अमेरिका और ईरान के झगड़े में दांव पर भारत! यहां जानें पूरा मसला
हाल की कुछ घटनाओं ने यह चिंता पैदा कर दी है कि अगर इन दोनों के बीच बढ़ते तनाव को कम नहीं किया गया तो एक नया वैश्विक संकट दुनिया के तमाम देशों की मुश्किलें बढ़ाने आ सकता है।
लखनऊ: अमेरिका और ईरान के बीच खतरनाक स्तर तक पहुंच गए तनाव के बीच पूरी दुनिया खाड़ी क्षेत्र में एक और युद्ध की आशंका से भयभीत है।
हाल की कुछ घटनाओं ने यह चिंता पैदा कर दी है कि अगर इन दोनों के बीच बढ़ते तनाव को कम नहीं किया गया तो एक नया वैश्विक संकट दुनिया के तमाम देशों की मुश्किलें बढ़ाने आ सकता है।
चिंता खासतौर से भारत के लिए है, क्योंकि हमारा देश तेल आयात के लिए बहुत हद तक ईरान से होने वाली सप्लाई पर निर्भर रहा है, जो फिलहाल अमेरिका के दबाव के चलते ठप पड़ी है।
उधर कहा जा रहा है कि अगले साल अमेरिका में होने वाले राष्ट्रपति चुनावों के मद्देनजर वहां के मौजूदा राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपने मुल्क से दूर इलाके में कोई छोटे स्तर का युद्ध छिड़ते देखना पसंद करेंगे।
तो आइये हम आपको विस्तार से बताते है आखिर अमेरिका और ईरान के बीच बढ़ते तनाव की असली वजह क्या है, इसकी शुरुआत कब और कैसे हुई और भारत दोनों देशों के बीच इस झगड़े में दांव पर आखिर कैसे लग गया है?
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ईरान पर अमेरिका इतना तल्ख क्यों?
आखिर अमेरिका ईरान को लेकर इतना तल्ख क्यों है? खास कर ट्रंप सरकार। इसे समझने के लिए चार साल पुरानी एक डील को समझना जरूरी है।
असल में 2006 में ईरान ने अपने यहा पांच परमाणु रिएक्टर लगाए थे। इनमें से एक रूस की मदद से लगाया था। इसे लेकर कई देशों की नजरें टेढ़ी हुई थीं।
खास कर इजरायल और अमेरिका की। हालांकि ईरान बार-बार कह रहा कि ये परमाणु बिजली घर ऊर्जा के लिए है ना कि परमाणु हथियार बनाने के लिए।
इसके बाद 2015 में अमेरिका समेत कई देशों ने ईरान के साथ एक समझौता किया।ईरान के पास कुल पांच परमाणु रिएक्टर हैं। लेकिन सबसे ज्यादा विवाद रूस की मदद से बनाए गए बुशेर परमाणु प्लांट को लेकर था।
क्योंकि अमेरिका और इजरायल को शक था कि बुशेर परमाणु प्लांट में ईरान चोरी-छुपे बम परमाणु बना रहा है, जबकि ईरान बार-बार दुनिया को ये यकीन दिलाने की कोशिश कर रहा था कि परमाणु बिजली घर ईरान में लोगों को ऊर्जा मुहैया कराने के मकसद से बनाया गया है।
लेकिन अमेरिका और इजरायल ये मानने को तैयार नहीं हुए। दोनों देश इस बात पर अड़े थे कि ईरान परमाणु बम बना रहा है।
2015 में ईरान से किया ये समझौता
अमेरिका और इजरायल के शक जताने पर परमाणु प्लांट के इस्तेमाल के सिलसिले में फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन ने ईरान के साथ बातचीत शुरू की।
2006 में अमेरिका, चीन और रूस भी इस बातचीत में शामिल हो गए। आखिरकार नौ साल बाद 2015 में सभी देश ईरान के साथ एक समझौते पर पहुंचे।
समझौते के तहत ईरान अपने परमाणु प्लंट की तय समय सीमा पर नियमित जांच के लिए राजी हो गया ताकि ये पता चल सके कि ईरान के परमाणु प्लांट में हथियार नहीं बना रहा है।
