यहां महिलाओं पर चढ़ेगा सिंदूर खेला का रंग, पारंपरिक रस्मों के साथ की जाएगी मां की विदाई
गुरुवार को नवमी के बाद मां की विदाई की तैयारी शुरू हो चुकी है। नवमी की पूजा को लेकर भक्तों में उत्साह तो है । लेकिन कहीं ना कहीं मां की विदाई मां के विसर्जन को लेकर मन भारी है।;
मां दुर्गा के पंडाल में महिलाओं की तस्वीर (फोटो:सोशल मीडिया)
sindoor khela। दुर्गा पूजा (Durga Puja Me Sindoor Khela) यानी उल्लास, उत्साह और उपवास के 9 दिन। मां के आगमन पर आनंदित भक्तजन श्रद्धा भक्ति से उनकी आराधना कर रहे हैं। कहीं मां के जयकारों से मंदिर गूंज रहे हैं तो वहीं पंडालों की रौनक देखते ही बन रही है। भक्तजन पुष्पांजलि से मां के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त कर रहे हैं। षष्ठी से पंडालों में मां दुर्गा की पूजा अर्चना अब समाप्ति की ओर है।
बंगाली परंपरा में नवरात्रि में खेला जाता है सिन्दूर
गुरुवार को नवमी के बाद मां की विदाई की तैयारी शुरू हो चुकी है। नवमी की पूजा (Navmi Ki Puja Kab Hai) को लेकर भक्तों में उत्साह तो है । लेकिन कहीं ना कहीं मां की विदाई मां के विसर्जन को लेकर मन भारी है। बंगाली समाज में दशमी के दिन सिंदूर खेला का विशेष महत्व है। मां दुर्गा की विदाई ठीक उसी प्रकार की जाती हैं जिस प्रकार बेटी की विदाई की जाती है। महिलाएं मां दुर्गा की प्रतिमा को पान व मिठाई से बरन (बंगाली परंपरा में विदाई की रस्म) करती हैं। इसके बाद उन्हें सिंदूर लगाकर आपस में एक दूसरे को सिंदूर लगाती हैं।मिठाई बाँटती हैं।
बंगाल में प्रत्येक वर्ष विवाहित महिलाओं का विजयदशमी पर संधि पूजा वा धानुची नृत्य से लेकर सिंदूर खेला तक प्रत्येक प्राचीन परंपराओं का बहुत महत्व है। आज से लगभग 450 साल पहले इस परंपरा का शुभारंभ बंगाल में ही हुआ था। नव विवाहित महिलाओं में सिंदूर खेला का उत्साह ज्यादा रहता है। गोमती नगर निवासी स्तुति मित्रा की इसी साल शादी हुई है वह सिंदूर खेला को लेकर काफी खुश हैं ।वह कहती हैं यह शादी के बाद मेरी पहली दुर्गा पूजा है । कल सिंदूर खेला में मैं जरूर जाऊंगी।
सिंदूर खेला के लिए गरद साड़ी की मांग बढ़ी (sindoor khela matching sari)
मां दुर्गा की प्रतिमा के विसर्जन से पहले महिलाएं सिंदूर खेला में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती हैं । इसके लिए वे पारंपरिक लाल किनारे वाली सफेद साड़ी पहनना पसंद करती हैं। इसे ध्यान में रखते हुए दुकानों में भी तरह-तरह की गरद की साड़ियां उपलब्ध है। आलमबाग स्थित एक शोरूम के सेल्समैन पंकज कहते हैं कि गरद की साड़ियों में कई वैरायटी उपलब्ध है। लाल रंग के साथ क्रीम सफेद व पीली साड़ियों की मांग ज्यादा है। इनकी कीमत ₹2000 से शुरू होती है।
19 को है कोजागरी लक्ष्मी पूजा (Kab Hai Lakshmi Puja)
बंगाली समाज में दुर्गा पूजा के बाद लक्ष्मी पूजा की जाती । है अश्विन पूर्णिमा या शरद पूर्णिमा की रात को भक्तजन मां लक्ष्मी की आराधना करते हैं। इस पूजा को कोजागरी लक्ष्मी पूजा के नाम से जाना जाता है । कोजागरी का अर्थ पूरी रात जागना है। माना जाता है कि इस रात को मां लक्ष्मी पृथ्वी पर आती हैं । भक्तजन रात में जागकर मां की आराधना करते हैं। कहा जाता है कि जिस स्थान पर दुर्गा पूजा की जाती है, उसी स्थान पर मां लक्ष्मी की पूजा भी जरूर करनी चाहिए। इस साल पूजा 19 अक्टूबर समय रात को 11:41 मिनट से लेकर 12:31 तक है।
