अयोध्या का विवाद समझना है तो इन 5 किरदारों के बारे में जरुर जानना होगा

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में ये भी कहा है कि केंद्र सरकार तीन महीने में स्कीम लाए और ट्रस्ट बनाए। यह ट्रस्ट राम मंदिर का निर्माण करेगा।

Update:2019-11-09 15:55 IST

लखनऊ: अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुना दिया है। सबसे पहले चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) रंजन गोगोई ने शिया वक्फ बोर्ड की याचिका खारिज करने की बात बताई थी।

इसके बाद निर्मोही अखाड़े का भी दावा खारिज कर दिया। कोर्ट ने एएसआई की रिपोर्ट के आधार पर कहा कि मस्जिद खाली जमीन पर नहीं बनाई गई थी।

मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाने की भी पुख्ता जानकारी नहीं है। आस्था के आधार पर जमीन का मालिकाना हक नहीं दिया जा सकता। फैसला कानून के आधार पर ही दिया जाएगा।

मुस्लिम पक्ष जमीन पर दावा साबित करने में नाकाम रहा है। मुस्लिमों(सुन्नी वक्फ बोर्ड) को दूसरी जगह 5 एकड़ जमीन दी जाए। विवादित जमीन रामलला की है।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में ये भी कहा है कि केंद्र सरकार तीन महीने में स्कीम लाए और ट्रस्ट बनाए। यह ट्रस्ट राम मंदिर का निर्माण करेगा।

इस फैसले में विवादित जमीन रामजन्मभूमि न्यास को देने का फैसला किया गया है। पांच जजों की बेंच ने यह फैसला सर्वसम्मति से दिया।

अयोध्या का फैसला समझने से पहले इन पांच किरदारों के बारे में जरुर जानना होगा जो बेहद कम सुर्खियों में रहे।

बाबर

बाबर का पूरा नाम जहिर उद-दिन मुहम्मद बाबर था। बाबर दिल्ली का पहला मुगल बादशाह था। बाबर के ही राज में बाबरी मस्जिद का निर्माण हुआ था।

बाबर का जन्म 1483 में हुआ था और महज 12 साल की उम्र में वह अपने पिता की जायदाद का वारिस बन गया था। 21 अप्रैल, 1526 को इब्राहिम लोदी को मारकर बाबर दिल्ली का शासक बना।

अपने पिता की हत्या के बाद उसने रोजाना डायरी लिखना शुरू कर दिया था। यही वह डायरी है, जो पांच शताब्दी तक गुम रहने के बाद ‘बाबरनामा’ के रूप में सामने आई। इस डायरी का 18 साल का रेकॉर्ड नष्ट हो गया है, इसलिए इसमें बाबरी मस्जिद का जिक्र नहीं है।

मीर बाकी

अयोध्या की जिस मस्जिद को लेकर लंबे समय से चला आ रहा विवाद सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा, उसे आम तौर पर बाबरी मस्जिद के नाम से जाना जाता है। लेकिन, इस मस्जिद का निर्माण मीर बाकी ने कराया था और इसका नामकरण बाबर के नाम पर किया गया था।

मीर बाकी का वास्तविक नाम बाकी ताशकंदी था। नाम से ही साफ है कि उसका ताल्लुक ताशकंद से था। वह शिया मुसलमान था। बाकी ताशकंदी मुगल शासक बाबर का सेनापति था और कहा जाता है कि उसकी सैन्य क्षमताओं के कारण बाबर ने उसे ‘मीर’ की उपाधि से नवाजा था।

इसके बाद उसे मीर बाकी कहा जाने लगा था। इब्राहिम लोदी को हराने के बाद बाबर ने जब अपना साम्राज्य विस्तार करना शुरु किया तो उसने मीर बाकी को अवध प्रांत का सूबेदार बना दिया. माना जाता है कि मीर बाकी ने 1528 से 1529 के बीच बाबरी मस्जिद का निर्माण कराया।

