हार नहीं मानूंगा: कविता के जरिये अटल जी ने बताया जीवन का नज़रिया
Atal Bihari Vajpayee Poems: आपातकाल के दौरान जेल जाने के बाद से ही अटल जी ने कविताएं लिखना शुरू कर दिया था। उन्होंने ‘कैदी कविराज की कुंडलियां‘ और ‘अमर आग है‘ की रचना की जो 1994 में प्रकाशित हुई थी।
Atal Bihari Vajpayee Poems: अटल बिहारी बाजपेयी एक प्रभावशाली राजनेता ही नहीं बल्कि एक प्रसिद्ध कवि भी थे - अपनी कलम की ताकत के साथ साथ अपने शब्दों से जादू करने वाले शख्स। उनकी कविताएं महज चंद पंक्तियां नहीं बल्कि जीवन का नजरिया हैं, समाज के ताने-बाने के साथ आगे चलने की प्रेरणा हैं और घोर निराशा में भी आशा की किरणें भरने वाली हैं। उन्होंरने एक से बढ़कर एक कई कविताएं लिखीं। कई कविताओं का उपयोग उन्होंने अपने भाषणों में भी खूब किया।
आपातकाल के दौरान जेल जाने के बाद से ही अटल जी ने कविताएं लिखना शुरू कर दिया था। उन्होंने ‘कैदी कविराज की कुंडलियां‘ और ‘अमर आग है‘ की रचना की जो 1994 में प्रकाशित हुई थी।
जानते हैं अटल जी की कुछ कविताओं के बारे में
कदम मिलाकर चलना होगा
"बाधाएं आती हैं आएं,
घिरें प्रलय की घोर घटाएं,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएं,
निज हाथों में हंसते-हंसते,
आग लगाकर जलना होगा
कदम मिलाकर चलना होगा।
हास्य-रूदन में, तूफानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा
कदम मिलाकर चलना होगा।
उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।
सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।
कुछ कांटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।
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खून क्यों सफेद हो गया?
खून क्यों सफेद हो गया?
भेद में अभेद खो गया।
बंट गये शहीद, गीत कट गए,
कलेजे में कटार दड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।
खेतों में बारूदी गंध,
टूट गये नानक के छंद।
सतलुज सहम उठी, व्यथित सी बितस्ता है।वसंत से बहार झड़ गई
दूध में दरार पड़ गई।
अपनी ही छाया से बैर,
गले लगने लगे हैं ग़ैर,
ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता।
बात बनाएं, बिगड़ गई
दूध में दर पड़ गई।
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गीत नया गाता हूँ
गीत नया गाता हूँ,
टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर,
पत्थर की छाती में उगा आया नव अंकुर,
झरे सब पीले पात,
कोयल की कुहुक रात,
प्राची के अरुणिम की रेख देख पाता हूँ,
गीत नया गाता हूँ,
टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी,
अंतर की चिर व्यथा पलकों पर ठिठकी,
हार नहीं मानूंगा रार नहीं ठानूंगा,
काल में कपाल पर लिखता मिटाता हूं,
गीत नया गाता हूं||
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क्षमा करो बापू! तुम हमको,
बचन भंग के हम अपराधी,
राजघाट को किया अपावन,
मंज़िल भूले, यात्रा आधी।
जयप्रकाश जी! रखो भरोसा,
टूटे सपनों को जोड़ेंगे।
चिताभस्म की चिंगारी से,
अन्धकार के गढ़ तोड़ेंगे।
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कौरव कौन,कौन पांडव,
टेढ़ा सवाल है|
दोनों ओर शकुनि
का फैला कूटजाल है|
धर्मराज ने छोड़ी नहीं
जुए की लत है|
हर पंचायत में पांचाली
अपमानित है|
बिना कृष्ण के
आज महाभारत होना है,
कोई राजा बने,
रंक को तो रोना है।
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राह कौन सी जाऊं
चौराहे पर लुटता चीर
प्यादे से पिट गया वजीर
चलूँ आखिरी चाल कि बाजी छोड़ विरक्ति सजाऊँ मैं?
राह कौन सी जाऊँ मैं?
सपना जन्मा और मर गया
मधु ऋतु में ही बाग झर गया
तिनके टूटे हुये बटोरूँ या नवसृष्टि सजाऊँ मैं?
राह कौन सी जाऊँ मैं?
दो दिन मिले उधार में
घाटों के व्यापार में
क्षण-क्षण का हिसाब लूँ या निधि शेष लुटाऊँ मैं?
राह कौन सी जाऊँ मैं ?
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जीवन की सांझ
जीवन की ढलने लगी सांझ
उमर घट गई, डगर कट गई
जीवन की ढलने लगी सांझ।
बदले हैं अर्थ, शब्द हुए व्यर्थ
शान्ति बिना खुशियाँ हैं बांझ।
सपनों में मीत, बिखरा संगीत
ठिठक रहे पांव और झिझक रही झांझ।
जीवन की ढलने लगी सांझ।
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मरण की मांग करूंगा
मैंने जन्म नहीं मांगा था,
किन्तु मरण की मांग करुँगा।
जाने कितनी बार जिया हूँ,
जाने कितनी बार मरा हूँ।
जन्म मरण के फेरे से मैं,
इतना पहले नहीं डरा हूँ।
अन्तहीन अंधियार ज्योति की,
कब तक और तलाश करूँगा।
मैंने जन्म नहीं माँगा था, किन्तु मरण की मांग करूँगा।
बचपन, यौवन और बुढ़ापा,
कुछ दशकों में ख़त्म कहानी।
फिर-फिर जीना, फिर-फिर मरना,
यह मजबूरी या मनमानी?
पूर्व जन्म के पूर्व बसी दुनिया का द्वारचार करूँगा।
मैंने जन्म नहीं मांगा था, किन्तु मरण की मांग करूँगा।