कोरोना का गहराता संकट और लांछन की राजनीति
देश में कोराना का संकट गहराता जा रहा है। दिल्ली और महाराष्ट्र में तो कोराना कम्युनिटी स्प्रेड यानी सामाजिक फैलाव की ओर है।
रतिभान त्रिपाठी
देश में कोराना का संकट गहराता जा रहा है। दिल्ली और महाराष्ट्र में तो कोराना कम्युनिटी स्प्रेड यानी सामाजिक फैलाव की ओर है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनके नायब मनीष सिसोदिया अगर संकट के व्यापक प्रभाव को लेकर चिल्लाहट मचाए हुए हैं तो गलत नहीं है। उधर देश की आर्थिक राजधानी मुंबई के हालात दिन ब दिन बिगड़ते जा रहे हैं। यहां कोरोना से मौतों का बढ़ता आंकड़ा इतना डरावना है कि रोजमर्रा पर जिंदगी बसर करने वाले कामगार ही नहीं, सुविधा संपन्न लोग भी बुरी तरह डरे हुए हैं। लेकिन ऐसा नहीं कि सिर्फ इन्हीं दो राज्यों में कोरोना का यह हाल है, दूसरे राज्य भी बहुत परेशानी में हैं।
जिस गुजरात को कभी मॉडल राज्य बताकर देश का चुनाव जीता गया और दूसरे राज्यों को गुजरात जाकर सीखने समझने की बात बार बार दोहराई जाती थी, कोरोना काल में उसी गुजरात मॉडल की बात एक बार भी सुनाई नहीं पड़ी। वहां के शहरों से यह महामारी अब गांवों की ओर बढ़ रही है। अब कोरोना को संभालने के बजाए सत्तारूढ़ पार्टी के बड़े नेता वर्चुअल सभाएं करके जनमत अपने पक्ष में बनाए रखने की जुगत में हैं। यही नहीं, विरोधियों पर राजनीतिक लांछन की तुच्छ राजनीति लगातार बढ़ती जा रही है।
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लॉकडाउन के बावजूद देश में ढाई लाख से अधिक कोरोना मरीज
पूरे भारत में दो महीने से अधिक समय तक चले लॉकडाउन के बावजूद देश में ढाई लाख से अधिक कोरोना मरीज पाए गए। इनमें सवा लाख से अधिक मामले अब भी सक्रिय हैं। जो देश कोरोना पीड़ितों के आंकड़ों में दुनिया तमाम विकसित देशों के मुकाबले बहुत पीछे था, अचानक महीने भर के भीतर पांचवें स्थान पर आ खड़ा हुआ। और ईश्वर न करे वह दिन आए, जब पहले दूसरे पर आ जाए। लेकिन जो हालात दिख रहे हैं, उनसे तो डर कुछ ऐसा ही है। सरकार के दावे के हिसाब से सिस्टम पूरी तरह काम कर रहा है। संसाधन भी जुटाए जा रहे हैं तो फिर हालात बिगड़ते क्यों जा रहे हैं? इसका मतलब तो यही निकाला जाने लगा है कि दावों के विपरीत सिस्टम प्रभावी नहीं है। या फिर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की शब्दावली पर गौर करें तो भारत में जैसे जैसे जांच तेज होगी, कोरोना पॉजिटिव मरीजों का आंकड़ा बढ़ता जाएगा।
लगभग एक महीने पहले जब सरकार ने कामगारों को ट्रेनों व बसों से ढोकर उनके घर पहुंचाने की प्रक्रिया शुरू की, तब से ही यह महामारी गांव-गांव पहुंची है। उससे पहले देश के गांवों में कोरोना बिलकुल नहीं था या न के बराबर था। जिस दौर में मरीजों की संख्या साढ़े पांच सौ के आसपास थी, तब लॉकडाउन कर दिया गया और जब एक लाख हो गई तो लॉकडाउन खत्म कर दिया गया। तो आखिर उस प्रयोग का प्रयोजन किस प्रकार सार्थक हुआ? नीति निर्धारक भले ही आत्मप्रवंचना करें और खुद को सही साबित करने की कोशिश करें लेकिन जनता के बीच यह सवाल लगातार उभर रहे हैं कि कोरोना को लेकर सरकार से चूक जरूर हुई है। और यह चूक चूंकि केंद्र स्तर से है इसलिए उस पार्टी की राज्य सरकारें तो मुंह सिलने को मजबूर हैं।
