लोकसभा चुनाव: बंगाल में चुनावी हिंसा कोई नई बात नहीं

Update:2019-05-24 15:05 IST
लोकसभा चुनाव: बंगाल में चुनावी हिंसा कोई नई बात नहीं

मनीष श्रीवास्तव

लखनऊ। लोकसभा चुनाव सम्पन्न हो गया अब नई सरकार के गठन की तैयारियां चल रही हैं। जो जीते हैं वे खुशी मना रहे हैं और जो हार गये वे हार का ठीकरा फोडऩे की वजहे ढूंढ रहे हैं। बीती 10 मार्च से शुरू हुई लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया सात चरणों में अंतत: नतीजों तक पहुंच गयी, लेकिन इन चुनावों के दौरान पूरे देश का ध्यान खीचने वाली खबरें पश्चिम बंगाल से आईं। पश्चिम बंगाल में चुनावी हिंसा के नये कीर्तिमान गढ़े गए। हालात यह हुए कि देश के प्रधानमंत्री तक को वहां रैली या रोड शो करने में बाधा पहुंचायी गयी। एक प्रदेश की मुख्यमंत्री द्वारा देश के प्रधानमंत्री को अपने प्रदेश में न घुसने देने का ऐलान करने की शायद यह देश की पहली घटना होगी।

दरअसल अपने वोट बैंक को सहेजने के चक्कर में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी सारी मर्यादाओं को लांघ गयी। वामपंथियों के किले को ध्वस्त कर बंगाल फतह करने वाली ममता बनर्जी भी उसी राह पर चल पड़ी जिसके विरोध को लेकर उन्होंने यह सियासी मुकाम हासिल किया था। मौजूदा चुनाव में पश्चिम बंगाल में जिस तरह की हिंसा हुई, उससे साफ है कि लोकतंत्र की पारम्परिक लड़ाई में अभी भी काफी सुधार की जरूरत है।

हालांकि पश्चिम बंगाल में इस तरह की चुनावी हिंसा कोई नई बात नहीं है। बंगाल को हिंसा विरासत में मिली है। देश के बंटवारे के समय भी बंगाल में इस कदर हिंसा हुई थी कि इतिहासकारों ने उसे 'ग्रेट कलकत्ता किलिंगÓ का नाम दिया था। आजादी के बाद भी बंगाल में चुनाव के दौरान हिंसा एक अनिवार्य तत्व बन गया था। देश आजाद होने के बाद पूरे देश की तरह ही बंगाल में भी कांग्रेस का शासन था, लेकिन साठ के दशक में कांग्रेस को वामपंथियों से चुनौती मिलनी शुरू हो गयी थी। उस दौरान हर चुनाव में बंगाल में हिंसा होती ही रहीऔर वर्ष 1977 में पूरे देश में चल रही इंदिरा विरोधी लहर में वाममोर्चा बंगाल की सत्ता पर काबिज हो गया। एक बार सत्ता पर कब्जा करने के बाद वामपंथियों ने बंगाल में पूरे 34 वर्षों तक शासन किया। इस बीच कई चुनाव हुए और हर चुनाव में बड़े पैमाने पर हिंसा भी हुई। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वामपंथियों के 34 वर्ष के शासनकाल में करीब 28 हजार राजनीतिक हत्याएं दर्ज की गयी।

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पहले चुनाव में ममता ने सोमनाथ को हराया था

