गांधी जी को भारत की आज़ादी का नहीं था पता !
महात्मा गांधी को पता नहीं था कि भारत को आज़ादी मिल गयी है। यह भी नहीं पता था कि भारत पाकिस्तान के बँटवारे की क़ीमत पर आज़ादी मिली है। यह चौंकाने वाला सत्य व तथ्य भरोसा करने लायक़ नहीं लगता है। पर यह तथ्य इतना सत्य है कि इस पर भरोसा करें या न करें पर सत्य पर कोई असर नहीं पड़ने वाला है।
योगेश मिश्र / नीलमणि लाल
लखनऊ: महात्मा गांधी को पता नहीं था कि भारत को आज़ादी मिल गयी है। यह भी नहीं पता था कि भारत पाकिस्तान के बँटवारे की क़ीमत पर आज़ादी मिली है। यह चौंकाने वाला सत्य व तथ्य भरोसा करने लायक़ नहीं लगता है। पर यह तथ्य इतना सत्य है कि इस पर भरोसा करें या न करें पर सत्य पर कोई असर नहीं पड़ने वाला है।
मौलाना आज़ाद की किताब ‘इंडिया विंस फ़्रीडम’ का जवाब
सत्य हमेशा सही रहने वाला है क्योंकि इस सत्य का रहस्योद्घाटन कांग्रेस की कार्यसमिति में विशेष आमंत्रित सदस्य के रूप में शरीक एक बड़े नेता की कलम से कलमबंद है। जिसे एक किताब के रूप में मौलाना आज़ाद की किताब ‘इंडिया विंस फ़्रीडम’ के जवाब में लिखा गया है। वह एक ऐसे शख़्स ने लिखा है जो भारत के स्वतंत्रता संग्राम का बड़ा नायक था। जो जीवन भर गांधीवादी रहा। भले ही वह खुद को 'कुजात' गांधीवादी कहता रहा हो पर गांधी जी को उसने जीवन पर्यन्त नहीं छोड़ा।
लोहिया ने गुस्से में लिखी ‘भारत विभाजन के अपराधी’ किताब
यह शख़्स है - डॉ. राम मनोहर लोहिया। डॉ. लोहिया कार्य समिति की उस बैठक में शामिल थे, जिसमें विभाजन का अनुमोदन किया गया। उस पूरे घटनाक्रम को लोहिया ने अपनी किताब-‘भारत विभाजन के अपराधी’ में दर्ज किया है। यह पुस्तक उन्होंने बहुत ग़ुस्से में लिखी है। क्योंकि उन्हें पूरा विश्वास था कि विभाजन में कांग्रेस के बड़े नेताओं ने ख़ासकर जवाहर-लाल नेहरू और सरदार पटेल ने सारे देश के साथ धोखा किया। उन्होंने गांधी को भी अंधेरे में रखा। सत्ता संभालने की उतावली में विभाजन को स्वीकार कर लिया। लोहिया ने लिखा है कि समिति की बैठक में गांधी के प्रति जवाहर लाल नेहरू का रवैया तिरस्कार पूर्ण था।
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डॉ राम मनोहर लोहिया ने किताब में लिखी ये बातें...
