भारत-मित्र जीता, चीन वाला हारा

पड़ोसी कम्युनिस्ट चीन की प्राणपण से रची साजिशों के बावजूद लोकतान्त्रिक प्रगतिशील प्रत्याशी 63-वर्षीया कुमारी साईं इंग-विन ताईवान द्वीप राष्ट्र की राष्ट्रपति गत सप्ताह फिर चुन ली गयीं। उनके चीन-समर्थक प्रतिद्वंदी श्री हान कुयोयू बुरी तरह हारे।

Update:2020-01-15 19:02 IST

के. विक्रम राव

पड़ोसी कम्युनिस्ट चीन की प्राणपण से रची साजिशों के बावजूद लोकतान्त्रिक प्रगतिशील प्रत्याशी 63-वर्षीया कुमारी साईं इंग-विन ताईवान द्वीप राष्ट्र की राष्ट्रपति गत सप्ताह फिर चुन ली गयीं। उनके चीन-समर्थक प्रतिद्वंदी श्री हान कुयोयू बुरी तरह हारे। भारत पर इस चुनाव का गहरा प्रभाव पड़ेगा। ताईवान भी तिब्बत की भांति वर्षों से विस्तारवादी चीन का शिकार रहा है। वह एशिया में चीन पर अंकुश है। वर्ना अबतक एक तिहाई महाद्वीप लाल झंडे तले आ जाता। ताइवान की गति भी तिब्बत जैसी हो जाती।

आज भारत तंद्रा से जग गया है। सात दशक पूर्व उसकी एक ऊंघ के अंजाम में लाल चीन ने बौद्ध तिब्बत को लील लिया था। चीन के कम्युनिस्ट सम्राट माओ ने स्वाधीन ताइवान को अपना निशाना दशकों पूर्व बना लिया था। अतः पड़ोस की इस विपदा पर भारत सजग न हुआ तो सिक्किम और अरुणाचल का भारतीय राष्ट्र में बना रहना, भूटान की अस्मिता और नेपाल का स्वतंत्र राष्ट्र का रूप खतरे में पड़ेगा। माओ ने इन चारों को चीन की कटी हुई उंगलियां कहा था और तिब्बत को अंगूठा, जिसे 1949 में जोड़ लिया था। पर क्लेश होता है जब दुनिया का दरोगा बना अमरीका अपना बेसी माल खपाने और ज्यादा कमाने के लोभ में विस्तारवादी चीन के साथ व्यापारी लाभ की वेदी पर अपने पुराने और विश्वासी मित्र ताईवान को चढ़ा देता है। मार्क्सवादी लहजे में इसे अमरीकी साम्राज्यवाद और चीनी नवउपनिवेशवाद की दुरभिसंधि कहा जाएगा।

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आखिर ताइवान आज भारत के समीपस्थ समुद्री क्षेत्र में युद्ध का कारण कैसे बन रहा है? तो पहले उसके भूगोल को देंखे। उत्तरी और दक्षिणी चीन की खाड़ियों के बीच बसा ताइवान द्वीप जलडमरूमध्य है। चीन के सागर तट से डेढ़ सौ किलोमीटर दूर पर स्थित ताइवान द्वीप समूह आकार, मौसम और विकास की दृष्टि से गुजरात सरीखा है। पहाड़ियों से घिरे, चौदह हजार वर्ग किलोमीटर में बसा है| ताइवान की आबादी दो करोड़ है। इसमें आधे श्रमिक वर्ग के हैं, कृषि केवल तीन फीसदी लोगों का व्यवसाय है। तीन चैथाई आबादी बौद्ध धर्मावलम्बी हैं। ईसाई छह लाख हैं। पुरुषों की औसत आयु 72 वर्ष है तो महिलाओं की उनसे छह साल अधिक है। राजधानी ताइपे की आबादी लखनऊ के बराबर है पर आकार तिगुना है। अगर ताइवान आज विश्व के सर्वाधिक विकसित राष्ट्रों में गिना जाता है तो इसका कारण मुक्त व्यापार और उसके श्रमिकों का योगदान है।

ताईवान की राष्ट्रपति

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ठीक 70 वर्ष पूर्व आदिवासियों से बसा यह द्वीप अफीमची और भिखारियों से भरा था। चीन के मंचू सम्राट ने जापानी सम्राट से हार कर 1895 में संधि के तहत ताइवान को जापान को भेंट किया था। द्वितीय युद्ध में नागासाकी और हिरोशिमा पर आणविक आक्रमण से पराजित होकर जापान ने ताइवान खाली कर दिया। तभी नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने भी राजधानी ताईपे छोड़ दिया था। क्योंकि अमरीकी और ब्रिटिश फौज वहां पर आ धमकी थी। इन नये कब्जा करने वालों ने कोमिन्तांग पार्टी के नेता और राष्ट्रपति जनरल च्यांग काई शेक के सुपुर्द ताइवान को कर दिया था। च्यांग काई शेक भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के हमदर्द थे। मादाम शेक जो अपने युग की मशहूर सुन्दरियों में थीं| जवाहर लाल नेहरू के काफी निकट थीं| लेकिन जैसे ही कम्युनिस्ट नेता माओत्से तुंग ने च्यांग काई शेक का तख्ता पलटा, नेहरू ने च्यांग का साथ छोड़ दिया। माओ के साथ हो लिए| विवश होकर च्यांग ने भाग कर 1949 में फार्मोसा (ताइवान) में शरण ली। जब 1971 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता वाली सीट ताइवान से छीनकर कम्युनिस्ट चीन को दी तो बोझिल दिल लिये च्यांग चल बसे। मगर ताइवान विश्व शांति के लिए चुनौती बना रहता है। चीन बलपूर्वक उसे हथियाना चाहता है।

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समूचे ताइवान मसले को समझने के लिए वहां के जनमानस का विश्लेषण आवश्यक है। वहां आयु के आधार पर सोच बनी है| जो लोग 70 वर्ष से कम के हैं और ताइवान में जन्में हैं वे स्वाधीन राष्ट्र के रूप में ताइवान की पहचान बनाये रखने के पक्ष में है। उनमें अधिकतर लोग डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी के समर्थक हैं जो अब शासक दल है। पहले सत्तारूढ़ कोमिन्तांग राष्ट्रवादी पार्टी ताइवान को मातमृभूमि (चीन) का अंग फिर बनवाना चाहती रही, मगर इस शर्त पर कि चीन में कम्युनिस्ट पार्टी का एकाधिकार समाप्त हो तथा बहुदलीय संसदीय लोकतंत्र की स्थापना हो जैसे सोवियत संघ को भंग कर प्रजातांत्रिक रूसी गणराज्य बना।

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इस शर्त को चीन के पूर्व राष्ट्रपति ज्यांग झेमिन ने अमान्य कर दिया था। उन्होंने बस इतनी रियायत दी कि हांगकांग की भांति वे ताइवान की पूंजीवादी व्यवस्था को बरकरार रखेंगे| चीन से आजाद होने के हांगकांग में गत महीनों से हो रहे जनविरोध का ताईवान के चुनाव पर काफी असर पड़ा। चुनाव परिणाम में वही चीन विरोध झलकता है। फिलवक्त स्वतंत्र तिब्बत की बारी अभी बहुत दूर है।

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