बंगाल में वामपंथियों के 34 साल के शासन को चुनौती देने वाली मौजूदा मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का सक्रिय राजनीतिक सफर वर्ष 1970 में शुरू हुआ, जब वे कांग्रेस पार्टी की कार्यकर्ता बनीं। वर्ष 1976 से वर्ष 1980 तक वे महिला कांग्रेस की महासचिव रहीं। वर्ष 1984 में ममता ने माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के वरिष्ठ नेता सोमनाथ चटर्जी को जादवपुर लोकसभा सीट से हराया, उन्हें देश की सबसे युवा सांसद बनने का गौरव प्राप्त हुआ। इसके बाद ममता बनर्जी को अखिल भारतीय युवा कांग्रेस का महासचिव बनाया गया, लेकिन वर्ष 1989 में कांग्रेस विरोधी लहर के कारण जादवपुर लोकसभा सीट पर ममता को मालिनी भट्टाचार्य के खिलाफ हार का स्वाद चखना पड़ा। हालांकि वर्ष 1991 चुनाव में उन्होंने कोलकाता दक्षिण संसदीय सीट से जीत हासिल की। दक्षिणी कलकत्ता लोकसभा सीट से सीपीएम के बिप्लव दासगुप्ता को पराजित करने के बाद वह वर्ष 1996, 1998, 1999, 2004 और 2009 में इसी सीट से लोकसभा सदस्य निर्वाचित हुईं और कांग्रेस की केंद्र सरकार में मंत्री भी रही। पहली जनवरी 1998 को उन्होंने कांग्रेस छोड़कर तृणमूल कांग्रेस का गठन किया।

राजनीतिक हिंसा ने ली तमाम लोगों की जान

अब पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा के खिलाफ एक नई जंग शुरू हो गई, जिसकी कमान ममता बनर्जी के हाथ में थी। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि लगभग हर वर्ष पश्चिम बंगाल में कुछ न कुछ राजनीतिक हत्याएं होती रही हैं। वर्ष 2001 से 2009 तक यानी आठ वर्षों में 218 लोग हिंसा के शिकार हुए। केवल वर्ष 2010 में 38 लोग मारे गए और वर्ष 2011 में जब बंगाल में वामपंथियों का किला ध्वस्त हुआ, उस समय 38 लोग मारे गए। यह सिलसिला रुका नहीं। वर्ष 2012 में 22, वर्ष 2013 में 26, वर्ष 2014 में 10 लोग राजनीतिक हिंसा में मारे गए। वर्ष 2015 और 2016 अपेक्षाकृत शांत रहे।

2014 से ममता को मिली भाजपा से चुनौती

वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में देश में मोदी सरकार बनने के बाद भाजपा ने उन राज्यों की ओर रुख किया जहां भाजपा का कोई भी आधार नहीं था। इसमें पश्चिम बंगाल भी शामिल था। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की सरकार को अचानक ही भाजपा से चुनौती मिलने लगी और एक बार फिर पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा की चिंगारी सुलगने लगी। इसका पता वर्ष 2018 के पंचायत चुनाव के दौरान हुआ। पंचायत चुनाव में मिली चुनौती को चेतावनी की तरह लेकर ममता बनर्जी ने भी अपने गढ़ को बचाने की आक्रामक कवायद शुरू कर दी। वर्ष 2019 में लोकसभा चुनाव के पहले चरण से एक बार फिर हिंसा का दौर जो शुरू हुआ तो सातवें चरण तक लगातार जारी रहा। दरअसल पश्चिम बंगाल में जिन लोगों ने वामपंथी दलों को छोड़कर तृणमूल कांग्रेस का दामन थामा था, उनमें से बड़ी संख्या अब भाजपा की झंडा थामने लगी थी।

2011 में ममता राज में रातोंरात बदल गए समर्थक

पश्चिम बंगाल की सबसे बड़ी खूबी यह है कि यहां नेता बाद में टोपियां बदलते हैं, समर्थक पहले झंडे बदल देते हैं। 2011 में जब सत्ता परिवर्तन हुआ, तो लाल झंडे लेकर चलने वाले लोगों ने जोड़ा फूल वाला झंडा उठा लिया। क्लबों और पार्टी दफ्तरों के रंग रातोंरात बदल गए। आज फिर वही स्थितियां बनने लगी हैं। साल 2011 में चाहे जितनी हिंसा हुई हो, लेकिन ममता बनर्जी का एक नारा उस समय बड़ा कारगर हुआ था, वह नारा था-बदला नोय, बदल चाई यानी 'बदला नहीं बदलाव चाहिए। एक ऐसी नेता, जो खुद राजनीतिक हिंसा का कई बार शिकार हो चुकी थीं, वह सकारात्मक नारे लगा रही थीं। लेकिन यह आशावाद कायम नहीं रह सका। सत्ता पर तृणमूल के आसीन होने के साथ ही माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने हिंसा का झंडा उठा लिया और ममता बनर्जी के शासनकाल के पहले दौर में कई जगह हिंसक घटनाएं हुईं।

