बिहार के लिए एक दूसरे एम्स का मतलब

दरभंगा में एम्स की स्थापना को मोदी कैबिनेट से मंजूरी सुखद समाचार है। माना जा रहा है कि दरभंगा एम्स 48 महीने की अवधि के भीतर ही अपना काम भी शुरू कर देगा।

Update:2020-09-21 13:36 IST

आप किसी भी दिन राजधानी के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) का अचानक चक्कर लगा लें। आपको 50 फीसद रोगी बिहार से ही मिलेंगे। यह आंकाड़ा बड़ा भी हो सकता है। ये दीन-हीन से गरीब लोग मारे-मारे इधर से उधर घूम रहे होते हैं। कहना न होगा कि बिहार में लचर स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण ही बिहार के लोग दिल्ली एम्स का रूख करते हैं। इस आलोक में दरभंगा में एम्स की स्थापना को मोदी कैबिनेट से मिली मंजूरी सुखद समाचार है। माना जा रहा है कि दरभंगा एम्स 48 महीने की अवधि के भीतर ही अपना काम भी शुरू कर देगा।

मोदी सरकार ने दी दरभंगा एम्स को मंजूरी

पिछले सप्ताह यह खबर आई कि केंद्रीय मंत्रिमंडल ने बिहार के दरभंगा में एक नए (एम्स) की स्थापना के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई केंद्रीय कैबिनेट की बैठक में इस प्रस्ताव को मंजूरी दी गई है। प्रधानमंत्री स्वास्थ्य सुरक्षा योजना (पीएमएसएसवाई) के तहत इस संस्थान की स्थापना की जाएगी। इसके निर्माण पर कुल 1,264 करोड़ रुपये की लागत आने का अनुमान है । यह स्नातक (एमबीबीएस) की 100 सीटों, बीएससी (नर्सिंग) की 60 सीटों, 15 से 20 सुपर स्पेशियलिटी डिपार्टमेंट और 750 बेड का अत्याधुनिक हॉस्पिटल होगा।

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बिहार के लिए एक दूसरे एम्स का मतलब (फाइल फोटो)

यह देश का 22वां और बिहार का दूसरा एम्स होगा। बेशक दरभंगा में एम्स के निर्माण हो जाने के बाद उत्तर बिहार के बेतिया से लेकर कोसी और सीमांचल के सहरसा, सुपौल और पूर्णिया तथा नेपाल की तराई तक के लोग इलाज के लिए अब दिल्ली या पटना की तरफ नहीं जाएंगे। नए एम्स के निर्माण हो जाने के बाद प्रतिदिन लगभग 2,000 ओपीडी मरीजों और हर माह लगभग 1,000 आईपीडी मरीजों का इलाज किया जाएगा। यह तो मानना ही होगा कि एम्स के डाक्टर, नर्से और दूसरे स्टाफ एक विशिष्ट कार्य संस्कृति के प्रशिक्षण के कारण मरीज को ठीक करने में अपनी जान लगा देते हैं । यहां पर शुरू से ही काम के प्रति ईमानदारी और निष्ठा तथा सेवा भाव की परंपरार रही है।

इनका विजन था एम्स

भारत की पहली स्वास्थ्य मंत्री राजकुमारी अमृत कौर (फाइल फोटो)

दरअसल एम्स भारत की पहली स्वास्थ्य मंत्री राजकुमारी अमृत कौर के ही दूरदृष्टि (विजन) का परिणाम है। जिस निष्ठा और निस्वार्थ सेवा भाव से एम्स के डाक्टर रोगियों को देखते हैं, उससे यह तुरंत समझ आ जाता है कि यह सामान्य अस्पताल तो कत्तई नहीं है। पर राजधानी में दिल्ली या एनसीआर के रोगी तो कम ही दिखाई देते हैं। वे अपने को समृद्ध जताने के लिए प्राइवेट अस्पतालों में जाते हैं और फिर पछताते हैं। बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के रोगियों को दिल्ली एम्स पर खासा यकीन है।

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इधर बिहार के पटना, दरभंगा, किश्नगंज, अररिया, मुजफ्फरपुर वगैरह के तमाम रोगी इधर से स्वस्थ होकर ही घर वापस जाते हैं। एम्स में काफ़ी हद तक आपको समाजवाद के दर्शन भी होते हैं । यहां तो बड़े से बड़े इन्सान को लाईन में ही आना होता है। एम्स की स्थापना के लगभग एक दशक के बाद 1967 में डॉ राजेन्द्र प्रसाद नेत्र विज्ञान केंद्र स्थापित हुआ। जैसे कि इसके नाम से स्पष्ट है कि इसमें नेत्र से जुड़े असाध्य रोगों का इलाज होता है। चूंकि मामला आंखों का है, इसलिए इसका ध्येय वाक्य है 'तमसो मा ज्योतिर्गमय'।

एम्स के एक दशक बाद स्थापित हुआ डॉ राजेन्द्र प्रसाद नेत्र विज्ञान केंद्र

डॉ राजेन्द्र प्रसाद नेत्र विज्ञान केंद्र (फाइल फोटो)

 

