भारत से हारा है चीन: उसे याद रखना चाहिए यह पुराना सबक

चीन भारत के साथ व्यापार को कितना महत्व देता है, उसे नाथू ला के नवीनतम घटना से भी समझा जा सकता है। डोकलाम मुद्दे पर भारत पर दबाव डालने के लिए चीन ने नाथू ला दर्रे से मानसरोवर यात्रा रोकी। लेकिन व्यापार बिल्कुल नहीं। इस तरह अतीत की सामरिक एवं आर्थिक व्याख्याएं  बताती हैं कि डोकलाम से चीन ही पीछे हटेगा।

Update:2020-05-27 19:01 IST

योगेश मिश्र

भारत चीन सीमा पर दोनों देशों के फ़ौजों की तैनाती, सैनिकों व अफ़सरों की आवाजाही यह बता रही है कि कहीं यह युद्ध की तैयारी तो नहीं है। चीनी नेता माओत्से तुंग ने ग्रेट लीप फ़ारवर्ड आंदोलन की असफलता के बाद सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी पर अपना फिर से नियंत्रण करने के लिए भारत के ख़िलाफ़ 1962 का युद्ध छेड़ा था। आज चीनी राष्ट्रपति कोविड-19 के मामले में दुनिया के एक बहुत बड़े हिस्से के सामने खलनायक बने हुए हैं। उन्हें कोविड का ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है।

अगर ये चाल है तो फिर सोचे चीन

कोविड-19 के चलते हुई वैश्विक त्रासदी का ठीकरा चीन पर फोड़ा जा रहा है। ऐसे में यह सवाल उठना लाज़मी है कि कहीं माओत्से तुंग की तरह सीमा पर सेना का जमावड़ा शी चिनफिंग की कोई चाल तो नहीं है। क्योंकि यह सबको याद होगा कि चीन ने 1962 के युद्ध में हमें पराजित कर दिया था।

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लेकिन हम यह भूल चुके हैं कि चीन को भी भारत ने 1962 के बाद दो बार युद्ध में पराजित किया है। यही नहीं, शी को यह नहीं भूलना चाहिए कि 1962 और 2020 के भारत के नेतृत्व में बड़ा अंतर है।

युद्ध के लिए तैयार

चीन के राष्ट्रपति शी चीनफिंग ने सेना को युद्ध के लिए तैयार रहने को कहा है। चीन में सेना को पीपुल्स लिबरेशन आर्मी कहते हैं। चीनी राष्ट्रपति का यह बयान तब आया है जब बीते 5 मई से वास्तविक नियंत्रण रेखा से लगे पैंगोग शो झील, गल्वान घाटी और देम चौक में चीनी सैनिकों ने सौ तंबू लगा रखे हैं। बंकर बनाने का सामान इकट्ठा कर रखा है।

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2017 में डोकलाम में भारत चीन सेना के बीच 73 दिन तक गतिरोध रहा। उसके बाद आज यह गंभीर स्थिति बनी है। भारत चीन के बीच 3488 किलोमीटर लंबी वास्तविक नियंत्रण रेखा है।

वो राजनीतिक पराजय था

चीनी सरकार के मुखपत्र 'ग्लोबल टाइम्स' द्वारा भारत को कभी युद्ध की धमकी दी जा रही है तो कभी 1962 जैसा परिणाम भुगतने की चेतावनी दी जा रही है। जहां तक 1962 की हार की बात है तो यह एक तरह की राजनीतिक पराजय थी, न कि सैन्य पराजय।

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भारत पंचशील के स्वर्णिम स्वप्न में जब हिंदी-चीनी भाई-भाई के नारे में खोया हुआ था, तभी 1962 में चीन ने भारत पर हमला कर दिया। यह विश्वासघात था। परंतु चीन को 1962 के आगे के इतिहास को भी याद रखना चाहिए।

1967 भी याद रखे चीन

चीन को 1967 भी याद रखना चाहिए। 1967 में हमारे जांबाज सैनिकों ने चीन को जो सबक सिखाया था, उसे वह कभी भुला नहीं पाएगा। हमारे सैनिकों ने चीनी दुस्साहस का मुंहतोड़ जवाब देते हुए सैकड़ों चीनी सैनिकों को न सिर्फ मार गिराया था, बल्कि भारी संख्या में उनके बंकरों को ध्वस्त भी कर दिया था। नाथू ला दर्रे में हुई उस भिड़ंत की कहानी हमारे सैनिकों की जांबाजी की मिसाल है।