विरोधी पार्टियों की जो सरकारें मुंह खोल रही हैं, सारा दोषारोपण उन्हीं पर किया जा रहा है। ऐसा भी नहीं है कि दिल्ली और महाराष्ट्र की सरकारें अपने स्तर से बहुत अच्छा काम कर रही हैं। वह भी केंद्र पर बेवजह लांछन लगाने से बाज नहीं आ रही हैं। ऐसे में केंद्र सरकार की जिम्मेदारी इसलिए बड़ी हो जाती है। संकट के इस दौर में लांछन की राजनीति शुरू करने से कहीं अधिक महत्वपूर्ण और प्राधमिकता का विषय महामारी से जूझने का है, चाहे वह सत्ता पक्ष हो या विपक्ष।
राज्यों के नेताओं को सही सूचनाएं जुटाकर और अपने निजी प्रयासों से सरकारों की मदद करने का आह्वान किसी नेता ने उस गंभीरता से नहीं किया, जिस तरीके से करना चाहिए। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उनके पुत्र राहुल गांधी ने तो पूरे समय मोदी सरकार और भाजपा शासित राज्यों की सरकारों का विरोध करने के अलावा कुछ किया ही नहीं। उनका एक भी सुझाव इस स्तर का नहीं था, जिसे सरकारें भी मानने को बाध्य होतीं। दोनों नेता और कांग्रेस महासचिव प्रियंका वाड्रा भी लांछन की ही राजनीति में प्राणपण से जुटी रहीं।
महाराष्ट्र में कोरोना के ऐसे हालात
महाराष्ट्र में कोरोना के हालात पर नजर डालें तो यहां भारतीय जनता पार्टी शिवसेना नीत सरकार पर लांछन की ही राजनीति कर रही है। हालांकि जो हालात उभरे हैं, उनसे तो देशव्यापी संदेश यही है कि कोरोना को लेकर यह सरकार वाकई फेल कर गई है। वह भी तब जब उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, झारखंड आदि राज्यों ने उनके राज्य से अपने कामगार निकालकर अपने यहां बुला लिये हैं। मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के बेटे और सरकार में मंत्री आदित्य ठाकरे भले ही यह गाल बजा रहे हैं कि हमारी सरकार आक्रामकता से कोरोना के खिलाफ लड़ाई लड़ रही है। मुख्यमंत्री के साथ मिलकर हर मंत्री अपनी ओर से पूरी कोशिश कर रहा है।
सोशल मीडिया और मीडिया में राजनीतिक लड़ाई दिख है और हम इस चक्कर में नहीं पड़े हैं। आदित्य ठाकरे का यह कहना कि दुनिया में भाजपा ही ऐसी पार्टी है, जो कोरोना के संकट में भी राजनीति में लगी हुई है लेकिन सच यह है कि राजनीति को जन्म आदित्य की ही पार्टी और सरकार ने दिया। और उसी राजनीति की वजह से वहां काम करने वाले लोगों को अपने गांव घर भागना पड़ा। शिवसेना के इस ‘पाप’ में कांग्रेस और शरद पवार की एनसीपी भी बराबर की भागीदार रही। महाराष्ट्र में जिस शिवसेना के साथ कांग्रेस सरकार चला रही है, मजदूरों के साथ घुसपैठियों जैसा व्यवहार कराने को लेकर शेष देश के लोगों को वह क्या जवाब देगी? मामला फिलहाल भले न उठे लेकिन चुनाव में यह असल मुद्दा होगा। शेष देश में शिवसेना और एनसीपी की तो कोई हैसियत ही नहीं है लेकिन मुंबई से भगाए जाने का लोग कांग्रेस से जवाब जरूर मांगेंगे।
