Himachal Election 2022: हिमाचल की राजनीति में रहा है ठाकुरों का दबदबा, जानें क्या है वर्चस्व की वजह
Himachal Pradesh Assembly Election 2022: हिमाचल की राजनीति में 1952 से ही ठाकुरों का दबदबा देखने को मिला। दलितों की जनसंख्या अच्छी-खासी होने के बावजूद उनकी हिस्सेदारी नगण्य है। आखिर क्यों?
Himachal Assembly Election 2022: देश के अन्य राज्यों की ही तरह हिमाचल प्रदेश (Himachal Pradesh) की राजनीति में भी जातिगत समीकरण को नकारा नहीं जा सकता। हिमाचल की राजनीति में राजपूत (Rajputs in Himachal Politics) यानी ठाकुरों का दबदबा रहा है। भले ही वहां दलितों और ब्राह्मणों की आबादी भी अच्छी खासी है, लेकिन सत्ता के शिखर पर ठाकुर ही काबिज होते रहे हैं। यहां ठाकुरों की राजनीति में मजबूत धमक रही है। जैसे गुजरात विधानसभा चुनाव में 'पाटीदार' अहम फैक्टर है, जिसके बिना चुनाव नहीं जीता जा सकता ठीक उसी प्रकार इस पहाड़ी राज्य में राजपूतों के बिना सत्ता हासिल करना टेढ़ी खीर है।
हिमाचल प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री डॉ. यशवंत परमार हों या रामलाल ठाकुर, वीरभद्र सिंह हों या प्रेम कुमार धूमल या अब जयराम ठाकुर सभी राजपूत हैं। इस राजपूत बहुल राज्य में भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने ब्राह्मण नेता शांता कुमार को सीएम बनाया था। शांता कुमार हिमाचल के एकमात्र ब्राह्मण मुख्यमंत्री रहे। उन्होंने दो बार राज्य का शीर्ष पद संभाला लेकिन, कभी भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए। वर्तमान चुनाव में भी पार्टी उम्मीदवारों की लिस्ट देखें तो सबसे ज्यादा भरोसा ठाकुर नेताओं पर ही किया गया है।
अब तक 6 में से 5 ठाकुर मुख्यमंत्री
हिमाचल प्रदेश राज्य गठन के बाद अब तक कुल 6 मुख्यमंत्री हुए हैं। इनमें 5 राजपूत और 1 ब्राह्मण रहे। साल 1952 में डॉ. यशवंत सिंह परमार प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री बने। यशवंत परमार लगातार चार बार बतौर मुख्यमंत्री रहे। इसके बाद, कांग्रेस का बड़ा चेहरा वीरभद्र सिंह 6 बार मुख्यमंत्री बने। वीरभद्र 22 वर्षों तक प्रदेश की कमान संभाले। हालांकि, ये वो दौर था जब 5 साल बीजेपी और 5 साल के लिए कांग्रेस सत्ता में बदल-बदल कर आती रही। हालांकि, इस बीच बीजेपी ने ब्राह्मण नेता शांता कुमार को बतौर मुख्यमंत्री दो बार प्रदेश की कमान सौंपी। लेकिन, वो कभी 5 साल का अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए। शांता कुमार 1977 से 1980 तक और 1990 से 1992 तक मुख्यमंत्री रहे थे।
शांता कुमार ही नहीं नड्डा भी ब्राह्मण नेता
हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्रियों की बात चलती है तो शांता कुमार को अपवाद माना जाता है। आपको बता दें, बीजेपी के वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा (J. P. Nadda) भी हिमाचल प्रदेश से ही हैं और उनकी जाति भी ब्राह्मण ही है। वहीं, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री आनंद शर्मा भी हिमाचल के ब्राह्मण नेता ही हैं। कहा जाता है कि, एक ये वजह भी थी वीरभद्र सिंह के रहते उन्हें प्रदेश की राजनीति में हाशिए पर रहना पड़ा। ये अलग बात है आनंद शर्मा में केंद्र में अपना बड़ा कद साबित किया।
हिमाचल का जातीय समीकरण
अब बात हिमाचल के जातीय समीकरण की। साल 2011 की जनगणना के अनुसार, हिमाचल प्रदेश की कुल आबादी 70 लाख के करीब है। क्षेत्रफल और आबादी के लिहाज से इस राज्य की गिनती देश के छोटे राज्यों में होती है। इस पहाड़ी राज्य में कुल आबादी का 50.72 प्रतिशत सवर्ण हैं। इनमें से 32.72 प्रतिशत राजपूत तथा 18 फीसद ब्राह्मण हैं। वहीं, कुल आबादी का 31 प्रतिशत दलित, 13.52 फीसदी ओबीसी और 4.83 प्रतिशत अन्य समुदाय से हैं। हिमाचल एक ऐसा राज्य है जहां मुस्लिम आबादी नगण्य है। इसलिए यहां हिंदुत्व की राजनीति का विशेष असर देखने को नहीं मिलता।
