नई दिल्ली : ऐसी अटकलें हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की केंद्र सरकार 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव को करीब एक साल पहले ही कराने पर विचार कर रही है और इसके पीछे 2018 में होने वाले विधानसभा चुनावों के साथ ही लोकसभा चुनाव कराकर पूरे देश में एकसाथ चुनाव कराने का मानक पेश करना भर नहीं होगा।
दरअसल यह भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए बेहतर साबित होगा कि वह लोगों के बीच साढ़े तीन सालों के दौरान किए गए कामों को लेकर जनता के बीच जाएं और उनसे वोट मांगे, बजाय इसके कि वह 20 महीना और इंतजार करें और रोजगारी और किसानों की समस्या हल करने में अपनी असफलता को और उजागर होने दें।
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भाजपा के लिए यही सही होगा कि जब तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जादू बरकरार है, जैसा कि हालिया ओपिनियन पोल से साबित होता है, वह तय समय से पहले ही चुनाव करा ले।
भले भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार विपक्ष की मौजूदा कमजोर स्थिति से संतुष्ट हो, लेकिन उसे यह भी साफ दिख रहा होगा कि प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस अभी भी देश के कुछ हिस्सों में प्रभावी है। हाल ही में मध्यप्रदेश में संपन्न हुए स्थानीय निकाय चुनावों में कांग्रेस की स्थिति में जिस तरह सुधार हुआ है और पश्चिम बंगाल के निकाय चुनाव में तृणमूल कांग्रेस ने जिस तरह भारी जीत दर्ज की है, वह निश्चित तौर पर भाजपा के लिए चिंता का सबब होगा।
भाजपा यह भी जानती है कि मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और गुजरात में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में उसे सत्ता-विरोध माहौल का सामना करना होगा। ऐसे में अगर पूर्व के चुनावों के मुकाबले पार्टी की सीटों में कमी आती है तो इसका सीधा असर 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव पर भी पड़ेगा।
यहां तक कि अगर कर्नाटक में कांग्रेस और त्रिपुरा में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) जीत जाती है तो भाजपा के लिए यह मनोबल गिराने वाला साबित होगा।
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भाजपा को यह भी याद रखना होगा कि जनता अक्सर सत्तारूढ़ दल के प्रदर्शन से असंतुष्ट होकर उनके खिलाफ मतदान करती रही है, भले विपक्ष कमजोर हो। इसी साल गोवा और मणिपुर में हुए विधानसभा चुनाव में ऐसा देखने को मिला, जहां कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। यह अलग बात है कि विधायकों को अपने पाले में शामिल करने में सफल रही भाजपा ने गोवा और मणिपुर में सरकार बनाई। लेकिन इस सच्चाई को नहीं झूठलाया जा सकता कि भाजपा के प्रति असंतुष्टि की भावना है।
हाल के दिनों में इस तरह का असंतोष एक बड़े समुदाय के बीच भी देखने को मिला, जब कुछ सेवानिवृत्त नौकरशाहों और सेना के सेवानिवृत्त अधिकारियों ने प्रधानमंत्री मोदी को चिट्ठी लिखकर अपना विरोध दर्ज कराया और वैज्ञानिकों ने सत्ता समर्थकों द्वारा विघ्नकारी कार्यो को बढ़ावा दिए जाने के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया।
इसके अलावा भाजपा की मौजूदा सरकार के सामने बेरोजगारी और किसानों की समस्या के रूप में दो सबसे बड़ी चुनौतियां भी हैं। इसके अलावा देश में बढ़ रहे असहिष्णुता के माहौल को देखते हुए भी आम जनमानस भी सशंकित है।
गोरक्षा के नाम पर लोगों के साथ हो रहे अत्याचार, पुलिस द्वारा घर में घुसकर यह देखना कि गाय का मांस तो नहीं खया जा रहा, जैसा कि महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार चाहती है, टेलीविजन चैनलों के बीच अंधराष्ट्रवाद को लेकर मचा घमासान, पार्टी समर्थकों द्वारा सोशल नेटवर्क पर विरोधियों के खिलाफ अपशब्दों का इस्तेमाल और इतिहास के साथ छेड़छाड़ कुछ ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर भाजपा बैकफुट पर नजर आती है।
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इन सबका अगले एक-दो साल में क्या मिला-जुला असर होगा, कोई नहीं जान सकता, लेकिन देश की अर्थव्यवस्था की धीमी गति भी केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा के लिए गंभीर चुनौती होगी।
लोकसभा चुनाव-2014 में भाजपा जिस चमक के साथ सत्ता में आई वह ज्यादा मद्धिम तो नहीं पड़ी है, लेकिन समयपूर्व चुनाव के विकल्प पर विचार करते हुए भी भाजपा को नरेंद्र मोदी में जनता द्वारा व्यक्त किए गए विश्वास पर ही निर्भर रहना होगा।