इस समझौते के बाद ईरान पर से कई तरह के प्रतिबंध खत्म कर दिए गए। ईरानी अवाम में समझौते से खुश थे क्योंकि सालों तक आर्थिक प्रतिबंध के चलते ईरान में खाद्य सामग्री और दवाओं की भारी कमी हो गई थी।
समझौते के तहत ईरान के परमाणु प्लांट के जांच की जिम्मेदारी अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी यानी आईएइए(IAEA)को दे दी गई।
अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी को हर तीन महीने में अब रिपोर्ट देने को कहा गया। ये रिपोर्ट ईरानी के परमाणु प्लांट की जांच के बाद तैयार होती थी।
समझौते के बाद से अब तक आईएइए ने कभी भी अपनी रिपोर्ट में ईरान पर परमाणु प्लांट के गलत इस्तेमाल को लेकर शक नहीं जताया।
हालांकि इजरायल शुरू से ही इस समझौते के खिलाफ रहा है। इजरायल का मानना है कि ईरान का परमाणु प्लांट दुनिया के लिए खतरा है।
मगर तब के अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा इजरायल की बात से सहमत नहीं थे।
लेकिन डोनाल्ड ट्रंप के आने के बाद इजरायल ने फिर से इस समझौते के मुद्दे को उठाया।
क्योंकि 2016 के अमेरिकी चुनाव में ट्रंप ईरान समझौते का मुद्दा उठा कर इसे अब तक की सबसे बुरी डील बता चुके थे।
ट्रम्प ने तोड़ा समझौता
समझौते को लेकर ट्रंप का रुख पहले से ही साफ था।
लिहाज़ा 8 मई 2018 को अमेरिका अचानक इस समझौते से अलग हो गया। ट्रंप ने आरोप लगाया कि ईरान का वादा झूठा था।
इस सिलसिले में ट्रंप ने इजरायल की ओर से मुहैया कराए गए कुछ खुफिया दस्तावेजों का जिक्र करते हुए कहा कि इस बात के पक्के सबूत हैं कि ईरान परमाणु हथियार बनाने का काम रहा है।
आईएइए ने दावे को किया था खारिज
हालांकि आईएइए (IAEA )ने अमेरिका के इस दावे को कारिज करते हुए साफ कहा कि 2009 के बाद से ईरान में परमाणु हथियार बनाने को लेकर कभी भी कोई सबूत नहीं मिला है।
इतना ही नहीं अमेरिका के अलग होने के बावजूद रूस, चीन, ब्रिटेन फ्रांस और जर्मनी अब भी समझौते के साथ हैं और आगे भी समझौते को जारी रखने की बात कह रहे हैं।
इस कदम से बौखलाया हुआ है ईरान
ईरान ने भी समझौता जारी रखने का ऐलान किया है और साथ ही इस बात पर भी तैयार हो गया है कि वो यूरेनियम की मात्रा सीमित रखेगा। इससे देश के लिए सिर्फ ऊर्जा पैदा की जा सके ना कि परमाणु हथियार बना सकें।
अमेरिकी ड्रोन को मार गिराने के ईरान के कदम के बाद से अमेरिका लगातार ईरान पर चढ़ाई करने का मौका ढूंढ रहा है। दूसरी तरफ ईरान के तेवर भी सख्त हैं। लिहाज़ा खतरा इस बात का है कि कहीं सचमुच जंग शुरू ना हो जाए।
1979 में पहली बार ऐसे हुई थी दुश्मनी की शुरुआत
साल 1979 में ईरान को अमेरिका के बैन का पहली बार सामना करना पड़ा जब कुछ ईरानी छात्रों ने तेहरान में अमेरिकी ऐंबैसी में घुसकर डिप्लोमैट्स को बंधक बना लिया।
अमेरिका ने ईरानी सामान का अमेरिका में आयात बंद कर दिया। मार्च 1995 में राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने अमेरिकी कंपनियों को ईरान के तेल, व्यापार और गैस में निवेश करने से रोक दिया।
अमेरिका यहीं नहीं रुका बल्कि अप्रैल 1996 में कांग्रेस ने एक कानून पास कर फॉरन कंपनियों के ईरान के एनर्जी सेक्टर में 20 मिलियन डॉलर से ज्यादा निवेश पर बैन लगा दिया।
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ईरान में तख्तापलट कराने का आरोप
