएचओ ने मामले की गंभीरता को रखा ही नहीं। डब्लूएचओ चीनी सरकार के झूठे प्रचार तंत्र, चीन की गलत जानकारियों और सूचनाओं का आंकलन ही नहीं कर पाया और न ही वुहान में जांच के लिए कोई टीम भेजी।

डब्लूएचओ शुरू में यही कहता रहा कि कोरोना वायरस का मानव से मानव में संक्रमण नहीं फैलता है। डब्लूएचओ ने यात्रा और व्यापर सम्बन्धी रोक की मुखालफत की। कोविड-19 को वैश्विक महामारी घोषित करने में ही कीमती समय गंवा दिया। अब ये हाल है कि चीन एक गैर भरोसेमंद कोरोना वैक्सीन अपने देश में लाखों लोगों को लगा चुका है, बिना किसी अंतरराष्ट्रीय अप्रूवल के चीन में कोरोना वैक्सीन खुलेआम बेची जा रही है लेकिन डब्लूएचओ पूरी तरह से अनजान बना हो कर चुप्पी साधे हुए है।

सुरक्षा परिषद

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ही अकेली यूएन संस्था है जिसके पास अपने फैसले सदस्य देशों पर लागू करवाने की वैधानिक शक्तियां हैं। सुरक्षा परिषद को यूएन चार्टर के चैप्टर 16 के तहत अपने फैसले प्रतिबंधों या सैन्य बल के जरिये लागू करवाने का भी अधिकार है। इसके चलते ये संयुक्त राष्ट्र की सबसे शक्तिशाली संस्था है। लेकिन कोरोना महामारी में सुरक्षा परिषद एकदम बेकार साबित हुई है। दरअसल, सुरक्षा परिषद ने कोरोना महामारी के समय में कोई कोशिश ही नहीं की। 23 मार्च 2020 को संयुक्त राष्ट्र महासचिव अंतोनियो गुतेर्रेस ने दुनिया भर में तत्काल युद्ध विराम का आह्वान किया था ताकि 'सशस्त्र संघर्ष को लॉकडाउन में करके जिंदगियां बचाने की असली लड़ाई पर सब मिल कर फोकस कर सकें।'

ऐसा सोचा गया है कि युद्ध से बीमारियाँ फैलने में सहायता मिलती है और किसी भी स्तर पर बीमारी कंट्रोल करने का कम बाधित होता है। महामारी से लड़ने में युद्ध विराम जरूरी था और इस बारे में आह्वान करके यूएन ने लीडरशिप तो दिखाई लेकिन इसके आगे वह लड़खड़ा गया। महामारी दिसंबर से फ़ैल रही थी, संयुक्त राष्ट्र ने मार्च में आह्वान किया और जुलाई में जाकर एक प्रस्ताव भर पारित किया। बीमारी से लड़ने में बेशकीमती समय संयुक्त राष्ट्र ने फालतू में गंवा दिया।

UN सुरक्षा परिषद् 1945 से ही अपने पांच स्थाई सदस्यों के बीच के तनाव और मतभेदों में फंसा हुआ है

दरअसल, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् 1945 से ही अपने पांच स्थाई सदस्यों के बीच के तनाव और मतभेदों में फंसा हुआ है। हाल के बरसों में दुनिया के शक्ति संतुलन में आये आर्थिक और भौगोलिक परिवर्तन से सुरक्षा परिषद् की स्थिति और भी ख़राब हुई है। 2003 में सुरक्षा परिषद् की मान्यता के बगैर इराक पर हमले और लीबिया, सीरिया, क्रीमिया और उक्रेन के मामलों में सुरक्षा परिषद की निष्क्रियता ने साबित कर दिया कि ये संगठन अब किसी काम का नहीं रहा है। सन 45 से ही सुरक्षा परिषद में सुधारों की बात हो रही है लेकिन इस दिशा में पहल हुई ही नहीं है।

मोदी ने उठाये सवाल

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के 75वें सत्र को सम्बोधित करते हुए इस अंतरराष्ट्रीय संगठन में भारत की भागीदारी बढ़ाने को लेकर तीखे सवाल उठाए हैं। संयुक्त राष्ट्र के शांति अभियान में बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी के बाद भी भारत को अब तक सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता नहीं दी गई। देश की वर्षों पुरानी इस माँग का हवाला देकर प्रधानमंत्री ने पूछा कि आखिर भारत को कब तक संयुक्त राष्ट्र के भेदभाव का शिकार होना पड़ेगा? कब तक भारत को आम सदस्य के तौर पर अपनी वफादारी साबित करनी होगी? उन्होंने अंतरराष्ट्रीय महामारी कोरोना से निपटने में संयुक्त राष्ट्र की भूमिका पर भी सवाल उठाए।

एक ट्रिलियन डालर खर्चा

संयुक्त राष्ट्र की 17 विशेषज्ञ एजेंसियां हैं, 14 कोष हैं और 17 विभाग हैं जिनमें 41 हजार लोग काम करते हैं। संयुक्त राष्ट्र के बजट पर सभी 193 सदस्य देशों में हर दो साल में सहमति बनती है क्योंकि संयुक्त राष्ट्र अपने सदस्य देशों द्वारा दिए गए चंदे से चलता है। सदस्यता की एक शर्त चन्दा देना भी है सो कोई देश चंदा देने से इनकार नहीं कर सकता। कोई देश कितना धन देगा इसका एक बेहद जटिल फार्मूला है जो 8 बिन्दुओं पर आधारित होता है लेकिन बहुत कुछ देश की सकल राष्ट्रीय आय, विदेशी कर्ज और जनसंख्या पर निर्भर करता है।

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अनिवार्य चंदे के अलावा सदस्य देश अपनी मर्जी से भी योगदान कर सकते हैं। आईएमएफ, यूनिसेफ, यूएन डेवलपमेंट प्रोग्राम, वर्ल्ड फ़ूड प्रोग्राम और यूएन कमिश्नर फॉर रिफ्यूजी जैसे कई यूएन संगठन स्वैक्षिक चंदे पर निर्भर रहते हैं।1950 के दशक से तुलना करें तो आज संयुक्त राष्ट्र का खर्चा 40 से 50 गुना बढ़ चुका है। संयुक्त राष्ट्र के बजट में सभी देश योगदान करते हैं और उसी पैसे से इस संगठन के प्रशासन-प्रबंधन का खर्चा चलता है। संयुक्त राष्ट्र की 74 फीसदी फंडिंग सरकारों से आती है लेकिन कुछ स्वतंत्र संगठन भी संयुक्त राष्ट्र को धन देते हैं। इनमें यूरोपियन कमीशन और बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन शामिल हैं।

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