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तृणमूल ने पंचायतों पर कब्जे से की शुरुआत

तृणमूल कांग्रेस ने अक्सर उन स्थानों पर कब्जा किया, जो अब तक कम्युनिस्ट पार्टी के कब्जे में रहे थे। तृणमूल कांग्रेस ने पहले पंचायतों पर ही कब्जा जमाना शुरू किया। उसे यह मालूम था कि गांव के लोग पंचायतों पर ही निर्भर करते हैं। अगर पंचायतों पर कब्जा कर लिया गया तो पूरे बंगाल पर खुद-ब-खुद कब्जा हो जाएगा। यह किसी भी जाति धर्म से परे बात थी। पश्चिम बंगाल में एक और खूबी है कि अन्य राज्यों की तरह यहां जाति और धर्म से परिचय नहीं होता। राजनीतिक पार्टियां और उनके विचार बंगाल में सबसे बड़ी पहचान हैं। आजादी के बाद से ही राजनीतिक दल और उनके आदर्श बंगाल में जमीन के मसले से जुड़कर एक भावनात्मक मसला बन जाते हैं। इसीलिए ममता बनर्जी ने मां-माटी-मानुष का नारा गढ़ा था। मोदी व अमित शाह के आक्रामक प्रचार के बाद पश्चिम बंगाल में स्थिति लगातार खतरनाक होती जा रही है। हकीकत तो यह है कि पश्चिम बंगाल में 42 सीटों के लिए सात चरणों में मतदान का मतलब ही था कि यह लड़ाई लंबी चलेगी। दोनों तरफ से न केवल जुबान चली बल्कि हथियार भी चले और फिर यह युद्ध साइबर स्पेस में भी पहुंच गया।

हिंसा के साथ होता है राजनीतिक परिवर्तन

सच तो यह है कि पश्चिम बंगाल में जब भी कोई राजनीतिक परिवर्तन होता है, खास करके सत्ता का परिवर्तन तो उस समय हिंसा होती है। अंग्रेज बंगाली कौम को शांतिप्रिय और डरपोक मानते थे। शायद यही उनकी गलती थी। जब 1857 का सिपाही विद्रोह हुआ तो कलकत्ता और बैरकपुर में सेना की बंगाल टुकड़ी ने ही बगावत को फैलाया। अंग्रेजों को भगाने में बंगाल के क्रांतिकारियों ने सबसे पहले कदम आगे बढ़ाया था, तब से अब तक जब भी सत्ता परिवर्तन हुआ है, बंगाल में हिंसा हुई है। बंगाली भद्रलोक समाज अच्छे कार्यों के लिए खूनखराबे को रूमानी दृष्टिकोण से देखता रहा है। बंगाल का मानस इसी स्वरूप में ढल गया है। क्रांति यहां रूमानी बन जाती है। यही कारण है कि हर चुनाव में बंगाल में हिंसा होती है। जब सत्ता परिवर्तन का भय शुरू होता है, तो हिंसा बढ़ जाती है। कहा जा सकता है कि बंगाल में जब किसी इलाके में पहले से स्थापित पार्टी को जोरदार चुनौती मिलती है तो वर्चस्व की लड़ाई में हिंसा का सहारा लिया जाता है। वर्तमान चुनाव के दौरान यह हिंसा कहीं ऐसा ही संकेत तो नहीं कर रही?

 

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