जज्बे को सलाम: गोलियों से छलनी होने व पद्मश्री मिलने तक,ऐसा रहा जावेद का सफर

स्कूल का नाम जेबा आपा रखने पर जावेद ने कहा-कि  उनकी दादी को हमारे इलाके में लोग जेबा आपा ही कहते थे। वह हमेशा दूसरों की मदद के लिए आगे रहती थीं। आपा का मतलब बहन होता है। इसलिए अपने स्कूल का नाम जेबा आपा रखा। प

Update:2020-01-31 12:37 IST

शजम्मू आतंकियों ने गोलियों छलनी करने के मरा हुआ समझकर वहां से चले गए, लेकिन खुदा को कुछ और ही मंजूर था और वो बच गया। हां, ताउम्र के लिए दिव्यांग हो गया। वो अपनी जिंदगी से हार मान चुका था, लेकिन एक ऐसा पल आया, जिसने उनकी जिंदगी के मायने ही बदल दिए। तब उन्होंने दिव्यांगों और आतंक पीड़ितों की मदद को अपना मिशन और मकसद बना लिया।

 

इस तरह शुरू हुआ जेबा आपा इंस्टीट्यूट। इस स्कूल में आठवीं कक्षा तक के करीब 100 दिव्यांग, मूक-बधिर, नेत्रहीन, गरीब और आतंक पीड़ित बच्चों को निशुल्क शिक्षा दी जाती है। ये कहना हैं-गणतंत्र दिवस पर पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित दक्षिण कश्मीर के बिजबिहाड़ा निवासी जावेद अहमद टाक का। जिन्होंने अपने जीवन के 23 साल के संघर्ष की कहानी बयां की।

जावेद ने अपने साथ हुए हादसे का जिक्र करते हुए बताया, यह साल 1997 में 21-22 मार्च की मध्यरात्रि की बात है। तब वो 21 वर्ष का था और स्नातक कर रहा था। अपनी बीमार मौसी के घर आया था। रात को अचानक वहां बंदूकधारी (आतंकी) आए। वह मेरे मौसेरे भाई को अगवा कर ले जाने लगे। मैंने रोका तो उन्होंने गोलियां चला दीं। अगले दिन अस्पताल के बिस्तर पर मेरी आंख खुली। कुछ ही दिनों बाद मैं घर आया, लेकिन हमेशा के लिए दिव्यांग बनकर। गोलियों ने मेरी रीड़ की हड्डी, जिगर, किडनी, पित्ताशय, सबकुछ जख्मी कर दिया था। तीन साल तक बिस्तर पर रहा। तनाव का शिकार हो गया।

 

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ऐसे जगी जीने की ललक

एक दिन बिस्तर पर लेटा हुआ अपनी जिंदगी के बारे में सोच रहा था। तभी घर के बाहर मैंने कुछ बच्चों का शोर सुना। मैंने अपनी मां से कहा कि वह बच्चों को बुलाकर लाए। मैंने उन्हें पढ़ाना शुरू किया। कुछ ही दिनों में मेरा कमरा एक छोटा सा स्कूल बन गया। इससे मेरे अंदर जीने को लेकर ललक और विश्वास पैदा हुआ। तनाव भी कम हुआ। फिर मैंने आगे पढ़ने का फैसला किया। इग्नू से मानवाधिकार और कंप्यूटिंग में दो डिस्टेंस एजूकेशन सर्टिफिकेट कोर्स भी किए। खुद पीड़ित होने के कारण मुङो दिव्यांगों और आतंक पीड़ितों के दर्द का अहसास हुआ। तब मैंने कुछ और आगे बढ़ने का फैसला किया।

जावेद ने बताया, मैंने कश्मीर विश्वविद्यालय में समाज कल्याण विभाग में मास्टर्स किया। इस दौरान मैंने वहां सात इमारतों में दिव्यांगों के लिए पर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्था कराई। साल 2006 में दिव्यांगों के पुनर्वास के लिए काम शुरू किया। वर्ष 2007 में जेबा आपा इंस्टीट्यूट शुरू किया। इसमें बिजबिहाड़ा और उसके साथ सटे इलाकों के बच्चों को निशुल्क शिक्षा दी गई। स्कूल में नेत्रहीन बच्चों के लिए ब्रेल में पढ़ाई की सुविधा है। हम रोजगार कमाने के लिए वोकेशनल कोर्स भी कराते हैं। मानसिक रूप से बीमार बच्चों के लिए भी यहां सुविधाएं हैं।

 

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स्कूल का नाम जेबा आपा रखने पर जावेद ने कहा-कि उनकी दादी को हमारे इलाके में लोग जेबा आपा ही कहते थे। वह हमेशा दूसरों की मदद के लिए आगे रहती थीं। आपा का मतलब बहन होता है। इसलिए अपने स्कूल का नाम जेबा आपा रखा। पद्मश्री से सम्मानित होने पर टाक ने कहा कि यह सम्मान उन लोगों का है जो दिव्यांग होने के बावजूद कुछ करना चाहते हैं।

जावेद अहमद टाक ने उच्च न्यायालय में तीन जनहित याचिकाएं दायर की और सरकार को दिव्यांगों के लिए आरक्षण की सुविधा को लागू करना पड़ा। वर्ष 2003 में उन्होंने हेल्पलाइन ह्यूमेनिटी वेल्फेयर आर्गेनाइजेशन शुरू किया, जो दिव्यांगों और आतंक पीड़ितों की मदद करता है। जावेद को सरकार की तरफ से करीब 75 हजार मुआवजा राशि मिली थी, वह भी इन बच्चों की शिक्षा के लिए खर्च कर दी। जावेद अहमद टाक ने उच्च न्यायालय में तीन जनहित याचिकाएं दायर की और सरकार को दिव्यांगों के लिए आरक्षण की सुविधा को लागू करना है।

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