जाति वही, बस चेहरा नया
हिमाचल में बीते 45 सालों की राजनीति पर नजर डालें तो ये दो पार्टियों कांग्रेस और बीजेपी के इर्द-गिर्द घूमती रही है। या यूं कहें, कि वीरभद्र सिंह और प्रेम कुमार धूमल के बीच, तो गलत नहीं होगा। लेकिन, केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद कुछ बदलाव दिखा। साल 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने प्रचंड जीत दर्ज की। प्रदेश की कुल 68 विधानसभा सीटों में से 44 सीटों पर जीत बीजेपी के प्रत्याशी जीतकर विधानसभा पहुंचे। बीजेपी ने इस साल नए चेहरे के रूप में जयराम ठाकुर को मुख्यमंत्री बनाया। बीजेपी ने चेहरा भले बदल दिया, लेकिन फिर 'ठाकुर' से समझौते की हिम्मत नहीं दिखा पाए।
सामाजिक संरचना का असर भी
हिमाचल प्रदेश की राजनीति पर गौर करें तो यहां जाति के नाम पर गोलबंदी देखने को नहीं मिलती है। इसकी बड़ी वजह हिमाचल की भौगोलिक संरचना है। समाजशास्त्री मानते हैं कि, प्रदेश की भौगोलिक संरचना और पर्यावरण का असर सामाजिक संबंधों पर होता है, जो इस राज्य में साफ-साफ दिखता है। दरअसल, पहाड़ी राज्यों में छोटी बस्तियां देखने को मिलती है। इस तरह के राज्यों में शहरों में भी बड़ी आबादी नहीं होती। समाजशास्त्रियों की मानें तो पहाड़ी इलाकों में रहने वाले अगर शहरों की ओर पलायन कर बस भी जाते हैं तो भी अपने गांव और समाज से संपर्क रहते हैं। हिमाचल में एक गांव में औसतन 25 से भी कम परिवार निवास करते हैं। कई गांव ऐसे भी हैं जहां बमुश्किल 5-6 घर ही होते हैं। दूसरी ओर, मैदानी इलाकों में भी लोग बड़ी संख्या में साथ-साथ रहते हैं। इस तरह की बस्तियों का असर जातीय संबंध तथा संपर्क पर भी पड़ता है। मतदान के वक्त इसका असर भी मतदाताओं पर देखने को मिलता है।
दलित-पिछड़ी जातियों का राजनीतिक उभार नहीं
देश में 90 के दशक में उत्तर भारत में जिस तरह दलितों और पिछड़ी जातियों का उभार हुआ। राजनीति में उनकी दखल बढ़ी। मंडल-कमंडल की राजनीति का व्यापक असर रहा। वैसा कुछ हिमाचल प्रदेश में देखने को नहीं मिला। हिमाचल में दलित, ओबीसी और अनुसूचित जाति-जनजाति आबादी करीब 50 प्रतिशत है बावजूद उनका उभार कम और सवर्णों का ज्यादा देखने को मिला। जिसमें ठाकुरों के वर्चस्व का तो इतिहास है। जानकार मानते हैं कि, हिमाचल में दलित, राजपूतों और ब्राह्मणों के एकाधिकार को समय-समय पर चुनौती जरूर देते रहे हैं, मगर बड़ा परिवर्तन नहीं ला पाए। इसकी मुख्य वजह इस राज्य में सामाजिक आंदोलन का नहीं होना भी है। साथ ही, हिमाचल के दलितों के पास जमीन नहीं है।
हिमाचल में दलित एकजुट नहीं
हिमाचल के जातीय समीकरण और पिछले आंकड़ों पर नजर डालें तो यहां दलित एकजुट नहीं हैं। इसकी कई वजहें हैं। जिनमें प्रमुख जागरूकता का अभाव भी है। हालांकि, समय के साथ-साथ स्थिति में बदलाव आ रहा है। मगर, हिमाचल में दलितों का उभार अभी शेष है। कई लोगों का ये मानना है कि यहां दलितों के साथ नाइंसाफी-भेदभाव का इतिहास नहीं रहा है। वहीं, कई इसे गलत मानते हैं। जबकि, स्थानीय लोगों का मानना है कि, लंबे समय से भले ही दोनों पार्टियों ने दलितों से दूरी बनाए रखी, मगर लंबे समय तक ऐसा ही रहेगा यह संभव नहीं।
ठाकुर चेहरा 'हिट फॉर्मूला'
उपरोक्त कई वजहें हैं जिस कारण राज्य की दोनों बड़ी पार्टियां सवर्णों, खासकर ठाकुर चेहरे के प्रति झुकाव रखती रही है। क्योंकि, बीते 45 सालों के इतिहास को देखें तो ठाकुर चेहरा बीजेपी और कांग्रेस दोनों के लिए हिट फॉर्मूला है। जब तक इसमें बदलाव को लेकर कोई बड़ी सुगबुगाहट नहीं होती, तब तक तो यही ट्रेंड चलता नजर आता दिख रहा है।