इसके पहले निदेशक प्रो. (डॉ.) एल.पी अग्रवाल थे। वे अमेरिका के बोस्टन रेटिना सेंटर से उच्च शिक्षा प्राप्त करके आए थे। उन्होंने इस केंद्र से अनेकों कुशल नेत्र चिकित्सकों को जोड़ा। राजेन्द्र प्रसाद नेत्र विज्ञान केंद्र के रिस्पेशन में डॉ राजेन्द्र प्रसाद की एक बिना टोपी की अर्धप्रतिमा रखी हुई है। आपने राजेन्द्र बाबू को इस जगह के अलावे शायद ही कभी बिना टोपी में देखा होगा। इस केंद्र में प्रोफेसर प्रदीप वेंकटेश, प्रोफेसर तरुण दादा, प्रोफेसर विनोद अग्रवाल जैसे बेहतरीन आंखों के डाक्टर हैं।

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इन्हें आप संसार के सबसे कुशल नेत्र चिकित्सकों की श्रेणी में रख सकते हैं। विश्व विख्यात लेखक और मोटिवेशन गुरु डॉ दीपक चोपड़ा, शिकागो यूनिवर्सिटी के पैथोलिजी विभाग के प्रोफेसर डॉ विनय कुमार, एम्स के मौजूदा डायरेक्टर रणदीप गुलेरिया, ईएनटी विशेषज्ञ डॉ रमेश डेका, डॉ पी.वेणुगोपाल, डॉ सिद्दार्थ तानचुंग जैसे सैकड़ों डाक्टरों ने यहां ही शिक्षा ग्रहण की और फिर यहाँ ही जीवन भर सेवाएं दीं। माफ करें कि जो ज्ञानी लोग बिहार में एक और एम्स के खोले जाने में भी राजनीति देख रहे है, उन्हें शर्म आनी चाहिए।

एम्स में शुरू हुआ कोरोना वैक्सीन का ट्रायल

कोरोना वैक्सीन का ट्रायल AIIMS (फाइल फोटो)

इस बीच, एक सुखद खबर यह भी है कि एम्स में कोरोना से लड़ने में कारगर टीके का परीक्षण चालू हो चुका है। एम्स में कुल 100 वॉलंटिअर्स पर वैक्सीन का फेज 1 ट्रायल पूरा होगा। देश में बनी पहली कोरोना वायरस वैक्सी्न का नाम कोवाक्सिन रखा गया है। ट्रायल की जिम्मेदारी डॉ संजय राय पर है। कोवाक्सिन को हैदराबाद की भारत बायोटेक ने इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) और नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वॉयरलॉजी (एनआईवी) के साथ मिलकर बनाया है।

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वैक्सीन का कोडनेम बीबीवी152 है। एम्स दिल्ली देश की उन 12 जगहों में से एक है जहां ये ट्रायल हो रहा है। यहां का सैंपल साइज पूरे देश में सबसे बड़ा है, इसलिए इसके नतीजे पूरी रिसर्च की दिशा तय करेंगे। एम्स पटना और रोहतक पीजीआई में वैक्सीन का ट्रायल तो पहले ही चल रहा है। गोवा में भी ट्रायल प्रक्रिया शुरू हो चुकी है।

देश के पुरातन ज्ञान का केन्द्र बिहार

पुरातन ज्ञान का केन्द्र बिहार (फाइल फोटो)

अब थोड़ी हटकर बात करें। बिहार की जिसे आप देश के पुरातन ज्ञान का केन्द्र या राजधानी मान सकते हैं। महावीर, बुद्ध और चार प्रथम शंकराचार्यों में एक (मंडन मिश्र ) और भारत के प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद तक को बिहार ने ही विश्व को दिया। गांधी तक को भी अखिल भारतीय स्तर पर पहचान चंपारण आंदोलन के बाद बिहार ने ही दी। ज्ञान प्राप्त करने की प्यास हरेक बिहारी में सदैव बनी ही रहती है।

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यहां तक तो सब ठीक है। अब बिहार को खेलों में भी आगे आना होगा। बिहार में खेलों का इंफ्रास्ट्रक्चर सही ढंग से विकसित करना होगा। यह दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि पिछले रियो ओलंपिक खेलों में भाग लेने गई भारतीय टोली में एक भी खिलाड़ी बिहार से नहीं था। इस तरफ भी सभी राजनीतिक दलों को सोचना होगा ताकि उन्हें बिहार में खेलों का चौतरफा विकास हो सके।

खेल के क्षेत्र में पिछड़ा बिहार

खेल में पिछड़ा बिहार (फाइल फोटो)

क्या सिर्फ ज्ञान अर्जित करना ही पर्याप्त है? बात राष्ट्रीय खेल हॉकी से शुरू करना चाहेंगे। समूचे बिहार में एक भी एस्ट्रो टर्फ से सुसज्जित हॉकी का मैदान तक नहीं है। इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) सीजन तो अब शुरू हो ही चुका है। सारा देश अब क्रिकेटमय हो चूका है।

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इसमें सिर्फ गिनती के बिहारी खिलाड़ी ही खेल रहे है। अफसोस होता है कि बिहार जैसा ज्ञान से सराबोर सूबा विकास के रास्ते पर नहीं चल सका। इतिहास तो भी स्वीकार करना पड़ेगा कि बिहार को प्रगति के मार्ग से भटकाने में लालू यादव सरीखे नेताओं ने अपना पूरा योगदान दिया।

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