बुरी तरह प्रभावित राज्यों में शामिल गुजरात
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गृह राज्य गुजरात कोरोना संक्रमण से बुरी तरह प्रभावित होने वाले राज्यों में शामिल है। महाराष्ट्र के बाद गुजरात ऐसा राज्य था जहां बेहद तेज़ी से कोरोना संक्रमण फैला और यहाँ पर वायरस के कारण मरने वालों की दर भी लगातार चिंता का विषय रही है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक़, देश में अब तक ढाई लाख से ज़्यादा कोरोना संक्रमितों में से क़रीब 65 प्रतिशत मरीज़ अकेले महाराष्ट्र, तमिलनाडु, दिल्ली और गुजरात में हैं। महाराष्ट्र में मृतकों का आँकड़ा 2587 है, गुजरात में 1122, दिल्ली में 606 और तमिलनाडु में 208 है। देश में कोरोना संक्रमण के कारण होने वाली मौतों का दर तीन प्रतिशत रहा है लेकिन गुजरात में शुरू से ही मृत्यु दर ज़्यादा रही है।
इसका क्या कारण है? इसके जवाब में एचसीजी ग्रुप ऑफ़ हॉस्पिटल्स के रीजनल डायरेक्टर डॉ भरत गढवी कहते हैं कि इसका बड़ा कारण है कि लोग देर से इलाज के लिए आ रहे हैं और उन्हें बचाना मुश्किल हो रहा सरकारी नीतियां भी लचर रही हैं। टेस्टिंग और आइसोलेशन काम शुरुआत में बहुत जोश के साथ हुआ लेकिन अब सरकारी प्रशासन थकता नज़र आ रहा है।
केंद्र ने देश के सबसे बड़े एम्स अस्पताल के प्रमुख डॉ. रणदीप गुलेरिया को भी मई में अमदाबाद के दौरे पर भेजा था। मई के अंतिम हफ़्ते तक गुजरात महाराष्ट्र के बाद सबसे ज़्यादा प्रभावित राज्य था। गुजरात में कोरोना संक्रमण के सबसे बड़े हॉटस्पॉट अहमदाबाद और सूरत रहे हैं। अहमदाबाद में गुजरात के कुल संक्रमितों में से 70 फ़ीसदी से ज़्यादा मरीज़ हैं, गुजरात में होने वाली अधिकांश मौतें भी यहीं पर हुई हैं। जब हालात यह हो गए हों, तब सवाल यह उठता है कि वह गुजरात मॉडल कहां चला गया।
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दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल तो 'महीन' राजनीति का टॉनिक लेकर ही काम करते आ रहे हैं। उनकी राजनीति का मुख्य आधार ही लांछन लगाना और फिर अपने 'खोल' में सिमट जाना रहा है। अपने राज्य से बाहरी कामगारों को भगाने की राजनीति का आगाज भी उन्होंने किया, जिसका सर्वाधिक दुष्प्रभाव उत्तर प्रदेश को झेलना पड़ा।
वह उस बच्चे के जैसे व्यवहार करते रहे हैं कि जो पहले दूसरे को अपशब्द कहता है और फिर जब पिट जाता है तो रोने लगता है लेकिन थोड़ी देर बाद फिर अपशब्द कहने लगता है। कोरोना काल में भी वह ऐसा ही व्यवहार करते नजर आ रहे हैं। वह काम कितना कर रहे हैं, यह तो बहुत स्पष्ट नहीं है लेकिन लांछन का मंत्र खूब जानते हैं। जाहिर है कि लांछन के बजाए काम पर ध्यान देते तो दिल्ली में हालात इतने नहीं बिगड़ते।
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