Krishna Janmabhumi: ऐसे बनता व बिखरता रहा आस्था का मंदिर, देखें Y-Factor...
कृष्ण जन्मभूमि: ऐसे बनता व बिखरता रहा आस्था का मंदिर...
Krishna Janmabhumi: लखनऊ। "अयोध्या तो बस झांकी है। काशी-मथुरा बाकी है।" विश्व हिंदू परिषद का ये नारा याद करिये। अभी तक ये अधूरा ही है और मथुरा-काशी अभी बाकी ही है। काशी और मथुरा में मंदिरों को विदेशी आक्रांताओं ने तोड़ कर मस्जिदें बना दीं थीं लेकिन उस अन्याय को आज तक दुरुस्त नहीं किया गया है। अयोध्या में तो फिर भी राम मंदिर के साक्ष्य ढूंढने पड़े थे जबकि काशी और मथुरा में मुस्लिम हमलावरों द्वारा प्राचीन मंदिरों को ध्वस्त करके मस्जिद बनाने के सबूत सबके सामने और जगजाहिर हैं। कृष्ण जन्मभूमि में बरसों पहले हुई खुदाई में मंदिर के ढेरों सबूत मथुरा के म्यूज़ियम में रखे हुए हैं। काशी में मंदिर की जगह बनी मस्जिद खड़ी है।
लेकिन, कुछ होता तो भी कैसे, क्योंकि काशी और मथुरा के मंदिरों के साथ न्याय का रास्ता भी 1991 में बने पूजा स्थल क़ानून के तहत बन्द कर दिया गया था। क्योंकि कानून के मुताबिक़, 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता। चूंकि अयोध्या को
इस कानून की जद से बाहर रखा गया था सो एक बहुत लंबी अदालती लड़ाई के बाद अब अयोध्या में तो भव्य राम मंदिर बनना शुरू हो चुका है लेकिन मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि और काशी में ज्ञानवापी का मसला सुलझना बाकी है। लेकिन अब काशी और मथुरा के लिए रास्ता वाराणसी की एक अदालत के फैसले से खुला है।
अब काशी की ज्ञानवापी मस्जिद का राज पता किया जाएगा। खुदाई होगी और साक्ष्य निकाले जायेंगे कि मस्जिद के नीचे आखिर क्या है। वाराणसी की एक अदालत ने आदेश दिया है कि पुरातत्विक विभाग खुदाई और सर्वेक्षण का काम करे। कोर्ट के इस फैसले के बाद अयोध्या की तरह अब ज्ञानवापी मस्जिद की भी खुदाई कर मंदिर पक्ष के दावे की प्रमाणिकता को परखा जाएगा। अयोध्या में राम जन्मभूमि विवाद को सुलझाने के लिए अदालत ने पुरातात्विक खुदाई में निकली चीजों को बतौर साक्ष्य स्वीकार किया था। अदालत के फैसले से न सिर्फ कशी बल्कि मथुरा की कृष्णा जन्मभूमि की ऐतिहासिक प्रमाणिकता सामने आने का रास्ता खुल गया है।
अयोध्या और काशी की तरह मथुरा में भगवान कृष्ण की जन्मभूमि को लेकर भी विवाद है। यह मंदिर तीन बार तोड़ा और चार बार बनाया जा चुका है। अभी भी इस जगह पर मालिकाना हक के लिए दो पक्षों में कोर्ट में विवाद चल रहा है। जन्मभूमि के आधे हिस्से पर ईदगाह बना हुआ है। इतिहासकारों का मत है कि जहां भगवान कृष्ण का जन्म हुआ, वहां पहले वह कारागार हुआ करता था। यहां पहला मंदिर 80-57 ईसा पूर्व बनाया गया था। इस संबंध में महाक्षत्रप सौदास के समय के एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि किसी 'वसु' नामक व्यक्ति ने यह मंदिर बनाया था। इसके बहुत समय बाद दूसरा मंदिर विक्रमादित्य के काल में बनवाया गया था। लेकिन 1017-18 में महमूद गजनवी ने इस मंदिर को तोड़ दिया। 32 साल बाद महाराजा विजयपाल देव के शासन में फिर मंदिर बनवाया गया। मंदिर को 16वीं शताब्दी के आरंभ में सिकंदर लोदी ने तोड़ डाला था।
इसके लगभग 125 वर्षों बाद जहांगीर के शासनकाल के दौरान ओरछा के राजा वीर सिंह देव बुंदेला ने इसी स्थान पर चौथी बार मंदिर बनवाया। लेकिन इसे औरंगजेब ने 1660 में नष्ट कर इसकी भवन सामग्री से जन्मभूमि के आधे हिस्से पर एक बड़ी ईदगाह बनवा दी, जो कि आज भी मौजूद है। इस ईदगाह के पीछे ही महामना पंडित मदनमोहन मालवीयजी की प्रेरणा से एक मंदिर स्थापित किया गया । लेकिन अब यह विवादित क्षेत्र बन चुका है, क्योंकि जन्मभूमि के आधे हिस्से पर ईदगाह है और आधे पर मंदिर।