डॉ राम मनोहर लोहिया लिखते हैं कि - "इस बात की शुरुआत करने से पहले मैं कांग्रेस कार्य समिति की बैठक का ज़िक्र करना चाहूँगा, जिसमें बँटवारे की योजना स्वीकृत की गयी। हम दो सोशलिस्ट जयप्रकाश नारायण और मुझे इस बैठक में विशेष निमंत्रण पर बुलाया गया था। हम दोनों, महात्मा गांधी और ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को छोड़कर कोई बँटवारे की योजना के ख़िलाफ़ एक शब्द भी नहीं बोला। यह बैठक दो दिन तक चली।
मौलाना आज़ाद उसी छोटी सी कोठरी के कोने में बैठकर अबाध गति से सिगरेट पीते रहे। वह एक शब्द नहीं बोले। संभव हो कि उन्हें सदमा पहुँचा हो। लेकिन उनका अपनी किताब में यह बतलाने की कोशिश करना कि वह अकेले विरोध करने वाले थे, बेवक़ूफ़ी के सिवाय कुछ नहीं है। इतना ही नहीं, इन बैठकों में वो एक शब्द भी नहीं बोले। बल्कि एक दशक और उससे भी अधिक विभाजित भारत में मंत्री पद पर जमे रहे।"
बँटवारे से दुखी थे मौलाना आज़ाद
लोहिया की किताब में लिखा है - "मैं मान सकता हूँ और यह समझ सकता हूँ कि वे बँटवारे से दुखी थे। शायद अनौपचारिक ढंग से या गपाष्टक में उन्होंने इसका विरोध भी किया हो। लेकिन यह ऐसा विरोध था कि आगे चलकर उस चीज़ की सेवा से वह नहीं हिचकिचाये, जिसका उन्होंने विरोध किया था। बड़े बुद्धिमान या उतने ही नमनीय मन में विरोध और सेवा का यह विचित्र मेल था। मौलाना आज़ाद के मन की खोज भी एक दिलचस्प चीज़ हो सकती है । मुझे कभी कभी लगता है कि बुद्धिमानी और लचीलापन दोनों साथ साथ चलते हैं।”
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नेताओं पर बरसा लोहिया का गुस्सा
लोहिया का मत यह है कि कांग्रेस नेता बूढ़े हो गए थे, थक गए थे। आगे सुख तथा आराम की ज़िंदगी बिताना चाहते थे। लोहिया का ग़ुस्सा इन नेताओं पर इसलिए भी बरसा क्योंकि उन्होंने गांधी को दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंका था। विभाजन को स्वीकार कर इन नेताओं ने छह लाख लोगों की हत्या तथा लगभग डेढ़ करोड़ लोगों के विस्थापन की स्थितियां बनायी। उन्हें यह भी संदेह रहा कि नेहरू और पटेल ने सत्ता की उतावली में पूर्ण स्वतंत्रता के बजाए डोमिनियन स्टेट्स ( स्वतंत्र उपनिवेश) तक को स्वीकार कर लिया था। भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के तंत्र को ज्यों का त्यों जारी रखने का कोई और लिखित अथवा अलिखित समझौता भी ब्रिटिश सरकार से किया था।
कृपलानी की दयनीय स्थिति
लोहिया के मुताबिक इस बैठक में आचार्य कृपलानी की स्थिति बड़ी दयनीय थी। वह कांग्रेस के अध्यक्ष थे। बैठक में वह झुककर बैठे थे और बीच बीच में ऊँघ रहे थे। किसी मुद्दे पर बहस के दरमियान महात्मा गांधी ने कांग्रेस के श्रांत अध्यक्ष की ओर संकेत किया। झुंझलाकर मैंने उनका हाथ पकड़ कर झिंझोड़ा। उन्होंने बताया कि वे सर दर्द से बुरी तरह पीड़ित हैं। बँटवारे से उनका विरोध निश्चित ही साफ़ रहा होगा, क्योंकि उनके लिए यह वैयक्तिक भी था। लेकिन इस आज़ादी के लड़ाकू संगठन को बुढ़ापे की बीमारियों और थकान ने आफत के समय बुरी तरह धर दबोच लिया था ।
मात्र दो वाक्य बोले ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ाँ
ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ाँ मात्र दो वाक्य बोले। उनके सहयोगियों ने विभाजन योजना स्वीकृत कर ली, इस पर उन्होंने अफ़सोस ज़ाहिर किया। उन्होंने विनती की कि प्रस्तावित जनमत गणना में पाकिस्तान और हिन्दुस्तान में सम्मिलित होने के इन दो विकल्पों के अलावा क्या यह भी जोड़ा जा सकता है कि उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत चाहे तो स्वतंत्र भी रहे। इससे अधिक किसी भी अवसर पर वह एक शब्द भी नहीं बोले। निश्चय ही उन्हें काफ़ी सदमा लगा था।
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जयप्रकाश नारायण विभाजन के ख़िलाफ़ संक्षेप में पर निश्चयात्मक ढंग से एक बार ही बोले। फिर चुप रहे। उन्होंने ऐसा क्यों किया ? जिस ढंग से कार्य समिति देश का विभाजन करना चाह रही थी, क्या वह उससे क्षुब्ध थे ? या उन्होंने चुप रहने में ही बुद्धिमानी समझी। क्योंकि नेतृ वर्ग विभाजन की स्वीकृति के लिए दृढ़ रूप से एकमत था। शायद उनका चरित्र किसी अवसर पर स्वस्थ प्रतिक्रियाओं और आम तौर पर बुद्धिमानी के मिश्रण से बना है, जो निसंदेह झुँझलाहट पैदा करता है। जिससे अक्सर उन पर मुझे ग़ुस्सा आता है।
बैठक में गांधीजी द्वारा उठाई बातों पर चर्चा
लोहिया लिखते हैं कि - 'यहाँ मैं विशेष रूप से उन दो बातों की चर्चा करूँगा, जिन्हें इस बैठक में गांधीजी ने उठाया था। शिकायत सी करते हुए उन्होंने नेहरू और सरदार पटेल से कहा कि विभाजन को मान लेने के पहले इन लोगों ने उसकी ख़बर उन्हें नहीं दी। गांधीजी के अपनी बात पूरी कर सकने के पहले, नेहरू ने कुछ आवेश में आकर उन्हें रोका और कहा कि उनको भी पूरी तौर पर जानकारी देते हैं।
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महात्मा गांधी के दोबारा यह कहने पर कि विभाजन की योजना की जानकारी उनको नहीं थी, नेहरू ने अपनी पहली बात को थोड़ा सा बदल दिया। उन्होंने कहा कि नोवाख़ाली इतनी दूर है और कि चाहे उन्होंने इस योजना को तफ़सील से न बताया हो, पर विभाजन के बारे में उन्होंने मोटी तौर पर गांधीजी को लिख दिया था।
नेहरू और सरदार पटेल ने आपस में तय कर लिया था...
