प्रकृति प्रेमियों का है अलग धर्म–सरना, सरकार के इस फैसले के बाद मचा बवाल

मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की झारखंड सरकार की ओर से वर्ष 2021 की जनगणना में आदिवासियों के लिए अलग से ‘आदिवासी सरना धर्म कोड’ लागू करने का प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजने का फैसला किया गया है. लेकिन सरना धर्म कोड के साथ ‘आदिवासी’ शब्द जोड़ने पर आदिवासियों में मतभेद उत्पन्न हो गया है.

Update: 2020-11-11 05:24 GMT
प्रकृति प्रेमियों का है अलग धर्म–सरना, सरकार के इस फैसले के बाद मचा बवाल

नई दिल्ली: ‘सरना’ झारखण्ड में आदिवासियों का एक धर्म है. ऐसा धर्म जिसका ईश्वर प्रकृति है. आदिवासी जमाने से मांग करते आये हैं कि ‘सरना’ को किसी भी अन्य धर्म की तरह सरकारी मान्यता दी जाये. अब मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की झारखंड सरकार की ओर से वर्ष 2021 की जनगणना में आदिवासियों के लिए अलग से ‘आदिवासी सरना धर्म कोड’ लागू करने का प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजने का फैसला किया गया है. लेकिन सरना धर्म कोड के साथ ‘आदिवासी’ शब्द जोड़ने पर आदिवासियों में मतभेद उत्पन्न हो गया है. एक वर्ग का कहना है कि जब सरना अलग धर्म है तो इसके आगे पीछे आदिवासी क्यों जोड़ा जाये?

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क्या है सरना

दरअसल, सरना आदिवासी समुदाय के एक धर्म का नाम है जिसमें प्रकृति की उपासना की जाती है. झारखंड में 32 जनजातियां हैं जिनमें से आठ पीवीटीजी (परटिकुलरली वनरेबल ट्राइबल ग्रुप) हैं. यह सभी जनजाति हिंदू की ही कैटेगरी में आते हैं, लेकिन इनमें से जो ईसाई धर्म स्वीकार कर चुके हैं वे अपने धर्म के कोड में ईसाई लिखते हैं. जो प्रकृति उपासक सरना हैं उनके लिए कोई कोड नहीं है. आदिवासी समुदाय अपनी धार्मिक पहचान को बनाए रखने के लिए सरना कोड की मांग कर रहे हैं.

बताया जाता है कि वर्ष 2011 की जनगणना में झारखंड के 42 लाख और देश भर के छह करोड़ लोगों ने अपना धर्म सरना लिखाया था, जिसे ‘अन्य कैटेगरी’ में शामिल किया गया. सरना धर्मकोड की मांग में एक-एक करोड़ की आबादी वाले गोंड और भील आदिवासियों को शामिल नहीं किया गया है क्योंकि वे अपना अलग धर्म मानते हैं.

2001 के निर्देश

साल 2001 में हुई जनगणना के लिए जो निर्देश जारी किए गए थे, उसमें हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और जैन इन छह धर्मों को 1 से 6 तक के कोड नम्बर दिए गए थे. उसमें लिखा गया था कि अन्य धर्मो के लिए धर्म का नाम लिखें, लेकिन कोई कोड नम्बर न दें. 2011 की जनगणना में भी इसी तरह की पद्धति अपनाई गई थी. आदिवासियों का कहना है कि 1951 में पहली जनगणना में आदिवासियों के लिए धर्म के कॉलम में नौवें नंबर पर ‘ट्राइब’ उपलब्ध था, जिसे बाद में खत्म कर दिया गया. अब आदिवासियों का कहना है कि इसे हटाने की वजह से आदिवासियों की गिनती अलग-अलग धर्मों में बंटती गई जिसके चलते उनके समुदाय को काफी नुकसान हुआ है.

अलग होता है पूजा स्थल

सरना में मूर्ति पूजा की बजाय प्रकृति पूजा का विधान है. अब तक आदिवासियों के बारे में यह मान्यता रही है कि आदिवासी कोई धर्म नहीं बल्कि जीवन पद्धति है. आदिवासी समुदाय की ज्यादातर आबादी हिंदू धर्म की मान्यताओं व संस्कारों के करीब है. इनके पूजा-पाठ के विधि-विधान औऱ रहन-सहन आदि की परंपराएं भी सनातन हिंदू धर्म के अनुरूप हैं. ये भी बहुत समय से हिंदुओं के आराध्य देवी-देवताओं की पूजा करते रहे हैं. लेकिन मूल रूप से ये पेड़-पौधे और पहाड़ों की पूजा करते हैं. ठीक उसी तरह जैसे कि दक्षिण अमेरिका की ‘माया’ सभ्यता के लोग सूर्य की उपासना करते थे. सरना की तरह विश्व भर में प्रकृति की पूजा करने वाले आदिवासियों की तादाद बहुत है.

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वोट बैंक की राजनीति

आदिवासियों के लिए अलग से जनगणना में धर्म कोड की मांग हाल के वर्षों में जोर-शोर से उठी है. बड़े वोट बैंक को देखते हुए झारखंड में सक्रिय सभी राजनीतिक दल इस मुद्दे को हवा देते रहे हैं. चुनावों में तमाम प्रमुख दल अपने चुनावी घोषणापत्र में सरना धर्मकोड की वकालत करते आये हैं. मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की पार्टी ने चुनाव के दौरान अपने घोषणा पत्र में सरना कोड लागू करने की बात कही थी. अब वे उसी दिशा में आगे बढ़े हैं.

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