यहां प्राप्त अवशेषों से पता चलता है कि इस मंदिर के चारों ओर एक ऊंची दीवार का परकोटा मौजूद था। मंदिर के दक्षिण पश्चिम कोने में एक कुआं भी बनवाया गया था। इस कुएं से पानी 60 फीट की ऊंचाई तक ले जाकर मंदिर के प्रांगण में बने फव्वांरे को चलाया जाता था। इस स्थान पर उस कुएं और बुर्ज के अवशेष अभी तक मौजूद है। इतिहासकार डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने कटरा केशवदेव को ही कृष्ण जन्मभूमि माना है। विभिन्न अध्ययनों और साक्ष्यों के आधार पर मथुरा के राजनीतिक संग्रहालय के कृष्णदत्त वाजपेयी ने भी स्वीकारा है कि कटरा केशवदेव ही कृष्ण की असली जन्मभूमि है।
मिल चुके हैं पुरातात्विक अवशेष
ब्रिटिश लेखक ए. डब्लू एंटविसल ने अपनी पुस्तक 'ब्रज – सेंटर ऑफ़ कृष्णा पिलग्रिमेज' में लिखा है कि कृष्ण भगवान् की जन्मभूमि को समर्पित एक मंदिर उनके प्रपौत्र वज्रनाभ ने बनवाया था। इसे कतरा केशवदेव भी कहा जाता था। इसी किताब में लिखा है कि इस स्थल पर हुए पुरातात्विक उत्खनन में ईसापूर्व छठ्वीं सदी के बरतन और टेराकोटा से बनी चीजें मिली थीं। इस उत्खनन में कुछ जैन प्रतिमाएं और गुप्त काल का एक यक्ष विहार भी मिला था।
ब्रिटिश सेना के मेजर जनरल सर एलेग्जेंडर कनिंघम ने इतिहास पर कई किताबें लिखी हैं। उनके दस्तावेजों को बतौर साक्ष्य अयोध्या के केस में भी इस्तेमाल किया गया है। उन्होंने मथुरा के बारे में लिखा है कि ये मुमकिन है कि पहली शताब्दी में यहाँ वैष्णव मंदिर का निर्माण किया गया हो।
महमूद गजनवी के एक समकालीन लेखक अल उत्बी ने 'तारीख-ए-यामिनी' में महावन में हज्नावी की लूटपाट और मथुरा का जिक्र किया है। उसने लिखा है – शहर के बीच में एक विशाल और भव्य मंदिर था जिसके बारे में लोग मानते थे कि उसे इंसानों ने नहीं, बल्कि फरिश्तों ने बनाया था। मंदिर की सुन्दरता का वर्णन अल्फाज या चित्र नहीं कर सकते हैं।
महमूद गजनवी ने खुद लिखा है कि – अगर कोई इसके जैसा मंदिर बनाना चाहेगा तो वो 10 करोड़ दीनार खर्च करके भी ऐसा मंदिर नहीं बना पायेगा। और सबसे हुनरमंद कारीगरों को भी इसे बनाने में 200 साल लग जायेंगे। एफ.एस ग्रोव्स ने अपनी किताब 'मथुरा वृन्दावन – द मिस्टिकल लैंड ऑफ़ लार्ड कृष्णा' और फजी अहमद ने 'हीरोज़ ऑफ़ इस्लाम' में लिखा है कि महमूद गजनवी ने सभी मंदिरों को जलाने और ध्वस्त करने का आदेश दिया था और सैकड़ों ऊंटों पर सोने – चांदी की मूर्तियाँ लाद कर ले गया था।
हांस बेकार ने अपनी किताब 'द हिस्ट्री ऑफ़ सेक्रेड प्लेसेस इन इंडिया' में लिखा है कि विक्रम संवत 1207 में यहाँ आसमान छूता विशाल मंदिर बनवाया गया था। स्टीफन नैप ने 'कृष्णा डेयतीज एंड देयर मिराक्ल्स' में लिखा है कि 16 सदी की शुरुआत में वैष्णव संत चैतन्य महाप्रभु और वल्लभाचार्य मथुरा आये थे।
मुग़ल शहंशाह जहाँगीर के समय के लेखक अब्दुल्लाह ने अपनी किताब 'तारीख-ए-दौदी' में लिखा है कि दिल्ली के सुलतान सिकंदर लोधी ने सोलहवीं शताब्दी में मथुरा और उसके मंदिरों को तहस-नहस कर दिया था। ब्रिटिश शासनकाल में वर्ष 1815 में एक नीलामी के दौरान बनारस के राजा पटनीमल ने इस जगह को खरीद लिया। वर्ष 1940 में यहां पंडित मदन मोहन मालवीय आए और तीन वर्ष बाद 1943 में उद्योगपति जुगलकिशोर बिड़ला मथुरा आए। वे श्रीकृष्ण जन्मभूमि की दुर्दशा देखकर बड़े दुखी हुए। इसी दौरान मालवीय जी ने बिड़ला को श्रीकृष्ण जन्मभूमि के पुनर्रुद्धार को लेकर एक पत्र लिखा।
मालवीय की इच्छा का सम्मान करते हुए बिड़ला ने सात फरवरी 1944 को कटरा केशव देव को राजा पटनीमल के तत्कालीन उत्तराधिकारियों से खरीद लिया। इससे पहले कि वे कुछ कर पाते मालवीय का देहांत हो गया। उनकी अंतिम इच्छा के अनुसार, बिड़ला ने 21 फरवरी 1951 को श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट की स्थापना की।
ट्रस्ट की स्थापना से पहले ही यहां रहने वाले कुछ मुसलमानों ने 1945 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक रिट दाखिल कर दी। इसका फैसला 1953 में आया। इसके बाद ही यहां कुछ निर्माण कार्य शुरू हो सका। यहां गर्भ गृह और भव्य भागवत भवन के पुनर्रुद्धार और निर्माण कार्य आरंभ हुआ, जो फरवरी 1982 में पूरा हुआ।