वैज्ञानिक या रसायनिक भाषा में बात करें तो सिनेबार (cinnabar) से बनने वाली लाल सीसा (red lead) सिंदूर है। इन सिनेबार ब्लॉकों को आम तौर पर कुचल दिया जाता है और सिंदूर के रूप में उत्पादित किया जाता है। इसमें बेहद ज़हरीला धातु पारा (mercury) शामिल होता है। इसका रासायनिक सूत्र Pb3O4 है। इसके विपरीत पारंपरिक सिंदूर हल्दी, फिटकरी और चूने अथवा अन्य हर्बल सामग्री से बनाया जाता था।
सिंदूर का इतिहास और पौराणिक महत्व
वास्तविक रूप सिंदूर और सिंदूर लगाने की उत्पत्ति कब हुई यह ज्ञात करना तो बेहद मुश्किल है ।लेकिन पुरातत्व विभाग के अनुसार उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में 5000 साल पुरानी महिला मूर्तियों को लाल रंग के हिस्सों के साथ पाया गया है, जिससे यह अनुमान लगाए गए हैं कि यह लाल रंग सिंदूर है। सिंदूर को हिंदू महाकाव्यों में भी स्थान मिलता है। बिंदी की तरह सिंदूर का महत्व भी सिर के ठीक बीचो बीच में तीसरे नेत्र चक्र (उर्फ आज्ञा चक्र) लगाना बताया गया है। आज्ञा चक्र की मस्तिष्क से निकटता इसे एकाग्रता, इच्छा और भावनाओं पर नियंत्रण से जोड़ती है।
सिंदूर का वैज्ञानिक महत्व
सिंदूर का उपयोग पारंपरिक रूप से औषधीय कारणों से भी किया जाता रहा है। आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों मे, जड़ों से निर्मित दवाओं आदि में। विशेषज्ञों के अनुसार लाल सिंदूर पाउडर में औषधीय गुण होते हैं । जो महिलाओं को लाभान्वित करते हैं।2017 में भारत सरकार ने सिंदूर को इतना जरूरी समझा कि पाउडर को टैक्स में छूट दे दी।
हालाँकि, 20 वीं शताब्दी की शुरुआत में इस प्रथा पर विचार बदलना शुरू हो गया था । क्योंकि भारत ब्रिटिश उपनिवेशवाद और अंतर्राष्ट्रीय नारीवादी आंदोलनों (British Colonisation and International Feminist movement) के प्रसार द्वारा लाए गए एक बड़े सांस्कृतिक बदलाव से गुजर रहा था। इसी दौरान पुरानी परंपराओं को फिर से स्थापित करने की कोशिश कर रहा पितृसत्तात्मक समाज और सामाजिक प्रथाओं में बंधी महिलाओं के बीच में सिंदूर का योगदान अहम था।
हिन्दू विवाह रिवाज़ में सिंदूर का महत्व
हिन्दू परंपरा के अनुसार दुल्हन के माथे पर लगा सिंदूर उसका सबसे पवित्र निशान होता है । क्योंकि वह एक पत्नी के रूप में अपनी नई यात्रा शुरू करती है। बालों को बीच से विभाजित करने के बाद लगाया गया सिंदूर ( जिसे कुमकुम भी कहते हैं) प्राचीन लोक कथाओं और एक विवाहित महिला के रूप में उसकी मान्यताओं को दर्शाता है। शादी की रस्म में सर्वप्रथम सिंदूर पति द्वारा लगाया जाता है। उसके बाद महिला द्वारा उस विधा को कायम रखने और मान्यता तथा परंपरा को बनाये रखने के लिए हर दिन सिंदूर लगाया जाता है। अगर साफ तौर पर बात करें तो हिन्दू परंपरा में सिंदूर को महिला के दाम्पत्य जीवन का प्रतीक माना जाता है।
हिंदी सिनेमा में सिन्दूर का दर्शन
महत्व के साथ ही सिन्दूर को लेकर अक्सर विवादास्पद स्थिति भी बनी रही है, हिन्दू परंपरा में सिंदूर का सीधा संबंध महिला का उसके पति से है। पति के मरणोपरांत महिला सिन्दूर नहीं लगा सकती है।
भारतीय सिनेमा में वर्षों पहले इस मुद्दे को उठाया गया था, जिसमें किशोर साहू की 1947 में "सिंदूर" नामक फ़िल्म ऐसी ही स्थिति को दर्शाती नज़र आती है। सिंदूर फ़िल्म का अंत भी विधवा की पुनर्विवाह की इच्छा के साथ होता है, जिसे फिल्म के अन्य पात्रों द्वारा स्वीकार किया जाता है। जैसे ही वह सिंदूर को फिर से लगाने के साथ ही अपने दाम्पत्य जीवन का पुनः निर्वाहन शुरू कर देती है। यह फ़िल्म अपने समय से बहुत आगे की कहानी कहती सामाजिक कुरीतियों के गाल पर एक तमाचा थी।