चिंताग्रस्‍त हो तो खुद को पुकारो, फिर कहो मैं मौजूद हूँ

तुम उसका हल ढूंढते हो; तुम उसके उपाय ढूंढते हो। लेकिन ऐसा करके तुम और भी चिंताग्रस्‍त हो जाते हो, तुम उपद्रव को बढ़ा लेते हो। क्‍योंकि विचार से चिंता का समाधान नहीं हो सकता। विचार के द्वारा उसका विसर्जन नहीं हो सकता।

Update:2023-03-18 23:58 IST

इसके लिये क्‍या करना होगा? जब साधारणत: तुम्‍हें चिंता घेरती है। तब तुम क्‍या करते हो? सामान्‍यत: क्‍या करते हो? तुम उसका हल ढूंढते हो; तुम उसके उपाय ढूंढते हो। लेकिन ऐसा करके तुम और भी चिंताग्रस्‍त हो जाते हो, तुम उपद्रव को बढ़ा लेते हो। क्‍योंकि विचार से चिंता का समाधान नहीं हो सकता। विचार के द्वारा उसका विसर्जन नहीं हो सकता। कारण यह है कि विचार खुद एक तरह कि चिंता है। विचार करके दलदल और भी धँसते जाओगे। यह विधि कहती है कि चिंता के साथ कुछ मत करो;सिर्फ सजग होओ। बस सचेत रहो।

मैं तुम्‍हें एक दूसरे झेन सदगुरू बोकोजू के संबंध मे एक पुरानी कहानी सुनाता हूं। वह एक गुफा में अकेला रहता था। बिलकुल अकेला लेकिन दिन में या कभी-कभी रात में भी, वह जोरों से कहता था, ‘’बोकोजू।‘’ यह उसका अपना नाम था। फिर वह खुद कहता, ‘’हां महोदय, मैं मौजूद हूं।‘’ वहां कोई दूसरा नहीं होता था। उसके शिष्‍य उससे पूछते थे, ‘’क्‍यों आप अपना ही नाम पुकारते हो। फिर खुद कहते हो, हां मौजूद हूं?
बोकोजू ने कहा, जब भी मैं विचार में डूबने लगता है। तो मुझे सजग होना पड़ता है। इसीलिए मैं अपना नाम पुकारता है। बोकोजू। जिस क्षण मैं बोकोजू कहता हूं,और कहता हूं कि हां महाशय, मैं मौजूद हूं, उसी क्षण विचार,चिंता विलीन हो जाती है।

फिर अपने अंतिम दिनों में, आखरी दो-तीन वर्षों में उसने कभी अपना नाम नहीं पुकारा। और न ही यह कहा कि हां, मैं मौजूद हूं। तो शिष्‍यों ने पूछा, गुरूदेव, अब आप ऐसा क्‍यों करते है। बोकोजू ने कहा: ‘’ अब बोकोजू सदा मौजूद रहता है। वह सदा ही मौजूद है। इसलिए पुकारने की जरूरत रही। पहले मैं खो जाया करता था। चिंता मुझे दबा लेती थी। आच्‍छादित कर लेती थी। बोकोजू वहां नहीं होता था। तो मुझे उसे स्‍मरण करना पड़ता था। स्‍मरण करते ही चिंता विदा हो जाती है।

इसे प्रयोग करो। बहुत सुंदर विधि है। अपने नाम का ही प्रयोग करो। जब भी तुम्‍हें गहन चिंता पकड़े तो अपना ही नाम पुकारों बोकोजू या और कुछ, लेकिन अपना ही नाम हो और फिर खुद ही कहो कि हां महोदय, मैं मौजूद हूं। और तब देखो कि क्‍या फर्क है। चिंता नही रहेगी। कम से कम एक क्षण के लिए तुम्‍हें बादलों के पार की एक झलक मिलेगी। और फिर वह झलक गहराई जा सकती है। तुम एक बार जान गए कि सजग होने पर चिंता नहीं रहती। विलीन हो जाती है। तो तुम स्‍वयं के संबंध में, अपनी आंतरिक व्‍यवस्‍था के संबंध में गहन बोध को उपलब्‍ध हो गए।' हर विचार हमारी आत्म सत्ता पर निर्भर है। ऐसी स्थिति मे हम अपने हृदय मे होते हैं। जब भी कोई विचार उठे चाहे वह कितना भी सुखद या दुखद हो,हमे पूछना चाहिए ये विचार किस पर निर्भर है? उत्तर है-मुझ पर।

फिर एक और प्रश्न-मै कहां हूँ?