नेहरू और सरदार पटेल द्वारा विभाजन की योजना मान लेने के पहले क्या उसकी जानकारी गांधीजी को थी? महात्मा गांधी को लिखे गए संदिग्ध पत्रों को छपा देने से नेहरू का काम नहीं चलेगा, जिनमें उन्होंने काल्पनिक और सतही जानकारी दी थी। नेहरू और सरदार पटेल ने साफ़ तौर पर आपस में तय कर लिया था कि काम के निश्चित रूप से पूरा होने के पहले गांधीजी को विषय की जानकारी देना अच्छा नहीं होगा।
एक लाजवाब नीति
वो चाहते थे कि कांग्रेस पार्टी अपने नेताओं के वायदे की लाज रखे, इसलिए वे कांग्रेस से कहेंगे कि विभाजन के सिद्धांत को वह मान ले। सिद्धांत को मान लेने के बाद, उसको कार्यान्वित करने के बारे में घोषणा करनी चाहिए। उसे यह माँग करनी चाहिए कि जैसे ही कांग्रेस और मुस्लिम लीग विभाजन की स्वीकृति की सूचना दे, ब्रिटिश सरकार और वायसराय हट जायें। बिना और किसी के दख़ल के कांग्रेस पार्टी और मुस्लिम लीग मिलकर देश का विभाजन करेंगे। मैं तब भी मानता था और आज भी मानता हूँ कि यह एक लाजवाब नीति कुशल बात थी। संत के साथ साथ उनके नीति कुशल होने के बात बहुत कही गई है , पर यह कुशाग्र और निपुण प्रस्ताव जहाँ तक मुझे मालूम है अब तक लिपिबद्ध नहीं किया गया है ।
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डॉक्टर ख़ान साहब आवाज उठाने वाले पहले और अकेले व्यक्ति
सीमांत गांधी के बड़े भाई डॉक्टर ख़ान साहब पहले और अकेले व्यक्ति थे जो ज़ोर से चिल्ला पड़े कि यह प्रस्ताव बिल्कुल अव्यवहारिक है। इन प्रस्तावों का किसी और के विरोध करने की नौबत ही नहीं आयी। उस पर विचार नहीं किया गया। मैंने डॉक्टर ख़ान से आपत्ति की कि प्रस्ताव की अव्यवहारिकता में ही तो उसकी ख़ूबसूरती है। और जिन्ना और कांग्रेस प्रतिनिधि अंग्रेजों की मदद के बिना देश का विभाजन कैसे करें इसमें समझ न हो तो हिंदुस्तान घाटे में नहीं रहेगा । ऐसी आपत्तियों को कौन सुनता। एकता की क़ीमत पर आज़ादी ख़रीदने की कांग्रेस नेतृत्व की दृढ़ता के कारण
उसका कोई व्यवहारिक महत्व नहीं निकला। उसका मतलब निकलता अगर गांधीजी अपने प्रस्ताव को आंदोलन की संभावना से पुष्ट करते। उन्होंने महसूस नहीं किया कि गांधीजी के प्रस्ताव के अनुसार हठी जिन्ना अपनी असाधुता के कारण हिन्दुस्तान को बचा लेते।
नेहरू और पटेल ने गांधी जी के साथ 'असभ्य और टुच्चे पन' का व्यवहार किया
लोहिया लिखते हैं कि इसी मीटिंग में नेहरू और सरदार पटेल ने गांघी जी के साथ 'असभ्य और टुच्चे पन' का व्यवहार किया। उन दोनों के साथ मेरी कुछ झड़प हो गई। "इनमें से कुछ की मैं चर्चा करूँ। अपने अधिष्ठाता के प्रति इन दो चुनिंदा चालों के अत्यधिक अशिष्ट व्यवहार से मुझे जैसे पहले आश्चर्य हुआ था, वैसे अब भी होता है । हालाँकि आज उसे मैं कुछ बेहतर समझ सका हूँ । इस चीज़ में कुछ मनोविकार था। ऐसा लगता था कि वे किसी चीज़ के लिए ललक गए हैं। जब कभी उन्हें इसकी गंध मिलती है कि गांधीजी उसको रोकने लगेंगे तो वे ज़ोर से भौकने लगते हैं।
