UP Nikay Chunav 2023: बीजेपी, सपा, बसपा और कांग्रेस का क्या-क्या है दांव पर?
UP Nikay Chunav 2023: यह चुनाव बीजेपी, सपा, बसपा और कांग्रेस के लिए काफी अहम है। इसमें सबसे अधिक प्रतिष्ठा किसी की दांव पर है तो वह है भाजपा। उसके बाद सपा, बसपा और फिर कांग्रेस है जिसकी प्रतिष्ठा दांव पर लगी है।
UP Nikay Chunav 2023: यूपी में निकाय चुनाव की तारीखों का ऐलान होते ही सियासी पारा भी चढ़ने लगा है। भाजपा, सपा, बसपा और कांग्रेस ये चारों पार्टिंयां अपनी तैयारी शुरू कर दी हैं। यूपी का यह निकाय चुनाव काफी अहम माना जा रहा है। इस चुनाव को 2024 का लिटमस टेस्ट माना जा रहा है। ऐसे में देखा जाए तो उत्तर प्रदेश की चार प्रमुख पार्टियों की साख दांव पर लगी है। यह चुनाव बीजेपी, सपा, बसपा और कांग्रेस के लिए काफी अहम है। इसमें सबसे अधिक प्रतिष्ठा किसी की दांव पर है तो वह है भाजपा। उसके बाद सपा, बसपा और फिर कांग्रेस है जिसकी प्रतिष्ठा दांव पर लगी है।
उत्तर प्रदेश में नगर निकाय चुनाव दो चरणों में होगा। 4 मई और 11 मई को मतदान होंगे और नतीजे 13 मई को घोषित किए जाएंगे। यहां सबसे बड़ी बात यह है नगर निकाय चुनाव के बाद सीधे 2024 में लोकसभा के चुनाव होने हैं, जिसके चलते इसे 2024 का सेमीफाइल भी कहा जा रहा है। इससे सत्ताधारी बीजेपी से लेकर विपक्षी सपा, बसपा, कांग्रेस सहित सभी सियासी पार्टियों की प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है। अब ऐसे में यहां यह सवाल उठता है कि इस निकाय चुनाव में किस दल का क्या दांव पर लगा है?
चुनावी घोषणा के साथ ही अब सियासी दलों के लिए अग्निपरीक्षा की घड़ी आ गई है। यूपी की 762 नगरीय निकाय में से 760 निकायों में चुनाव हो रहे हैं, जिसमें नगर निगम महापौर, नगर पालिका और नगर पंचायत अध्यक्ष की सीटें शामिल हैं। इसके अलावा करीब 13 हजार वार्ड पार्षद पद के लिए भी चुनाव हो रहे हैं। इसके लिए सीटों के आरक्षण की सूची भी जारी कर दी गई है।
बीजेपी की प्रतिष्ठा सबसे ज्यादा दांव पर-
अगर देखा जाए तो नगर निकाय चुनाव में अगर सबसे अधिक प्रतिष्ठा किसी की दांव पर है तो वह है सत्ताधारी बीजेपी। नगर निकाय चुनाव में भाजपा बेहतर प्रदर्शन करती रही है और इस समय सरकार में रहते हुए उस पर बड़ा दबाव है। भाजपा ने पिछले नगर निगम चानाव में तो बेहतर प्रदर्शन किया था, लेकिन वहीं नगर पालिका और नगर पंचायत में पिछड़ गई थी। भाजपा को सपा और निर्दलीयों ने से कड़ी टक्कर मिली थी। नगर पंचायत अध्यक्ष के चुनाव में भाजपा से दो गुना से अधिक निर्दलीय जीते थे। इस बार सपा और बसपा ने विधानसभा चुनाव के बाद से ही तैयारी शुरू कर दी थी, जिसके चलते बीजेपी की चुनौती बढ़ गई है।
2017 के नगर निकाय चुनाव में बीजेपी 16 में से 14 नगर निगम में अपना मेयर बनाने में सफल रही थी। केवल मेरठ और अलीगढ़ में बसपा के मेयर बने थे। इस बार शाहजहांपुर नया नगर निगम बना है, इस कारण से 17 नगर निगम सीटों पर मेयर का चुनाव हो रहा है। ऐसे में बीजेपी ने सभी 17 नगर निगम में अपना मेयर बनाने का प्लान तैयार किया है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से लेकर उप मुख्यमंत्री तक रैली की रूपरेखा बनाई गई है।
बीजेपी की ये है तैयारी-