अगर हम हृदय मे हैं तो फिर ठीक है। लेकिन प्रश्न पूछें तो हम खुद को हृदय मे ही पाते हैं जो हमारा आधार स्थल या आश्रय स्थान है। यही आत्मा का आवास है,हमारा स्वरुप है। जब हम खुद को आवाज लगाते हैं और कहते हैं -हां। मै मौजूद हूँ। तब यह आत्मा अर्थात अस्तित्व ही बोलता है या कहें हम आत्मा के रुप मे अस्तित्व को अनुभव करते हुए बोलते हैं। या कहें ईश्वर का अंश बोलता है-हां। मै हूँ। यह सत्ता का साथ मिल गया अब हम अकेले नहीं। यदि हम मन के "मैं"के रुप मे हैं तो हम सदैव अकेले हैं। ऐसे में साथ के अभाव मे चिंता का होना स्वाभाविक है। दरअसल जब खुद को आवाज लगाकर हम कहते है, हां मै हूँ तब आंतरिक विभाजन की जगह अखंडता आ जाती है।

इस पूर्णता की स्थिति मे स्वाभाविक निश्चिंतता अनुभव होती है। अतः यह प्रयोग करने जैसा है। इससे आत्मशक्ति का पता चलता है। बाजार मे चलते.हुए किसी भी व्यक्ति को देखें वह कहां है मन मे या हृदय मे? तो उसे मन मे ही पायेंगे। मन और हृदय के बीच मे चित्त है। यह किससे जुडा है मन से या हृदय से?इसी पर जीव के बंधन या मुक्ति का आधार है। संसार शरीरों की भीड से भरा लगता है। पर देहसृष्टि मिथ्या है। संसार जीवों की भीड से भरा है। जीव वस्त्र की तरह शरीर बदलते रहते हैं- वासांसि जीर्णानि, स्वयं वेही बने रहते हैं। वे ही जीव वापस एक दूसरे से मिलते हैं।

देहदृष्टि उन्हें माया से बांधती है,जीवदृष्टि परमात्मा से क्योंकि सब उन्हीं के अंश हैं। जीवदृष्टि से सबकी सेवा की जाय,सबको सहयोग किया जाय तो सब हृदय से अपने आप जुड जाते हैं, देहदृष्टि से देखकर विरुद्ध भाव रखा जाय तो सब मन,बुद्धि से जुडते हैं। मन मे,मन को तो सब जी ही रहे हैं किंतु उसमे भला नहीं है। उससे जीवन एक कहानी बन जाता है। हर शरीर के साथ कोई कहानी बनती है। उस कहानी को ही सच मान लिया जाता है। पर कहानी सच नहीं है क्योंकि शरीर सच नहीं है,जीव जरुर सच है। जब भी कहानी मे कोई समस्या आये वह स्वयं को पुकारे और जवाब दे हां मैं मौजूद हूँ, मै साथ हूँ।(वस्तुतः स्व रुप हूँ।)

तब अपने मानसिक रुप के साथ अपना हार्दिक रुप भी होता है, जिससे असहाय और बेसहारा होने की समस्या समाप्त हो जाती है। हम पूर्णता अनुभव करते हुए सभी कार्य करते हैं, अपने आपसे पलायन नहीं करते। अपने आपसे पलायन करने वाला अपने आपको साथ महसूस नहीं करता। स्वयं ईश्वर का अंश है यह सदैव स्मरण रहे यही सही है।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातन:।
- गीता।
सभी लोग अपने आपके साथ रहें या स्वयं को अपने साथ रहने दें इसमे सबका कल्याण है। अपने आपका अपने साथ रहना,ईश्वर का अपने साथ रहना है। ईश्वर पूर्ण है। इसी अर्थ मे है-तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
देहसृष्टि मिथ्या है,जीवसृष्टि सच है। और भी गहरे जायं तो परम सत्ता ही सच है,वही सब कुछ है।

(एन.के. तिवारी के फेसबुक वाल से साभार)

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