मौलाना आज़ाद और नेहरू गज़ब के घनिष्ठ हो गए थे
गांधीजी और जनता की आज़ादी की इच्छा को भुलावा देने के लिए उस समय मौलाना आज़ाद और नेहरू गज़ब के घनिष्ठ हो गए थे।
ये लोग बुढा गए थे। वे अपने आख़िरी दिनों के क़रीब पहुँच गये थे। यह भी सही है कि पद के आराम के बिना भी ये ज़्यादा दिन ज़िंदा नहीं रह सकते थे। अपने संघर्ष के जीवन को देखने पर उन्हें बड़ी निराशा होने लगने लगी थी। बहुत ज़्यादा मौक़ापरस्त बनने का मौक़ा उनका नेता दे नहीं रहा था।" लोहिया लिखते हैं कि "मुझे यक़ीन है कि अपने देश की एकता की क़ीमत पर नेहरू और उनकी जैसे लोगों ने देश की स्वतंत्रता ख़रीद कर देश को बहुत नुक़सान पहुंचाया है।"
जब सरदार पटेल ने कही ये बात
लोहिया लिखते हैं कि "जब सरदार पटेल ने मुझसे कहा कि उनके जैसे बूढ़े लोग सिर्फ़ मेरे जैसे जवानों को एक देश दे रहे हैं ताकि उसमें परिवर्तन और प्रगति करें। तब मैंने उन्हें याद दिलाया कि अगर वे स्वतंत्र्य सेनानी थे तो हम भी एक सिपाही थे और कि नीतियों पर समानता के वातावरण में बहस होनी चाहिए। पटेल ने यह भी कहा कि अब वह जिन्ना से लाठी से बात करेंगे। इस पर फिर मैंने उनको याद दिलाया कि एक साल पहले उन्होंने जिन्ना से तलवार से बात करने का वादा किया था । मुझे यक़ीन है कि पटेल नहीं समझ सके कि किन चीज़ों का उनको सामना करना है या नेहरू के साथ मिल कर उन्होंने जो युक्तियाँ बिठाई हैं उनका कितना कड़वा फल निकलेगा।"
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विभाजन की क़ीमत पर आज़ादी ख़रीदने की नियति
ये लोग विभाजन की क़ीमत पर आज़ादी ख़रीदने की नियति बनाकर आए थे। लोहिया जैसे आदमियों ने जो अस्पष्ट संकल्प से उनका विरोध करने की कोशिश की। नेहरू ने लोहिया को भाषण व आचार दोनों में कूटनीति सिखाने की कोशिश ज़रूर की थी। डॉ. लोहिया की कुछ बातों को इस आधार पर ठुकरा दिया गया कि वे अराजनयिक थीं। लोहिया को याद नहीं पड़ता कि प्रारूप समिति को और किसी सदस्य ने कुछ कहा हो।
विभाजन के पाप कर्म से जिन आदमियों की आत्मा तब दग्ध चाहिए थी वे अपनी अपकीर्ति की गंदगी में कीटवत मज़ा ले रहे थे। वे दुराचरण की तह में गिरते ही जाएंगे।
डॉ. लोहिया के मुताबिक़,”आज मुझे बहुत दुख है कि जब हमारे इस महान देश का विभाजन हो रहा था तब एक भी आदमी उसका प्रतिकार करते हुए मरा नहीं या जेल नहीं गया। भारत के विभाजन पर मैं जेल क्यों नहीं किया इसका मुझे बेहद अफ़सोस है।”
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