नगर निगम से ज्यादा बीजेपी को नगर पालिका और नगर पंचायत की सीटों पर जीत दर्ज करने की तैयारी करनी होगी। इसका मतलब साथ है क्योंकि पिछली बार भी इन सीटों पर बीजेपी का प्रदर्शन अच्छा नहीं था। मुख्यतौर पर मुस्लिम बहुल सीटें बीजेपी के लिए चुनौती बनी हुई हैं, लेकिन ऐसा माना जा रहा है कि पार्टी इस बार कुछ मुस्लिमों को चुनावी मैदान में उतारने का दांव चल सकती है। वहीं बीजेपी की महिला मोर्चा टीम जिला स्तर पर महिलाओं के लिए ‘सहभोज‘ का आयोजन शुरू कर रही है, जिसे निकाय चुनाव से जोड़कर देखा जा रहा। सहभोज में दलित महिलाओं को खास तौर कर बुलाया गया है। लाभार्थी महिलाओं को जोड़ने का खास तौर पर लक्ष्य रखा गया है, क्योंकि नगर निकाय चुनाव में 37 प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं।
सपा के लिए क्यों अहम है यह चुनाव-
समाजवादी पार्टी 2022 के विधानसभा चुनाव के बाद अब निकाय चुनाव में अपने को बीजेपी के विकल्प के रूप में बनाए रखना चाहती है। पिछले चुनाव में अखिलेश की सपा एक भी मेयर सीट नहीं जीत पाई थी लेकिन वहीं नगर पालिका और नगर पंचायत के चेयरमैन जरूर बनाने में सफल रही थी। सपा ने निकाय चुनाव की तैयारी काफी पहले ही शुरू कर दी थी और उसके लिए बकायदा पर्यवेक्षक भी नियुक्त कर दिए थे। सपा इस बार नए राजनीतिक समीकरण के साथ उतर रही है। यादव-मुस्लिम के साथ दलित कैंबिनेशन बनाने की कवायद में अखिलेश यादव जुटे हुए हैं, क्योंकि उन्हें शहरी क्षेत्र का सियासी समीकरण बेहतर तरीके से पता है।
अखिलेश की नजर दलित वोटों पर भी-
इस बार सपा कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाह रही है। दलितों को साधने के लिए सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने हाल ही में रायबरेली में कांशीराम की मूर्ति का अनावरण करने के बाद अब डॉ. अंबेडकर को भी अपनाने की कवायद शुरू कर दी है। यही नहीं अखिलेश यादव 14 अप्रैल को संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर के जन्म स्थान महू का दौरा करने वाले भी हैं। अंबेडकर की जयंती के दिन अखिलेश के इस दौरे को सपा के बढ़ते दलित प्रेम के रूप में देखा जा रहा है। यही नहीं अखिलेश यादव कानपुर में खटीक सम्मेलन में भी शामिल हो चुके हैं। वैसे तो नगर निकाय चुनाव में सपा के पास खोने के लिए कुछ नहीं है, लेकिन बीजेपी के विकल्प बनने के लिए जरूर अहम हैं।
क्या मायावती दोहरा पाएंगी करिश्मा?
बसपा के लिए नगर निकाय का चुनाव काफी अहम है। बसपा यूपी में एक के बाद एक चुनाव लगातार हार रही है। ऐसे में यह चुनाव बसपा के लिए काफी महत्वपूर्ण है। बसपा ने 2017 के चुनाव में दलित-मुस्लिम समीकरण के जरिए काफी बेहतर प्रदर्शन किया था। बसपा अलीगढ़ और मेरठ में मेयर बनाने में सफल रही थी जबकि तीन सीटों पर दूसरे नंबर पर थी। बसपा इसी फॉर्मूले के जरिए इस बार के चुनावी रण में उतरने का फैसला किया है, लेकिन सीटों के आरक्षण में हुए फेरबदल ने उसके सारे अरमानों पर पानी फेर दिया है। इतना ही नहीं उमेश पाल हत्याकांड में अतीक अहमद के परिवार के नाम आने से मायावती का सारा खेल बिगड़ गया है। ऐसे में मायावती के लिए निकाय चुनाव में अपने करिश्मे को दोहरना बड़ी चुनौती होगी।
मायावती के लिए नगर निगम चुनाव काफी अहम है। बसपा इस चुनाव से यूपी की सियासत में फिर से वापसी करना चाहती है, क्योंकि इस चुनाव को 2024 के लोकसभा का लिटमस टेस्ट माना जा रहा है। ऐसे में देखा जाए तो मायावती के लिए 2024 का लोकसभा चुनाव काफी अहम है। 2019 के लोकसभा में सपा के साथ गठबंधन कर बसपा जीरो से 10 पर पहुंच गई थी, लेकिन मायावती ने 2024 में अकेले चुनावी मैदान में उतरने का ऐलान कर दिया है। ऐसे में बसपा इस बार के निकाय चुनाव में सफलता हासिल करने में कामयाब नहीं रहती हैं तो लोकसभा चुनाव में उनके लिए राह काफी कठिन हो जाएगी। ऐसे में देखा जाए तो बसपा के लिए यह चुनाव काफी अहम है?
