उम्मीदवारों को भा रहे डिजिटल चुनाव चिन्ह

Update:2019-05-11 12:30 IST
उम्मीदवारों को भा रहे डिजिटल चुनाव चिन्ह

नई दिल्ली: किसी दौर में निर्दलीय या गैर-पंजीकृत दलों के उम्मीदवार झाड़ू और बैलगाड़ी जैसे चुनाव चिन्ह लेकर मैदान में उतरते थे लेकिन अब इन चुनाव चिन्हों पर तकनीक का असर साफ नजर आ रहा है। अब लैपटाप, माउस, सीसीटीवी कैमरा और पेनड्राइव जैसे चुनाव चिन्ह लेकर उम्मीदवार मैदान में हैं। चुनाव आयोग के पास मुक्त चुनाव चिन्हों की सूची होती है। निर्दलीयों को उनमें से अपनी पसंद के मुताबिक चिन्ह चुनना होता है लेकिन बदलते समय के साथ इस सूची में भी बदलाव आया है। उम्मीदवारों की पसंद को ध्यान में रखते हुए चुनाव आयोग ने इस बार मुक्त चुनाव चिन्हों की तादाद दोगुने से भी ज्यादा बढ़ा दी है। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान आयोग की ऐसी सूची में महज 87 चुनाव चिन्ह थे। इस बार इनकी तादाद बढ़ कर 198 हो गई है। इनमें डिजिटल चुनाव चिन्हों की भरमार है।

पहले निर्दलीय उम्मीदवारों और गैर-पंजीकृत राजनीतिक दलों के लिए बैलगाड़ी, कुल्हाड़ी, मोमबत्ती, टोकरी और गाजर, ट्रैक्टर, पंपिंग सेट, चारा काटने की मशीन और हैंडपंप जैसे चुनाव चिन्ह होते थे लेकिन जीवन के हर क्षेत्र में तकनीक के बढ़ते असर से अब चुनाव चिन्ह भी अछूते नहीं रहे हैं। अब मुक्तचुनाव चिन्हों की सूची में इनके साथ सीसीटीवी कैमरे, कंप्यूटर के माउस, पेनड्राइव, लैपटाप, मोबाइल चार्जर और ब्रेड टोस्टर ने ले ही है। निर्दलीय उम्मीदवारों और राजनीतिक पर्यवेक्षकों की दलील है कि ऐसे आधुनिक चुनाव चिन्हों से खासकर युवा तबके को लुभाना आसान होता है। वैसे, इस लोकसभा चुनाव में बैट, चारपाई, कैरमबोर्ड, केटली जैसे चुनाव चिन्ह भी आवंटित किए गए हैं।

यह भी पढ़ें : अदालत ने चिटफंड कंपनियों के मामले में सरकार को समिति बनाने का अंतिम मौका दिया

चुनाव चिन्हों में आने वाला यह बदलाव भारत के इंडिया में बदलने का संकेत है। दशकों पहले चुनाव चिन्हों का यह सफर बैलगाड़ी और ऐसे ही दूसरे चुनाव चिन्हों के साथ शुरू हुआ था। अब उम्मीदवारों के पास चुनने के लिए रोबोट से लेकर लैपटाप तक हैं। पर्यवेक्षकों का कहना है कि तेजी से बढ़ती शहरी आबादी और तकनीक के बढ़ते असर ने चुनाव चिन्हों पर भी असर डाला है। देश में हुए पहले लोकसभा चुनावों के दौरान 90 फीसदी वोटर ग्रामीण इलाकों में रहते थे। वर्ष 1951-52 में होने वाले इन चुनावों में प्रति चार में से तीन यानी तीन चौथाई वोटर अनपढ़ थे। उनको चुनाव चिन्हों की सहायता से ही अपनी पसंदीदा पार्टी और उम्मीदवारों को पहचानने में सहायता मिलती थी। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक अब 37 फीसदी आबादी महानगरों व शहरों में रहती है। इसके साथ ही साक्षरता भी तेजी से बढ़ी है। इस लगातार बढ़ती शहरी आबादी के लिए लैपटाप और मोबाइल फोन अब सामाजिक बदलाव का सशक्त प्रतीक बन गए हैं।

