Hindi Diwas 2020: सूर-कबीर और तुलसी की धरती यूपी में पिछड़ती हिन्दी
हिंदी भले हमारी राजभाषा हो लेकिन कोर्ट कचहरी से लेकर सरकारी विभागों तक में काफी काम अंग्रेजी में हो रहा है। ऐसे में हिंदी केवल 15 दिन के हिंदी पखवाडे़ तक ही सीमित होती जा रही है।
मनीष श्रीवास्तव
लखनऊ: कबीर, सूरदास और तुलसीदास की धरती उत्तर प्रदेश जहां एक से एक बड़े हिंदी कवि हुए। उत्तर प्रदेश जहां हिंदी उसकी सहोदरी अवधी, बृज और भोजपुरी जैसी कई भाषायें निकली और जिसका बहुत ही समृद्ध साहित्य है। उसी उत्तर प्रदेश के माध्यमिक शिक्षा परिषद की परीक्षाओं में हिंदी में लाखों विद्यार्थी फेल हो रहे है। इतना ही नहीं विश्वविद्यालयों में भी हिंदी को विषय के तौर पर चुनने वालों की संख्या में भी कमी आती जा रही है।
हिंदी में फेल होने वाले विद्यार्थियों की संख्या अधिक
आंकड़ों को देखे तो अचरज होता है कि सामान्य बोलचाल में हिंदी का प्रयोग करने वाले राज्य में यूपी बोर्ड की परीक्षा में हिंदी में फेल होने वाले विद्यार्थियों की संख्या बढ़ती जा रही है। हालांकि इस साल हिंदी में फेल होने वालों की संख्या में कमी आयी है लेकिन फिर भी यह संख्या हिंदीभाषी राज्य यूपी के लिहाज से काफी बड़ी है। यूपी बोर्ड की हाईस्कूल व इंटरमीडिएट की परीक्षा में 07 लाख 97 हजार 826 परीक्षार्थी हिन्दी में फेल हो गए। जिसमे 10वीं में 05 लाख 27 हजार 866 तथा इंटरमीडिएट में 02 लाख 69 हजार 960 परीक्षार्थी हिन्दी में फेल हो गये।
11 लाख परीक्षार्थी हिंदी में फेल हुए थे
यह केवल इसी साल नहीं हुआ बल्कि ये सिलसिला कई सालों से चल रहा है। पिछले साल वर्ष 2019 में भी यूपी बोर्ड में हाईस्कूल व इंटर में 09 लाख 98 हजार 250 परीक्षार्थी फेल हुए थे। जबकि वर्ष 2018 में हाईस्कूल में 07.80 लाख तथा इंटरमीडिएट में 3.38 लाख, कुल करीब 11 लाख परीक्षार्थी हिंदी में फेल हुए थे।
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यूपी बोर्ड के अलावा अन्य बोर्डो में हिंदी की दुर्दशा
यूपी बोर्ड के अलावा अन्य बोर्डो में तो राजभाषा की पदवीं रखने वाली हिंदी की स्थिति और ज्यादा खराब है। इन बोर्डों में 10वीं कक्षा के बाद हिंदी अनिवार्य विषय नहीं रह जाता है। अन्य बोर्डों के ज्यादातर स्कूलों में हिंदी के स्थान पर कम्पयूटर या अन्य भाषाओं की पढ़ाई होती है। इसके अलावा राज्य के मिशनरी स्कूलों में तो हिंदी को दोयम दर्जें की भाषा मान कर व्यवहार होता है।
अभिभावकों से भी अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करने का निर्देश
मिशनरी स्कूलों में शिक्षक और विद्यार्थी की बोलचाल की भाषा भी अंग्रेजी ही होती है। और यहां आने वाले अभिभावकों से भी यहीं उम्मीद की जाती है कि वह अंग्रेजी भाषा में ही बात करें। इसके साथ ही अगर इंटरमीडिएट की बाद की शिक्षा में देखें तो बीते साल लखनऊ विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की 60 सीटों में से आधे से ज्यादा पर सीटे खाली ही रह गई। यहां केवल 26 विद्यार्थियों ने ही हिंदी विषय में दाखिला लिया। यही हाल कमोबेश यूपी के सभी विश्वविद्यालयों का है।
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हिंदी पखवाडे़ तक ही सीमित होती जा रही है
हालात ये है कि यूपी में हिंदी सिनेमा और दैनिक जीवन में हिंदी का चलन तो खूब है। हिंदी अखबारों की प्रसार संख्या अंग्रेजी अखबारों से ज्यादा है। हिंदी समाचार चैनलों की टीआरपी अंग्रेजी न्यूज चैनलों की टीआरपी से ज्यादा है लेकिन शिक्षा में विषय के तौर पर हिंदी को दोयम दर्जे का ही माना जा रहा है। हिंदी भले हमारी राजभाषा हो लेकिन कोर्ट कचहरी से लेकर सरकारी विभागों तक में काफी काम अंग्रेजी में हो रहा है। ऐसे में हिंदी केवल 15 दिन के हिंदी पखवाडे़ तक ही सीमित होती जा रही है।