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1 अक्टूबर 1967 को चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने चाओ ला इलाके में फिर से भारत के सब्र की परीक्षा लेने का दुस्साहस किया, पर वहां मुस्तैद गोरखा एवं जैक राइफल्स की भारतीय बटालियनों ने इस दुस्साहस को नाकाम कर चीन को फिर से सबक सिखाया।

67 में हुआ था कुछ ऐसा

इस बार चीन ने सितंबर के संघर्ष विराम को तोड़ते हुए हमला किया था। दरअसल, सर्दी शुरू होते ही भारतीय फौज करीब 13 हजार फुट ऊंचे चो ला पास पर बनी अपनी चौकियों को खाली कर देती थी। गर्मियों में जाकर सेना दोबारा तैनात हो जाती थी।

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चीन ने 1 अक्टूबर का हमला यह सोचकर किया कि चौकियां खाली होंगी, लेकिन चीन की मंशा को देखते हुए हमारी सेना ने सर्दी में भी उन चौकियों को खाली नहीं किया था।

भारतीय सेना ने दिखाया था पराक्रम

इसके बाद आमने सामने की सीधी लड़ाई शुरु हो गई । चीन को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए गोले दागने शुरू कर दिए। इस लड़ाई का नेतृत्व करने वाले थे 17 वीं माउंटेन डिवीजन के मेजर जनरल सागत सिंह।

लड़ाई के दौरान ही नाथू ला और चो ला दर्रे की सीमा पर बाड़ लगाने का काम किया। ताकि चीन फिर इस इलाके में घुसपैठ की हिमाकत नहीं कर सके।

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बताया जाता है कि लड़ाई के दौरान जब भारतीय सेना के जवानों की गोलियां खत्म हो गईं तो बहादुर अफसरों एवं जवानों ने अपनी खुखरी से कई चीनी अफसरों एवं जवानों को मौत के घाट उतार दिया था.

ये सबक रोकते हैं चीन को

1967 के ये दोनों सबक चीन को आज तक सीमा पर गोली बरसाने से रोकते हैं। तब से आज तक सीमा पर एक भी गोली नहीं चली है, भले ही दोनों देशों की फौजें एक दूसरे की आंखों में आंख डालकर सीमा पर गश्त लगाने में लगी रहती हैं।

86 में चीन को फिर लगा झटका

1967 के 20 वर्ष बाद भारत से चीन को फिर से गहरा झटका लगा। जिसकी बुनियाद 1986 में चीन की ओर से रखी गयी। इस बार फिर टकराव पर चीन ने कहा कि भारत को इतिहास का सबक नहीं भूलना चाहिए, पर लगता है कि चीन भी कुछ भूल गया है।

1986-87 में भारतीय सेना ने शक्ति प्रदर्शन में चीनी सेना यानि पीपुल्स लिबरेशन आर्मी को बुरी तरह से हिला दिया था।

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इस संघर्ष की शुरुआत तवांग के उत्तर में समदोरांग चू रीजन में 1986 में हुई थी। जिसके बाद उस समय के सेना प्रमुख जनरल कृष्णास्वामी सुंदरजी के नेतृत्व में ऑपरेशन फाल्कन हुआ था।

नामका चू से हुई शुरूआत

1987 की झड़प की शुरुआत नामका चू से हुई थी। भारतीय फौज नामका चू के दक्षिण में ठहरी थीं। लेकिन एक आईबी टीम समदोरांग चू में पहुंच गई। यह जगह नयामजंग चू के दूसरे किनारे पर है। समदोरंग चू और नामका चू दोनों नाले इस उत्तर से दक्षिण को बहने वाली नयामजंग चू नदी में गिरते है।

1985 में भारतीय फौज पूरी गर्मी में यहां डटी रही, लेकिन 1986 की गर्मियों में पहुंची तो यहां चीनी फौजें मौजूद थीं। समदोरांग चू के भारतीय इलाके में चीन अपने तंबू गाड़ चुका था।.भारत ने पूरी कोशिश की कि चीन को अपने सीमा में लौट जाने के लिए समझाया जा सके, लेकिन अड़ियल चीन मानने को तैयार नहीं था।

ऑपरेशन फाल्कन

2017 की तरह 1987 में भी चीन और भारत की सेना आंखों में आंख डाले सामने खड़ी थीं, लेकिन इस बार भी चीन को जवाब मिलने वाला था। चीन ने पूर्व में लड़ाई की तैयारी पूरी कर ली थी।