क्या कांग्रेस कर पाएगी वापसी?
सूबे में शहरी क्षेत्रों में बीजेपी के बाद अगर किसी दल की पकड़ रही है तो वह है कांग्रेस थी। कांग्रेस यूपी के नगर निगम में अपने मेयर बनाती रही है, लेकिन पिछले चुनाव में कांग्रेस खाता भी नहीं खोल सकी थी। इतना ही नहीं नगर पालिका और नगर पंचायत के चुनाव में भी कांग्रेस का प्रदर्शन कोई खास नहीं रहा। कांग्रेस शहरी क्षेत्रों में अपने खोए हुए जनाधार को फिर से पाने के लिए हरसंभव कोशिशों में जुटी है, जिसके लिए इस चुनाव पर खास फोकस कर रखा है। प्रदेश अध्यक्ष बृजलाल खाबरी कमान संभालने के बाद से निकाय चुनाव की तैयारी में जुटे हैं। कांग्रेस इन दिनों शहरी क्षेत्रों में मुस्लिम मतों को साधने के लिए रोजा इफ्तार का आयोजन कर रही है। ऐसे में देखना है कि कांग्रेस क्या निकाय चुनाव के जरिए वापसी कर पाएगी?
शहरी क्षेत्र में किसकी है कितनी पकड़-
2017 के नगर निकाय चुनाव में भाजपा 16 नगर निगम में से 14 में अपना मेयर बनाने में कामयाब रही थी जबकि दो मेयर सीटें बसपा के खाते में गई थीं। वहीं नगर पालिका के नतीजे देखें तो 198 शहरों में से बीजेपी 67, सपा 45, बसपा 28 और निर्दलीय 58 जगह पर जीते थे। ऐसे ही नगर पंचायत अध्यक्ष के चुनाव को देखें तो 538 कस्बों में से बीजेपी 100, सपा 83, बसपा 74 और निर्दलीय 181 जगह जीत दर्ज की थी। वहीं, यूपी में नगर निकाय की सीटें इस बार बढ़कर कुल 760 हो गई है। इस बार उत्तर प्रदेश में 545 नगर पंचायत, 200 नगर पालिका परिषद और 17 नगर निगम की सीटें है।
शहरी क्षेत्रों में निर्णायक भूमिका में होंगे ये मतदाता-
शहरी इलाकों में भी जातीय समीकरण महत्वपूर्ण है। उत्तर प्रदेश के शहरी इलाके में सवर्ण और पंजाबी समुदाय के साथ दलित और मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका में हैं। नगर निगम से लेकर नगर पंचायत तक मुस्लिम मतदाता अहम रोल निभाते हैं। यूपी के शहरी इलाके में देखें तो मुस्लिम, ब्राह्मण, कायस्थ, वैश्य, पंजाबी समुदाय से साथ दलितों में खटिक और बाल्मिकी जैसी जातियां अहम भूमिका निभाती हैं। शहरी इलाकों में बीजेपी की स्थिति मजबूत मानी जाती है। बीजेपी ब्राह्मण-कायस्थ-वैश्य-पंजाबी और दलित समीकरण के जरिए शहरी इलाकों में जीत दर्ज करती रही है तो सपा और बसपा मुस्लिम वोटों के भरोसे अपना दमखम दिखाती है। दलित समुदाय शहरी इलाकों में बड़ी संख्या में नहीं है जबकि ओबीसी में यादव, कुर्मी, जाट जैसी नौकरी पेशा वाली जातियां है। इन्हीं जातियों के इर्द-गिर्द राजनीतिक दांव पेच खेले जा रहे हैं।
इस बार का निकाय चुनाव कई मामलों में महत्वपूर्ण है। शहरी क्षेत्रों में भाजपा क्या अपना प्रदर्शन दोहराने में सफल होगी। यह तो समय ही बताएगा, अब देखना यह होगा कि इस बार निकाय चुनाव में किसकी चाल कितनी सफल रहती है?