खासकर नए वोटरों में भी ऐसे चुनाव चिन्हों के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है। चुनाव चिन्ह से पार्टी और उम्मीदवार की मानसिकता का संकेत मिल जाता है। चुनाव चिन्ह देखते ही समझ में आ जाता है कि किसी उम्मीदवार या राजनीतिक पार्टी से क्या उम्मीद रखनी चाहिए। लोगों का यह भी मानना है कि चुनाव चिन्हों में आने वाला बदलाव स्वाभाविक है। अब बैलगाड़ी, कुल्हाड़ी व कुदाल जैसे चुनाव चिन्हों की प्रसांगिकता खत्म हो चुकी है। शहरों में रहने वाली नई पीढ़ी ने तो बैलगाड़ी जैसी चीजें फिल्मों में ही देखी होंगी। नए वोटरों को लैपटाप, मोबाइल व माउस जैसी चीजों के प्रति अपनापन महसूस होता है।

राजनीतिक पर्यवेक्षक कहते हैं कि डिजिटल चुनाव चिन्हों से राजनेताओं को युवा तबके के लुभाने में सहायता मिलती है। कई इलाकों में तो महज चुनाव चिन्ह के बल पर ही निर्दलीय उम्मीदवलार तमाम समीकरणों को उलटते हुए बाजी मार ले जाते हैं। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि डिजिटल क्रांति के मौजूदा दौर में चुनाव चिन्हों में आने वाला बदलाव एक सामान्य प्रक्रिया है। आने वाले दिनों में इस सूची में कई और नई चीजें शामिल हो सकती हैं।

यह भी पढ़ें : राजनाथ सिंह का दावा, पश्चिम बंगाल में सभी 42 लोकसभा सीटें जीतेगी BJP

भारत का चुनाव आयोग चुनाव चिह्न भी आवंटित करता है। चुनाव आयोग को संविधान के आर्टिकल 324, रेप्रजेंटेशन ऑफ द पीपुल ऐक्ट, 1951 और कंडक्ट ऑफ इलेक्शंस रूल्स, 1961 के माध्यम से शक्ति प्रदान की गई है। इन शक्तियों का इस्तेमाल करके चुनाव आयोग ने चुनाव चिह्न (आरक्षण एवं आवंटन) आदेश, 1968 जारी किया था। देश के अंदर राजनीतिक पार्टियों और उम्मीदवारों को चुनाव चिह्न इसी के तहत आवंटित किया जाता है।

चुनाव आयोग के पास चुनाव चिह्नों की दो तरह सूची होती है। बीते सालों में आवंटित हो चुके निशानों की आयोग के पास एक सूची होती है। दूसरी सूची ऐसे निशानों की होती है जिसे किसी को भी आवंटित नहीं किया गया है। किसी भी समय चुनाव आयोग के पास कम से कम ऐसे 100 निशान होते हैं, जो अब तक किसी को आवंटित नहीं किए गए हैं। निशानों का चुनाव इस बात को ध्यान में रखकर किया जाता है कि वे आसानी से मतदाताओं को याद रहे और आसानी से वे उनको पहचान जाएं। ज्यादातर मामलों में पार्टियां खुद आयोग के पास अपने मनपसंद चुनाव चिह्न की लिस्ट जमा करती हैं लेकिन जरूरी नहीं है कि आयोग इसको स्वीकार करे। अगर चुनाव चिह्न ऐसा हो जिस पर अब तक किसी पार्टी ने दावा न किया हो तो वह चिह्न पार्टी को आवंटित किया जा सकता है। अगर किसी पार्टी के पास वह चुनाव चिह्न है तो आयोग मना कर सकता है। इस स्थिति में आयोग वैकल्पिक निशानों का सुझाव देता है।

पूरे देश में एक निशान

राष्ट्रीय पार्टियों जैसे बीजेपी, कांग्रेस आदि का पूरे देश में एक जैसा चुनाव चिह्न होगा। अगर किसी राज्य या विधानसभा और संसदीय क्षेत्र में किसी खास राष्ट्रीय पार्टी का उम्मीदवार नहीं है, उस स्थिति में भी किसी और को वह चुनाव चिह्न नहीं दिया जा सकता है। इसके बाद राज्य स्तरीय पार्टियों का नंबर आता है। राज्य स्तरीय पार्टी के चुनाव चिह्न को किसी खास राज्य में किसी अन्य पार्टी को आवंटित नहीं किया जा सकता है। लेकिन एक ही निशान दो अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग पार्टियों को दिया जा सकता है। जैसे महाराष्ट्र में शिवसेना और बिहार में झारखंड मुक्ति मोर्चा दोनों का चुनाव चिह्न तीर-धनुष है।

 

Tags:    

Similar News