किसान आंदोलन से किसको फायदा-किसे नुकसान, जानें क्या कहते हैं हालात

जब कृषि कानूनों के विरोध का मुद्दा चर्चा में है। यह मुद्दा 2022 में होने वाले यूपी विधानसभा चुनावों तक खिंच सकता है या राजनीतिक दल खींचना चाहेंगे। इन हालात में जाट बहुत 40 सीटों पर भाजपा को झटका लग सकता है।

Update:2021-03-01 15:29 IST
किसान आंदोलन से किसको फायदा-किसे नुकसान, जानें क्या कहते हैं हालात

रामकृष्ण वाजपेयी

नई दिल्ली: तीन माह से दिल्ली की सीमाओं और उससे पहले पंजाब और हरियाणा में केंद्रित रहे किसान आंदोलन का विस्तार अब पूर्वांचल, अवध और बुंदेलखंड में करने की तैयारी की जा रही है। टिकैत बंधुओं का पूरा जोर महापंचायतों पर है। अब असल सवाल ये है कि इससे हासिल क्या हो रहा है और किसको फायदा होगा। क्या किसानों को फायदा होगा। क्या नेताओं को फायदा होगा। या इस आंदोलन में राजनीतिक दलों को फायदा होगा लेकिन इसमें भी सबसे अधिक फायदा किस दल का होगा।

आखिर किसको होगा फायदा?

नए कृषि कानूनों पर किसानों के विरोध प्रदर्शन और सरकार के अड़ियल रुख ने एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है। इस आंदोलन में किसान जुट जाएंगे और उनकी समस्या हल नहीं हुई तो भी किसको फायदा होगा। आंदोलन किसान नेताओं की स्थिति पर भी सवाल खड़ा कर रहा है कि वह कहां हैं?

देश में सर छोटू राम, चौधरी चरण सिंह, महेंद्र सिंह टिकैत, किसान केसरी बलदेव राम मिर्धा (राजस्थान किसान सभा), सहजानंद सरस्वती (अखिल भारतीय किसान सभा) आदि के बाद अब किसी सर्वमान्य किसान नेता का अभाव है। क्या आंदोलन देश को नया किसान नेता देने जा रहा है।

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कुछ नेताओं के जीवन को मिला जीवनदान

हालांकि, मौजूदा किसान आंदोलन ने कुछ नेताओं के जीवन को जीवनदान दे दिया है जिसमें टिकैत बंधु प्रमुख हैं जो कि हाशिये पर पहुंच रहे थे। अपने राजनीतिक झुकाव की वजह से भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत ने 2014 में अमरोहा से अपना पिछला चुनाव आरएलडी के टिकट पर लड़ा था और 2007 के यूपी राज्य के चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर हार गए। 2019 में भाजपा को समर्थन देने की बात वह खुद भी मानते हैं।

(फोटो- ट्विटर)

आंदोलन से बढ़ा राकेश टिकैत का वोट बैंक

लेकिन इस आंदोलन से उनका वोट बैंक बहुत बढ़ गया है। वह पश्चिमी यूपी से निकलकर देश की मुख्य धारा के किसान नेता के रूप में स्थापित हो रहे हैं। जानकारों का मानना है कि वह राष्ट्रीय लोकदल के टिकट पर या उससे भी ज्यादा किसी और दल के साथ जुड़कर नया जीवन पा सकते हैं।

इसी तरह वी.एम. सिंह, पीलीभीत से पूर्व विधायक हैं। हालांकि, 26 जनवरी के उपद्रव के बाद उन्होंने टिकैत भाइयों से किनारा कस लिया है और आंदोलन खत्म होने से पहले ही बैकफुट पर आ गए हैं। उनकी भी राजनीतिक साख दांव पर लगी है।

तीसरा नाम कांग्रेस के दिवंगत नेता बलराम जाखड़ के पोते अजय वीर जाखड़ का है, जो अभी भी पंजाब के किसानों के साथ विश्वसनीयता बनाए हुए हैं। वह पंजाब के राज्य किसान आयोग के अध्यक्ष भी हैं और कृषि कानूनों के खिलाफ इस लड़ाई किसानों के मुखर हिमायती भी रहे हैं।

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(फोटो- ट्विटर)

पंजाब के बाहर कांग्रेस की खस्ता हालत

कांग्रेस एक ऐसी पार्टी है जिसकी पंजाब के किसानों के बीच राजनीतिक साख है, हाल ही में हुए राज्य नगर निगम के चुनाव के नतीजों से भी यह बात बहुत स्पष्ट हो जाती है। लेकिन पंजाब के बाहर कांग्रेस की हालत खस्ता है हालांकि प्रियंका गांधी वाड्रा महापंचायतों में बढ़चढ़कर हिस्सा ले रही हैं। उनके अलावा, कांग्रेस के अन्य नेता जो किसानों को मुखर समर्थन दे रहे हैं, उनमें हरियाणा में हुड्डा और राजस्थान में सचिन पायलट हैं।

इस आंदोलन में जहां हुड्डा को फायदा हुआ है, वहीं दुष्यंत चौटाला राज्य में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार का हिस्सा बनकर हार गए हैं। उनकी विश्वसनीयता पर आंच आई है।

अब रह गई राष्ट्रीय लोकदल पार्टी। इस पार्टी ने आंदोलन के दौरान पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान के जाट बेल्ट में जाटों और किसानों दोनों के साथ विश्वसनीयता हासिल की है यह चौधरी चरण सिंह की पार्टी है।

चौधरी साहब की छवि है बेहतर

खासकर इस बेल्ट में "चौधरी साहब" की छवि बेहतर है और चूंकि जाटों का नियंत्रण इन तीन राज्यों में 40 लोकसभा सीटों के रूप में है, एक और खास बात यह है कि आरएलडी का जो भी चेहरा और महापंचायतों को संबोधित करते हुए दिखाई देता है और किसानों द्वारा स्वागत किया जाता है।

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चरण सिंह के पोते और रालोद के उपाध्यक्ष जयंत चौधरी हैं। यह स्पष्ट है कि जयंत न केवल शारीरिक रूप से अपने दादा से मिलता-जुलता है, बल्कि राजनीतिक रूप से भी उनकी विरासत का सच्चा उत्तराधिकारी बनकर तेजी से उभर रहा है। वह पहले दिन से आंदोलनकारी किसानों के साथ है।

महापंचायतों में चौधरी साहब के अधिक से अधिक रोने की आवाज सुनी जाती है, यह एक व्यक्ति है जो विरासत को आगे बढ़ाने के लिए मैदान में है। दिलचस्प बात यह है कि चरण सिंह की 118वीं जयंती (23 दिसंबर) जो कि किसान दिवस के रूप में मनायी जाती है उसे किसान आंदोलनकारियों द्वारा भी मनाया गया।

(फोटो- सोशल मीडिया)

UP विधानसभा चुनावों तक खिंच सकता है यह मुद्दा

इसलिए, ऐसे समय में जब कृषि कानूनों के विरोध का मुद्दा चर्चा में है। यह मुद्दा 2022 में होने वाले यूपी विधानसभा चुनावों तक खिंच सकता है या राजनीतिक दल खींचना चाहेंगे।

भाजपा को लग सकता है तेज झटका

इन हालात में जाट बहुत 40 सीटों पर भाजपा को झटका लग सकता है। हालांकि वह इसे ठीक करने के अभियान में जुट गई है लेकिन उसे आंदोलनकारी किसानों के विरोध और बहिष्कार का सामना करना पड़ रहा है। यदि ये आंदोलन लंबा खिंचता है तो भाजपा को नुकसान होना तय है।

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