आरोप है कि साल 1953 में ईरान के प्रधानमंत्री को अमेरिका और ब्रिटिश इंटेलिजेंस एजेंसियों की मदद से तख्तापलट कर लोकतांत्रिक तरीके से धर्मनिरपेक्ष प्रधानमंत्री मोहम्मद मोस्सादेक को हटा दिया।
मोस्साद ईरान के तेल उद्योग का राष्ट्रीयकरण करना चाहते थे।
उनकी जगह अमेरिका से समर्थन प्राप्त मोहम्मद रजा पहलवी ने ली लेकिन देश की जनता उनके खिलाफ सड़कों पर उतर आई। जनवरी 1979 में विरोध के असर से उन्हें देश छोड़ना पड़ा।
इसके दो हफ्ते बाद ही देश-निकाला झेल रहे इस्लामिक धर्मगुरु अयातुल्लाह खोमैनी देश वापस लौटे और ईरान इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान बना। इसी के साथ 2500 साल से चली आ रही राजशाही खत्म हो गई।
अमेरिका ने बदला फैसला
हालात कितने नाजुक हैं, इसका अंदाजा अमरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के एक सनसनीखेज खुलासे से होता है।
खुद ट्रंप ने कहा है कि अमेरिकी सेना ने ईरान के तीन ठिकानों पर हमला करने की पूरी तैयारी कर ली थी। लेकिन हमला होने से सिर्फ 10 मिनट पहले उन्होंने अपना फैसला बदल दिया।
डोनाल्ड ट्रंप ने इसकी वजह बताते हुए कहा, ''मैंने पूछा कि हमले में कितने लोग मारे जाएंगे? सेना के जनरल ने पहले मुझसे थोड़ा वक्त मांगा।
फिर मुझे बताया कि हमले में क़रीब डेढ़ सौ लोगों की मौत हो सकती है। मैंने इस पर फिर से सोचा।
मैंने कहा कि उन्होंने एक मानव रहित ड्रोन को उड़ा दिया है और इसके जवाब में हम आधे घंटे में 150 लोगों की मौत के ज़िम्मेदार होंगे। मैंने कहा हमला रोक दो। "
जंग अब तक टली हुई है
अब अगर अमेरिका ईरान के तीन ठिकानों पर हमला कर देता तो क्या होता? ईरान जवाबी हमला बोलता और रूस ईरान की तरफ से जंग में कूद पड़ता। जाहिर है अंजाम भयानक होता। मगर खतरा अब भी टला नहीं है। अमेरिका और ईरान अब भी एक-दूसरे को धौंस दे रहे हैं।
धमकियों का सिलसिला रोजाना चल रहा है। अमेरिका अब तक ईरान पर हमला बोल भी चुका होता। मगर खुद अमेरिका के मित्र देश ईरान के मुद्दे पर अमेरिका के साथ नहीं हैं।
ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, चीन, रूस और यूरोपियन यूनियन अमेरिकी कार्रवाई के विरोध में नजर आ रहे हैं। एक अकेला इजरायल है जो इस मुद्दे पर अमेरिका के साथ खड़ा है। यही वजह है कि जंग अब तक टली हुई है।
सवाल है कि अचानक ऐसा क्या हो गया है जो दुनिया पर फिर से वर्ल्ड वॉर का खतरा मंडराने लगा है?
इसे समझने के लिए सबसे पहले तीन साल पहले का ट्रंप का वो बयान जानना चाहिए। ट्रंप ने ये बात अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव के दौरान चुनावी प्रचार में कही थी।
ईरान और अमेरिका के बीच सऊदी अरब बड़ा खिलाड़ी
माना जाता है कि मध्य एशिया में अमेरिका का सबसे बड़ा साथी सऊदी अरब है। वहीं, सऊदी सुन्नी बहुल देश है जबकि ईरान शिया बहुल। दोनों के बीच धार्मिक लड़ाई लंबे समय से चली आ रही है।
इसके अलावा तेल की उपलब्धता भी दोनों के बीच एक बड़ी भूमिका निभाती है। माना जाता है कि प्रभुत्व की इस प्रतिस्पर्धा में सऊदी का साथ देने के कारण अमेरिका ईरान पर सख्त रवैया अपनाता है।
चुनाव जीतने के लिए क्या करेंगे ट्रंप?