हालांकि, बहुत सारे इतिहासकार इस तथ्य पर सहमत नहीं हैं कि मीर बाकी ने बाबरी मस्जिद बनवाने के लिए कोई मंदिर तोड़ा। ऐसा मानने वाले तर्क देते हैं कि मध्यकाल के महान राम भक्त कवि तुलसीदास की किसी रचना में ऐसा संकेत नहीं मिलता कि राम मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई।

हालांकि, हिंदू पक्ष यह दावा करता है कि तुलसीदास की ‘दोहाशतक’ नाम की कृति में इस घटना का जिक्र है और उसमें मीर बाकी के नाम का भी उल्लेख किया गया है। लेकिन, इतिहासकार और साहित्यकार ‘दोहाशतक’ को तुलसीदास की प्रामाणिक रचना नहीं मानते।

हवलदार अब्दुल बरकत

अब्दुल बरकत का भी किस्सा उसी रात से जुड़ा है जब विवादित इमारत में मूर्तियां रखी गईं थीं। 22 और 23 दिसंबर, 1949 की दरमियानी रात को अब्दुल बरकत की विवादित इमारत पर ड्यूटी थी।

ड्यूटी का वक्त रात बारह बजे से था। लेकिन, किसी वजह से वे देर से पहुंचे। जब तक अब्दुल बरकत विवादित इमारत की ड्यूटी पर पहुंचे तब तक बैरागी साधुओं के समूह के साथ कुछ लोग मस्जिद में मूर्तियां रख चुके थे।

कहा जाता है कि संवेदनशील जगह की ड्यूटी पर तैनात अब्दुल बरकत इससे घबरा गए। इसके बाद अपनी नौकरी पर संकट जान उन्होंने वही बातें दोहरा दीं जो मूर्ति रखवाने के योजनाकारों ने उनसे कहीं।

पुलिस को दिए अपने बयान में अब्दुल बरकत ने कहा, ‘मैं बाबरी मस्जिद की ड्यूटी पर तैनात था। तभी बाबरी मस्जिद के अंदर से एक रोशनी उठी जो धीरे-धीरे सुनहली होती गई।

भीतर एक चार-पांच साल के बच्चे की सूरत नजर आई। ऐसा खूबसूरत बच्चा मैंने अपनी जिंदगी में नहीं देखा था। जब मुझे होश आया तो मैंने देखा कि सदर दरवाजे का ताला टूटा हुआ है और हिंदुओं की भीड़ एक बुत की आरती कर रही है।

इसके अलावा मैं कुछ नहीं जानता।’ अब्दुल बरकत के इस बयान का कानूनी तौर पर जो भी महत्व हो, लेकिन लोकप्रिय अवधारणा में इसके महत्व का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि राम मंदिर के लिए पत्थर तराशने के लिए बनाई गई कार्यशाला में अब्दुल बरकत के इस बयान का बाकायदा बोर्ड लगा हुआ है।

केकेके नायर

केकेके नायर फैजाबाद के जिलाधिकारी थे और इन्हीं के कार्यकाल के दौरान बाबरी ढांचे में मूर्ति रखीं गईं थीं। यह अयोध्या विवाद के इतिहास में सबसे अहम मोड़ था।

केकेके नायर मूलतः केरल के थे और 1930 बैच के आईसीएस अधिकारी थे। नायर पर आरोप लगाए जाते हैं कि विवादित इमारत में मूर्ति रखवाने में उनकी भूमिका भी थी।

यह आरोप कितना सही या गलत है यह नहीं कहा जा सकता। लेकिन, यह सही है कि उन्होंने बाबरी ढांचे से मूर्तियां हटाने का कोई बहुत ज्यादा प्रयास नहीं किया।

कहा जाता है कि उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत को केकेके नायर ने यह कहकर समझा लिया था कि विवादित परिसर से मूर्ति हटाने पर हालात और बिगडेंगे। इसके बाद गोविंद बल्लभ पंत का रवैया इस बारे में नरम ही रहा।

तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने विवादित परिसर से मूर्तियां हटाने के लिए कहा तो उत्तर प्रदेश सरकार ने भी मूर्तियां हटाने का आदेश जारी किया। लेकिन, केकेके नायर ने फिर सरकार को लिखा कि दंगे और खून-खराबा होने की आशंका को देखते हुए मूर्तियां नहीं हटाई जा सकती।

ज्यादा दबाव पड़ने पर उन्होंने कहा कि अगर मूर्तियां हटानी हैं तो पहले उन्हें हटा दिया जाए। उनकी इस चेतावनी और विभाजन के बाद देश के माहौल को देखते हुए सरकार इस मामले में पीछे हट गई।

केकेके नायर इसके बाद सिविल सेवा के अधिकारी से इतर हिंदुत्व के नायक बन चुके थे और 1952 में उन्होंने वीआरएस ले लिया। इसके बाद वे बहराइच से जनसंघ के टिकट पर लोकसभा सदस्य भी बने। उनकी पत्नी शंकुतला नायर भी कैसरगंज संसदीय क्षेत्र से कई बार सांसद बनीं।

 

अली मियां

मौलाना अबुल हसन अली नदवी। इन्हें अली मियां भी कहा जाता था। अली मियां से भी अयोध्या विवाद के तार कई तरह से और दिलचस्प तरीके से जुड़ते हैं। 1986 में शाहबानो प्रकरण के समय अली मियां मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के चेयरमैन थे।

शाहबानो को गुजारा भत्ता देने के अदालत के फैसले का मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने सख्त विरोध किया था। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के दबाव में ही राजीव गांधी ने शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने की योजना बनाई।

कहा जाता है कि शाहबानो प्रकरण में अदालत का फैसला पलटने को लेकर तत्कालीन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अध्यक्ष अली मियां और प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बीच एक डील हुई थी।

इस डील की वजह यह बताई जाती है कि शाहबानो प्रकरण के बाद राजीव गांधी पर मुस्लिम कट्टरपंथ को प्रश्रय देने के आरोप लगने लगे थे। इस वजह से उन्होंने अयोध्या में विवादित ढांचे का ताला खुलवाने का फैसला किया और अली मियां से कहा कि इस मसले पर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड उनका साथ दे।

अली मियां ने दिया था राजीव गांधी का साथ

अली मियां ने इस मसले पर राजीव गांधी का साथ दिया और अयोध्या में ताला खोलने के फैसले पर कोई सख्त एतराज नहीं जताया। बल्कि, मुस्लिम पक्ष के जो लोग इसका विरोध कर रहे थे, अली मियां ने उनकी आलोचना की।

शाहबानो प्रकरण के बदले अयोध्या विवाद की डील के अलावा भी अली मियां का अयोध्या विवाद से एक दिलचस्प नाता है। अली मियां के पिता मौलाना अब्दुल हई ने अरबी में एक किताब लिखी थी।

अली मियां ने अपने वालिद की अरबी की किताब का 1973 में उर्दू में तर्जुमा किया था। इस किताब के एक अध्याय ‘हिंदुस्तान की मस्जिदें’ में बाबरी मस्जिद का उल्लेख किया गया था।

बाबरी मस्जिद के बारे में इस किताब में लिखा था कि यह मस्जिद अयोध्या में है और इसका निर्माण उस जगह पर कराया गया था, जिसे हिंदू रामचंद्र जी का जन्मस्थान कहते हैं।

बाद में अयोध्या विवाद के दौरान इस किताब के हवाले से देश के अखबारों में कुछ खबरें भी छपीं। लेकिन, इसके बाद इस किताब की जो सीमित प्रतियां अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और लखनऊ के नदवा में थीं, गायब हो गईं। कहा जाता है कि अखबारों में किताबें छपने के बाद अली मियां ने ही उन्हें पुस्तकालयों से हटवा दिया।

ये भी पढ़ें...अयोध्या फैसले पर VHP ने कहा- खत्म हुआ 200 साल का इंतजार

Tags:    

Similar News