महाराष्ट्र चुनाव: ढह गया कांग्रेस-राकांपा का किला
कांग्रेस-राकांपा की हालत खस्ता है। इनके कई सीनियर नेता पाला बदल चुके हैं। इनमें कुछ तो भाजपा या शिवसेना के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। इस बार भाजपा के पास जरूरत से ज्यादा संभावित प्रत्याशी हो गये थे जबकि कांग्रेस और राकांपा के पास उचित प्रत्याशियों का टोटा था।
नीलमणि लाल
महाराष्ट्र कभी ऐसा राज्य हुआ करता था जहां किसी गैर कांग्रेसी विपक्ष ने अपने दम पर बहुमत हासिल नहीं किया। सिर्फ साल 1995 में भाजपा-शिवसेना गठबंधन ने सत्ता हासिल की थी लेकिन उसमें भी निर्दलीय व विद्रोही विधायकों का अच्छा खासा समर्थन था।
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साल 2014 के विधानसभा चुनाव तक भाजपा हमेशा से शिवसेना के पीछे रही। भाजपा बमुश्किल शिवसेना के मुकाबले आधी सीटें जीत पाती थी और वह भी मुख्यत: गुजरातियों, गैर मराठी वोटरों और प्रवासियों के ही समर्थन से।
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साल 2014 के विधानसभा चुनाव ने महाराष्ट्र में राजनीतिक समीकरण पूरी तरह बदल डाले और कांग्रेस को उसके अंतिम गढ़ में हाशिये तक पहुंचा दिया। राज्य में अब तक हुये २१ चीफ मिनिस्ट्रर्स में से शिव सेना के सिर्फ दो लोग (मनोहर जोशी और नारायण राणे) ही शामिल रहे हैं। ये दोनों भी पांच साल के भीतर ही अदल-बदल गये। कुल मिला कर इस राज्य ने इन दो नेताओं के पहले व बाद में हमेशा कांग्रेस-एनसीपी को ही तरजीह दी है।
2014 में हुआ बड़ा बदलाव
साल 2014 के विधानसभा चुनाव, आम चुनावों के कुछ दिनों बाद ही संपन्न हुये थे। आम चुनावों की भांति राज्य के चुनाव पर भी मोदी लहर का प्रभाव रहा और केंद्र में सत्ता परिवर्तन ने राज्य की दिशा भी तय कर दी। इस चुनाव के आंकड़े गवाह हैं कि कांग्रेस ने यहां अपना सबसे खराब प्रदर्शन किया। 288 सीटों की विधानसभा में कांग्रेस सिर्फ ४२ सीटें जीत पाई।
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साल 2009 में उसे 82 सीटें मिली थीं। शरद पवार की राकांपा का प्रदर्शन पश्चिम महाराष्ट्र और मुम्बई में काफी खराब रहा और उसे कुल 41 सीटें ही मिल पायीं जबकि 2009 में उसे 62 सीटों पर जीत मिली थी। दूसरी ओर, अपने दम पर चुनाव लड़ी भाजपा ने १२२ सीटें जीत कर सबको चौंका दिया। 2009 की 46 सीटों के मुकाबले यह बहुत बड़ी जीत थी।
जातिगत समीकरण
महाराष्ट्र में कांग्रेस और राकांपा को आमतौर पर मराठा व कुनबी समुदायों का समर्थन रहता था। राज्य के सभी क्षेत्रों में अधिकांश पार्टी नेता इन्हीं समुदायों से आते हैं और यही राज्य की राजनीतिक रणनीति तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते आये हैं। अनुमान है कि राज्य की आबादी में मराठा ३५ फीसदी हैं जो राजनीतिक नेतृत्व का 70 फीसदी इसी समुदाय से आता है।
भाजपा होती गई मजबूत
नब्बे के दशक में भाजपा विदर्भ क्षेत्र में मराठा वोटों को काफी हद तक अपने पक्ष में करने में सफल रही थी। किसानों का संकट और हिन्दुत्व के एजेंडा ने मतदाताओं पर काफी असर डाला था। इसी कालखंड में मराठा नेताओं की राजनीतिक प्रतिबद्धता भी शिफ्ट होना शुरू हो गई। ये बदलाव 2014 में स्पष्टï रूप से सामने आ गया जब भाजपा को विदर्भ की 62 सीटों में से 44 पर विजय हासिल हुई।
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2016 में तीन दलितों द्वारा कुनबी समुदाय की एक लडक़ी के रेप व मर्डर के बाद मराठा सडक़ों पर उतर आये। जल्द ही इस मसले ने राजनीतिक मोड़ ले लिया और समूचा दलित समुदाय निशाने पर आ गया। एससी-एसटी एक्ट को नरम करने और मराठाओं को शिक्षा व नौकरियों की मांग प्रमुखता से उठाई गई।
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भाजपा ने ये मान लीं और नवम्बर 2018 में राज्य विधानसभा ने मराठों को 16 फीसदी आरक्षण देने का कानून पास कर दिया। जैसी संभावना थी, इस कानून को हाईकोर्ट में चुनौती दी गई। अब ये मामला सुप्रीमकोर्ट में है।
मराठा आये भाजपा के साथ
मराठों के पक्ष में भाजपा सरकार के फैसले का अपेक्षित असर हुआ। इस समुदाय का भाजपा को जबर्दस्त समर्थन मिल गया, कांग्रेस-राकांपा के तमाम नेता पाला बदल कर भाजपा में आ गये। मराठा वोट को भाजपा के पक्ष में समेटने का श्रेय मुख्यमंत्री देवेन्द्र फणनवीस को दिया जाता है। फणनवीस ब्राह्मïण हैं और उनके पहले सिर्फ एक ब्राह्मïण मुख्यमंत्री (शिवसेना के मनोहर जोशी) और हुआ है। राज्य में ब्राह्मïणों की संख्या तीन फीसदी से भी कम है।
2019 का हाल
कांग्रेस-राकांपा की हालत खस्ता है। इनके कई सीनियर नेता पाला बदल चुके हैं। इनमें कुछ तो भाजपा या शिवसेना के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। इस बार भाजपा के पास जरूरत से ज्यादा संभावित प्रत्याशी हो गये थे जबकि कांग्रेस और राकांपा के पास उचित प्रत्याशियों का टोटा था। कांग्रेस-राकांपा को जल्दी ही समझ आ गया कि वह महाराष्ट्र में हारी हुई लड़ाई लड़ रही है।