भारतीय सेना ने ऑपरेशन फाल्कन तैयार किया, जिसका उद्देश्य सेना को तेजी से सरहद पर पहुंचाना था। तवांग से आगे कोई सड़क नहीं थी, इसलिए जनरल सुंदर जी ने जेमीथांग नाम की जगह पर एक ब्रिगेड को एयरलैंड करने के लिए इंडियन एयरफोर्स को रूस से मिले हैवी लिफ्ट MI-26 हेलीकॉप्टर का इस्तेमाल करने का फैसला किया।

जनरल सुंदरजी व्यूह रचना

भारतीय सेना ने हाथुंग ला पहाड़ी पर पोजीशन संभाली,जहां से समदोई चू के साथ ही तीन और पहाड़ी इलाकों पर नजर रखी जा सकती थी। 1962 में चीन ने ऊंची जगह पर पोजीशन लिया था, परंतु इस बार भारत की बारी थी। जनरल सुंदर जी की रणनीति यही पर खत्म नहीं हुई थी।

ऑपरेशन फाल्कन के द्वारा लद्दाख के डेमचॉक और उत्तरी सिक्किम में T -72 टैंक भी उतारे गए। अचंभित चीनियों को विश्वास नहीं हो रहा था। भारत ने 7 लाख सैनिकों की तैनाती की थी।

चीनियों ने घुटने टेक दिये

फलत: लद्दाख से लेकर सिक्किम तक चीनियों ने घुटने टेक दिए। इस ऑपरेशन फाल्कन ने चीन को उसकी औकात दिखा दी। भारत ने शीघ्र ही इस मौके का लाभ उठाकर अरुणाचल प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया।

वियतनाम युद्ध के बाद चीनी सेनाओं ने कोई भी लड़ाई नहीं लड़ी है, जबकि भारतीय सेना सदैव पाकिस्तानी सीमा पर अघोषित युद्ध में संघर्षरत है। हिमालयी सरहदों में चीन की इतनी काबिलियत नहीं है कि वह भारत का मुकाबला कर सके।

तुलनात्मक तौर पर भारत चीन के समक्ष भले ही कमजोर लग सकता है, परंतु वास्तविक स्थिति ऐसी नहीं है। 1967 के दोनों युद्धों से स्पष्ट है कि अपनी विशिष्ट एवं अचूक रणनीति के द्वारा भारत न्यूनतम संसाधनों के बीच भी चीन को हराने में सक्षम है।

डोकलाम में भारत बेहतर

डोकलाम क्षेत्र में भारत की भौगोलिक स्थिति हो या हथियार दोनों ही भारत के पास चीन से बेहतर हैं। भारतीय सुखोई हो या ब्रह्मोस, इसका चीन के पास कोई काट नहीं है।

चीनी सुखोई 30 एमकेएम एक साथ केवल 2 निशाने साध सकता है, जबकि भारतीय सुखोई एक साथ 30 निशाने साध सकता है।

अभी अमेरिकी विशेषज्ञों के अनुसार भारत ऐसे मिसाइल सिस्टम के विकास में लगा हुआ है, जिससे दक्षिण भारत से भी चीन पर परमाणु हमला किया जा सकता है।

अभी उत्तरी भारत से मिसाइल से न केवल चीन अपितु यूरोप के कई हिस्सों पर भी हमला करने में सक्षम है।चीन भारतीय मिसाइलों के परमाणु हमलों के पूरी तरह रेंज में है।

हटना तो चीन को ही है

विश्व अभी जिस वैश्विक मंदी से गुजर रहा है, चीन भारत के सशक्त बाजार पर भी निर्भर है। भारत-चीन व्यापार संतुलन भी चीन की ओर ही झुका हुआ है। ऐसे में संबंधों में और कटुता होने से चीन को इस व्यापार से भी हाथ धोना पड़ेगा।

चीन भारत के साथ व्यापार को कितना महत्व देता है, उसे नाथू ला के नवीनतम घटना से भी समझा जा सकता है। डोकलाम मुद्दे पर भारत पर दबाव डालने के लिए चीन ने नाथू ला दर्रे से मानसरोवर यात्रा रोकी। लेकिन व्यापार बिल्कुल नहीं। इस तरह अतीत की सामरिक एवं आर्थिक व्याख्याएं बताती हैं कि डोकलाम से चीन ही पीछे हटेगा।

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