राहत इन्दौरी बर्थडे: “गुलाब ख़्वाब दवा ज़हर जाम क्या-क्या है, मैं आ गया हूँ बता इन्तज़ाम क्या-क्या है’’

राहत इन्दौरी बर्थडे: “गुलाब ख़्वाब दवा ज़हर जाम क्या-क्या है, मैं आ गया हूँ बता इन्तज़ाम क्या-क्या है’’

Update:2020-01-01 14:37 IST

शाश्वत मिश्रा

''रोज़ तारों को नुमाइश में खलल पड़ता है, चाँद पागल है अँधेरे में निकल पड़ता है''। ये शे’र है 1 जनवरी 1950 को मध्य-प्रदेश के इंदौर में जन्में राहतउल्ला कुरैशी का, जिनको आज पूरी दुनिया डॉ. राहत इन्दौरी के नाम से जानती है।

राहत इन्दौरी के बारे में लिखने से पहले हमें सबसे पहले ''ग़ालिब'' के इस शे’र को याद करना पड़ेगा।

''हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे, कहते हैं कि ''ग़ालिब'' का है अंदाज़-ए-बयाँ और''।

यहाँ पर अगर 'ग़ालिब' की जगह ''राहत'' या फिर ''इन्दौरी'' लिख दिया जाए, तो गलत नहीं होगा। क्योंकि इंदौर के इस शायर का मुशायरों में एक खास अंदाज़ नज़र आता है। और वह अंदाज जब नज़ाकत का रूप लेने लगे तो आप समझ लीजिये कि वो अपनी ग़म-ए-जाना यानि प्रेमिका के लिए शे’र या कसीदे पढ़ने लगे हैं।

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उनके कुछ शे’र और ग़ज़लें हैं जिन्हें हम यहाँ पेश कर रहें हैं...

न हम-सफ़र न किसी हम-नशीं से निकलेगा

हमारे पाँव का काँटा हमीं से निकलेगा

 

आँख में पानी रखो होंटों पे चिंगारी रखो

ज़िंदा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो

 

हम से पहले भी मुसाफ़िर कई गुज़रे होंगे

कम से कम राह के पत्थर तो हटाते जाते

 

घर के बाहर ढूँढता रहता हूँ दुनिया

घर के अंदर दुनिया-दारी रहती है

 

मज़ा चखा के ही माना हूँ मैं भी दुनिया को

समझ रही थी कि ऐसे ही छोड़ दूँगा उसे

 

हम अपनी जान के दुश्मन को अपनी जान कहते हैं

मोहब्बत की इसी मिट्टी को हिंदुस्तान कहते हैं

 

न जाने कौन सी मजबूरियों का क़ैदी हो

वो साथ छोड़ गया है तो बेवफ़ा न कहो

 

हमारे ऐब हमें ऊँगलियों पे गिनवाओ

हमारी पीठ के पीछे हमें बुरा न कहो

 

अब ना मैं हूँ, ना बाकी हैं ज़माने मेरे,

फिर भी मशहूर हैं शहरों में फ़साने मेरे,

ज़िन्दगी है तो नए ज़ख्म भी लग जाएंगे,

अब भी बाकी हैं कई दोस्त पुराने मेरे।

 

तेरी हर बात मोहब्बत में गँवारा करके,

दिल के बाज़ार में बैठे हैं खसारा करके,

मैं वो दरिया हूँ कि हर बूंद भंवर है जिसकी,

तुमने अच्छा ही किया मुझसे किनारा करके।

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ये थे उनके कुछ ख़ास शेर, जिसमें इक तरफ़ा प्यार से लेकर प्रेमिका की मोहब्बत और देशभक्ति की झलक देखने को मिलती है।

अब पेश हैं उनकी कुछ ख़ास ग़ज़लें...

1)हरेक चहरे को ज़ख़्मों का आइना न कहो

ये ज़िंदगी तो है रहमत इसे सज़ा न कहो

न जाने कौन सी मजबूरियों का क़ैदी हो

वो साथ छोड़ गया है तो बेवफ़ा न कहो

तमाम शहर ने नेज़ों पे क्यों उछाला मुझे

ये इत्तेफ़ाक़ था तुम इसको हादिसा न कहो

ये और बात के दुशमन हुआ है आज मगर

वो मेरा दोस्त था कल तक उसे बुरा न कहो

हमारे ऐब हमें ऊँगलियों पे गिनवाओ

हमारी पीठ के पीछे हमें बुरा न कहो

मैं वाक़यात की ज़ंजीर का नहीं कायल

मुझे भी अपने गुनाहो का सिलसिला न कहो

ये शहर वो है जहाँ राक्षस भी हैं राहत

हर इक तराशे हुए बुत को देवता न कहो

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2)उसकी कत्थई आँखों में हैं जंतर-मंतर सब

चाक़ू-वाक़ू, छुरियाँ-वुरियाँ, ख़ंजर-वंजर सब

जिस दिन से तुम रूठीं मुझ से रूठे-रूठे हैं

चादर-वादर, तकिया-वकिया, बिस्तर-विस्तर सब

मुझसे बिछड़ कर वह भी कहाँ अब पहले जैसी है

फीके पड़ गए कपड़े-वपड़े, ज़ेवर-वेवर सब

आखिर मै किस दिन डूबूँगा फ़िक्रें करते है

कश्ती-वश्ती, दरिया-वरिया लंगर-वंगर सब

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3)गुलाब ख़्वाब दवा ज़हर जाम क्या-क्या है

मैं आ गया हूँ बता इन्तज़ाम क्या-क्या है

फक़ीर शाख़ कलन्दर इमाम क्या-क्या है

तुझे पता नहीं तेरा गुलाम क्या क्या है

अमीर-ए-शहर के कुछ कारोबार याद आए

मैँ रात सोच रहा था हराम क्या-क्या है

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