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आदिवासी दिवस के बहाने अलगाववाद की राजनीति

वैशविक परिदृश्य में कुछ घटनाक्रम ऐसे होते हैं जो अलग अलग स्थान और अलग अलग समय पर घटित होते हैं लेकिन कालांतर में अगर उन तथ्यों की कड़ियाँ जोड़कर उन्हें समझने की कोशिश की जाए तो गहरे षड्यंत्र सामने आते हैं।

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Published on: 3 Aug 2020 10:08 AM IST
आदिवासी दिवस के बहाने अलगाववाद की राजनीति
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डॉ. नीलम महेंद्र

वैशविक परिदृश्य में कुछ घटनाक्रम ऐसे होते हैं जो अलग अलग स्थान और अलग अलग समय पर घटित होते हैं लेकिन कालांतर में अगर उन तथ्यों की कड़ियाँ जोड़कर उन्हें समझने की कोशिश की जाए तो गहरे षड्यंत्र सामने आते हैं। इन तथ्यों से इतना तो कहा ही जा सकता है कि सामान्य से लगने वाले ये घटनाक्रम असाधारण नतीजे देने वाले होते हैं। क्योंकि इस प्रक्रिया में संबंधित समूह स्थान या जाति के इतिहास से छेड़ छाड़ करके उस समूह स्थान या जाति का भविष्य बदलने की चेष्टा की जाती है। आइए पहले ऐसे ही कुछ घटनाक्रमों पर नज़र डालते हैं।

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घटनाक्रम 1.

2018, स्थान राखीगढ़ी,

लगभग 6500 साल पुराने एक कंकाल के डी.एन.ए के अध्य्यन से यह बात वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो गई कि आर्य बाहर से नहीं आए थे।बल्कि वे भारतीय उपमहाद्वीप के स्थानीय अथवा मूलनिवासी थे। यहीं उन्होंने धीरे धीरे प्रगति की, जीवन को उन्नत बनाया और फिर इधर उधर फैलते गए। इस शोध को देश विदेश के 30 वैज्ञानिकों की टीम ने अंजाम दिया था जिसका दावा है कि अफगानिस्तान से लेकर बंगाल और कश्मीर से लेकर अंडमान तक के लोगों के जीन एक ही वंश के थे।

घटनाक्रम 2.

19 वीं शताब्दी 1850

में आर्य आक्रमण सिद्धांत दिया गया जिसमें कहा गया कि आर्य भारत में बाहर से आए थे (कहाँ से आए इसका कोई स्पष्ट जवाब किसी के पास नहीं है। कोई मध्य एशिया, कोई साइबेरिया,कोई मंगोलिया तो कोई ट्रांस कोकेशिया कहता है) और इन्होंने भारत पर आक्रमण करके यहाँ के मूलनिवासियों (जनजातियों ) को अपना दास बनाया था। यानी आज भारत में रहने वाले लोग यहाँ के मूलनिवासी नहीं हैं केवल यहाँ की जनजातियाँ यहाँ की मूलनिवासी हैं।

घटनाक्रम- 3.

15 वीं शताब्दी 1492

में कोलम्बस भारत की खोज में निकला और अमेरिका पहुंच कर उसी को भारत समझ बैठा। वहां उसे अमेरिका के स्थानीय निवासी मिले जिनका रंग लाल था। चूंकि वो उस धरती को भारत समझ रहा था उसने उन्हें "रेड इंडियन" नाम दिया। असल में यही रेड इंडियन अमेरिका के मूल निवासी हैं। लूट के इरादे से आए कोलम्बस ने उनपर खूब अत्याचार किए।धीरे धीरे यूरोप के अन्य देशों को भी अमेरिका के बारे में पता चला और कालांतर में स्पेन, फ्रांस और ब्रिटेन ने भी अमेरिका पर कब्जा कर लिया। ब्रिटेन ने तो वहाँ अपनी 13 कॉलोनियाँ स्थापित कर ली थीं। 1776 से लेकर 1783 तक अमेरिका के मूलनिवासियों ने अपनी आजादी की लड़ाई लड़ी जिसके बाद ये 13 कॉलोनियाँ आज का संयुक्त राज्य अमेरिका बना।

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घटनाक्रम-3

कुछ संगठनों द्वारा 1992 में कोलम्बस के अमरीका में आने के 500 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में वहाँ एक बड़ा जश्न मनाने की तैयारी की जा रही थी। लेकिन अमेरिका के मूलनिवासियों द्वारा कोलम्बस के उनपर किए गए अत्याचारों के कारण इस आयोजन का विरोध किया गया।

घटनाक्रम- 4.

इसी के चलते1994 में 9 अगस्त को आदिवासी दिवस अथवा "ट्राइबल डे" अथवा मूलनिवासी दिवस मनाने की शुरूआत हुई। इसका लक्ष्य था ऐसे प्रदेश या देश के मूलनिवासियों को उनके अधिकार दिलाना जिन्हें अपने ही देश में दूसरे दर्जे की नागरिकता प्राप्त हो।सरल शब्दों में आक्रांताओं द्वारा उनपर किए गए अत्याचारों के कारण उनकी दयनीय स्थिति में सुधार लाने के कदम उठाना।

घटनाक्रम-5.