तीन साल पहले ही डोनाल्ड ट्रंप ने ये साफ कर दिया था कि परमाणु रिएक्टर को लेकर बराक ओबामा और पांच दूसरे देशों का ईरान के साथ समझौता वाहियात है। इससे कुछ नहीं होने वाला।
ट्रंप ने तब अपने चुनावी प्रचार में ये वादा भी किया था कि अगर वो राष्ट्रपति बने तो ईरान के साथ हुआ समझौता खत्म कर देंगे, और 8 मई 2018 को उन्होंने ये समझौता खत्म भी कर दिया।
याद रखें, अमेरिका में 2020 में फिर से चुनाव है, और ट्रंप चुनावी मैदान में हैं।
ईरान पर हमला कर अमेरिकी वोटर को राष्ट्रवाद के मुद्दे पर एकजुट कर वो फिर से चुनाव जीतना चाहते हैं, और बस इसीलिए चुनाव से ऐन पहले ईरान का मुद्दा गरम हो उठा है।
हालांकि जिस तर्क के साथ ट्रंप ईरान के खिलाफ खड़े हैं, उस तर्क को उनके अपने ही मित्र देश गलत मान रहे हैं।
लिहाजा अफगान युद्ध, खाड़ी युद्ध, या फिर इराक और सीरिया युद्ध की तरह ईरान को लेकर इस बार अमेरिका को किसी भी मित्र देश का समर्थन नहीं मिल रहा। यानी ईरान के मामले में अमेरिका अलग-थलग पड़ा है।
दो देशों के झगड़े में दांव पर भारत ?
अमेरिका के कदम से भारत के लिए कुछ मुश्किलें खड़ी हो गई हैं।
दरअसल, अमेरिका भारत पर ईरान से तेल नहीं लेने का दबाव बना रहा है। ईरान से तेल लेने वाला भारत तीसरा आयातक है। ऐसे में वहां से तेल नहीं लेने से भारतीय अर्थव्यवस्था पर बड़ा असर पड़ सकता है।
पहले से ही देश में तेल की कीमतों को लेकर नाराजगी है। ईरान पर कुछ प्रतिबंध 6 अगस्त को लागू हो गए थे। तेल और बैंकिंग सेक्टर्स को प्रभावित करने वाले प्रतिबंध चार नवंबर से लागू होंगे।
इन प्रतिबंधों के लागू होने के बाद ईरान से तेल खरीदने के लिए डॉलर में भुगतान करना मुश्किल हो जाएगा।
हालांकि, रूस और सऊदी अरब ने भी तेल का उत्पादन बढ़ा दिया था।
सऊदी अरब ने कहा है कि वह भारत की ऊर्जा जरूरतों को समझता है और इसे पूरी करने के लिए वह हरसंभव कोशिश करेगा।
भारत ने 2018-19 में ईरान से 25 मिलियन टन क्रूड का कॉन्ट्रैक्ट किया था, यह पिछले साल 2017-18 के 22.6 मिलियन टन की तुलना में ज्यादा था।
अब अगले महीने से ईरान पर प्रतिबंध लागू होने से स्थितियां बदल जाएंगी। भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल खपत करने वाला देश है। भारत अपनी तेल जरूरतों का 80 फीसदी आयात करता है।
इराक और सऊदी अरब के बाद ईरान भारत को तेल सप्लाई करने वाला तीसरा बड़ा देश है। ईरान भारत की तेल जरूरतों का 10 फीसदी हिस्सा पूरी करता है।
चाबहार पोर्ट भी अहम
इसके अलावा, भारत ने ईरान के चाबहार पोर्ट में करोड़ों डॉलर का निवेश कर रखा है। भारत की कोशिश है कि ईरान के रास्ते अफगानिस्तान तक सीधा संपर्क स्थापित किया जा सके। इसके लिए भारत ईरान से अफगानिस्तान तक सड़क बनाने में मदद कर रहा है।
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