भारत के आदिवासी इलाकों में आदिवासियों का उनके सामाजिक उत्थान और कल्याण के नाम पर धर्मांतरण की घटनाओं का इजाफा होना। कुछ तथ्य, 1951 में अरुणाचल प्रदेश में एक भी ईसाई नहीं था,2011 की जनगणना के मुताबिक अब अरुणाचल प्रदेश में 30% से ज्यादा ईसाई हैं। मेघालय में 75% मिज़ोरम में 87%नागालैंड में 90% सिक्किम में 9.9% , त्रिपुरा में 4.3% और केरल में 18.38% ईसाई आबादी है जो धीरे धीरे बढ़ रही है।

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ये घटनाएं विश्व के इतिहास की सामान्य घटनाएं प्रतीत हो सकती हैं लेकिन अगर इनके परिणामों पर दृष्टि डालें तो लगता है कि यह सामान्य नहीं हो सकती। क्योंकि आज जब भारत के झारखंड ओडिशा पश्चिम बंगाल छत्तीसगढ़ एवं मध्यप्रदेश जैसे आदिवासी बहुल प्रदेशों में कुछ संगठनों द्वारा जोर शोर से आदिवासी दिवस को मनाने की परंपरा शुरू कर दी गई है तो यह विषय गम्भीर हो जाता है।

सरकार के प्रति असंतोष का बीज बोने का षड्यंत्र

खास तौर पर तब जब ऐसे आयोजनों के बहाने इस देश की जनजातियों से उनके अधिकार दिलाने की बड़ी बड़ी बातें की जाती हों और एक सुनियोजित तरीके से उनके अंतर्मन में सरकार के प्रति असंतोष का बीज बोने का षड्यंत्र रचा जाता हो। क्योंकि ऐसे तथ्य सामने आए हैं जब इन जनजातियों की समस्याओं के नाम पर एक ऐसे आंदोलन की रूपरेखा तैयार की जाती है जिसके परिणामस्वरूप यह "असंतोष" केवल किसी जनजाति का सरकार के प्रति विद्रोह तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि कहीं कहीं यह सामाजिक आंदोलन का रूप ले लेता है तो कहीं यह असंतोष धर्मांतरण और अलगाववाद का कारण बन जाता है।

...सभी लोग भारत के मूलनिवासी हैं

कहा जा सकता है कि आदिवासी अथवा जनजातियों को उनके अधिकार दिलाने की मुहिम दिखने वाला "आदिवासी दिवस" नाम का यह आयोजन ऊपर से जितना सामान्य और साधारण दिखाई देता है वो उससे कहीं अधिक उलझा हुआ है। क्योंकि भारत का इस विषय में यह मानना है कि भारत में रहने वाले सभी लोग भारत के मूलनिवासी हैं और इनमें से कुछ समुदायों को "अनुसूचित" या चिन्हित किया गया है जिन्हें सामाजिक, आर्थिक, न्यायिक और राजनैतिक समानता दिलाने के लिए संविधान में विशेष प्रावधान किए गए हैं।

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इसके अतिरिक्त मूलनिवासियों के जिन अधिकारों की बात की जा रही है, वो अधिकार भारत का संविधान भारत के हर नागरिक को प्रदान करता है इसलिए भारत के संदर्भ में किसी आदिवासी दिवस का कोई औचित्य नहीं है। इसके बावजूद भारत में इस दिवस को विशेष महत्व देने का प्रयास किया जा रहा है।

सामाजिक संरचना में एक दूसरे के पूरक

इसी क्रम में कुछ संगठन प्रधानमंत्री से इस दिन पर अवकाश की घोषणा करने की अपील भी कर रहे हैं। इस प्रकार के कृत्य निःसंदेह उनके उद्देश्य के प्रति संदेह उत्पन्न करते हैं। क्योंकि भारत जैसे देश में आदि काल से ही जनजाति और गैर जनजाति समाज स्नेह पूर्वक सामाजिक संरचना में एक दूसरे के पूरक बनकर मिलजुल कर रहते थे इसके अनेक ऐतिहासिक और पौराणिक प्रमाण उपलब्ध हैं।

रामायण में केवट की प्रभु राम के प्रति भक्ति और प्रभु राम का केवट पर स्नेह। वनवास के दौरान निषादराज के यहाँ प्रभु श्री राम का रात्रि विश्राम और उन्हें अपना मित्र बना लेना, यहाँ तक कि अपने राज्याभिषेक और अपने अश्वमेध यज्ञ में उन्हें अतिथि रूप में आमंत्रित करना। शबरी के हाथों उसके झूठे बेर खाना। ये तीनों केवट, निषाद और शबरी जो कि आदिवासी थे उनको एक राजवंशी द्वारा यथोचित मान सम्मान आदर और प्रेम देना भारतीय संस्कृति में सामाजिक समरसता का इससे बेहतर उदाहरण और क्या हो सकता है?

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भारत की जनजातियाँ भारतीय समाज का सम्मानित हिस्सा थीं

इसी प्रकार अरुणाचल प्रदेश की 54 जनजातियों में से एक मिजोमिश्मी जनजाति खुद को भगवान कृष्ण की पटरानी रूक्मिणी का वंशज मानती है। इसी प्रकार नागालैंड के शहर डीमापुर को कभी हिडिंबापुर के नाम से जाना जाता था।यहाँ रहने वाली डिमाशा जनजाति खुद को भीम की पत्नी हिडिम्बा का वंशज मानती है। ये सभी तथ्य इस बात का प्रमाण हैं कि भारत की जनजातियाँ भारतीय समाज का सम्मानित हिस्सा थीं। लेकिन कालांतर में आक्रमणकारियों के अत्याचारों से इस सुव्यवस्थित भारतीय समाज में सामाजिक भेदभाव की नींव पड़ी।इसलिए आज आवश्यकता है कि जनजातियों के बहाने भारत की संप्रभुता के खिलाफ चलने वाले षड्यंत्र को समझ कर उसे विफल करने के लिए सरकार की और से ठोस कदम उठाये जाएँ ।

(लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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