तबाही की दरारः आने वाला है बहुत बुरा समय, क्या ये है प्रलय के करीब होने के संकेत

ब्रिटिश अंटार्कटिक सर्वे (बीएएस) के वैज्ञानिकों को इसके पूरी तरह अलग होने की उम्मीद थी। बैस के निदेशक डेम जेन फ्रांसिस आने वाले हफ्तों या महीनों में यह हिमखंड दूर जा सकता है, या वहीं पर घूमता रह सकता है और ब्रून आइसबर्ग के करीब रह सकता है।

Update:2021-03-01 13:17 IST

रामकृष्ण वाजपेयी

लखनऊ: अंटार्कटिका में एक विशालकाय हिमखंड के सरक कर समुद्र में तैरने की खबर सब को हिला देने वाली है। इसका आकार दिल्ली से कुछ बड़ा है। मैनहट्टन के आकार का 20 गुना से अधिक है। यह टुकड़ा नवंबर 2020 में बर्फ के पहाड़ पर बनी एक बड़ी दरार के बाद धीरे धीर सरकना शुरू हुआ और शुक्रवार 26 फरवरी को सुबह पूरी तरह अलग हो गया।

हिमखंड बर्फ का वह टूटा टुकड़ा, जो ग्लेशियरों अलग हो गया

ब्रिटिश अंटार्कटिक सर्वे (बीएएस) के वैज्ञानिकों को इसके पूरी तरह अलग होने की उम्मीद थी। बैस के निदेशक डेम जेन फ्रांसिस आने वाले हफ्तों या महीनों में यह हिमखंड दूर जा सकता है, या वहीं पर घूमता रह सकता है और ब्रून आइसबर्ग के करीब रह सकता है।" मोटे तौर पर हिमखंड बर्फ का वह टूटा टुकड़ा है जो ग्लेशियरों अलग हो गया है और अब खुले पानी में तैर रहा है।

490 वर्ग मील (1,270 वर्ग किमी.) के आकर वाला आइसबर्ग

वैज्ञानिकों के मुताबिक यह दरार जनवरी में प्रति दिन लगभग 0.6 मील (1 किमी) की दर से पूर्वोत्तर की ओर बढ़ी, लेकिन 26 फरवरी की सुबह, दरार ने कुछ ही घंटों में कुछ सौ मीटर चौड़ा कर दिया। बयान के अनुसार, यह बर्फ विभाजन एक प्राकृतिक प्रक्रिया के कारण हुआ और इस बात का कोई सबूत नहीं है कि जलवायु परिवर्तन ने एक भूमिका निभाई। 492 फुट मोटी या 150 मीटर ऊंचा बर्फ यह पहाड़ प्रति वर्ष 1.2 मील (2 किमी) पश्चिम में सरक रहा था। हालाँकि, यह आइसबर्ग बहुत बड़ा है जिसका अनुमानित आकार लगभग 490 वर्ग मील (1,270 वर्ग किमी) है।

फिर भी हमें सोचने की जरूरत है कि पिछली बार जो प्रलय आई थी वह जलप्रलय ही थी। इस बार भी हम तेजी से जल प्रलय की ओर बढ़ रहे हैं। इसलिए नेचर के संकेतों को पहचानने की जरूरत है।

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पूरी दुनिया के इससे प्रभावित होने का अनुमान

वैज्ञानिकों के अनुसार भी पूरी दुनिया के इससे प्रभावित होने का अनुमान है। हालांकि अभी दावे से कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन अगर हिमखंडों का इसी तरह पिघलना जारी रहा तो समुद्र के जलस्तर में अभूतपूर्व वृद्धि हो सकती है और दुनिया के नक्शे से तमाम देशों और द्वीपों का नाम गायब हो सकता है। इसे देखकर ये सवाल उठने लगा है कि क्या जलवायु आपातकाल घोषित करने का समय आ गया है? हालांकि किस स्तर पर और कितनी वैश्विक तापमान में वृद्धि हुई है, कोई भी इस बारे में पूरी तरह से निश्चित नहीं है। आसन्न खतरा आने में सदियों लग सकती हैं या यह फिर यह बहुत करीब भी हो सकता है।

सैकड़ों या हजारों सालों के बाद होता है ऐसा परिवर्तन

एक बात अब सबको समझ लेनी चाहिए कि जलवायु परिवर्तन के बदलाव की गति बदलने के लिए कोई वैक्सीन नहीं है, यह प्रक्रिया सैकड़ों या हजारों सालों के बाद दिखायी देती है और जब हम एक बार इसके सीमा बिंदुओं को पार कर लेते हैं तो सुधार की प्रक्रिया भी आज या दस बीस साल में असर नहीं दिखाई देगी। इसे भी सैकड़ों या हजारों साल लगेंगे। तब तक इस तरह का क्रम अनवरत जारी रहेगा।

 

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वैज्ञानिकों का कहना है कि हमें अब अपनी जलवायु पर फोकस करके कार्रवाई करने की जरूरत है। क्योंकि अलार्मिंग स्थिति बेहद करीब है। जलवायु परिवर्तन धीमे-धीमे आने वाला बहुत दूर का खतरा है यह सोच बदलने की जरूरत है।

ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करना होगा

वैज्ञानिकों के दृष्टिकोण में हमें ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए अभी से योजना बनाने की जरूरत है, लेकिन साथ ही हमें जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी प्रभावों को ध्यान में रखकर योजना बनाने की भी आवश्यकता है, जैसे कि सभी को भोजन उपलब्ध कराने की क्षमता, अप्रत्याशित बाढ़ के जोखिम को प्रबंधित करने की योजना आदि।

वैज्ञानिकों के मुताबिक क्लाइमेट सीमा बिंदुओं को तोड़ना प्रलयकारी होगा और संभावित रूप से COVID-19 से कहीं अधिक विनाशकारी। कुछ लोगों को इसमें मजा नहीं आता लेकिन अभी जैसे उत्तराखंड में तबाही हुई। करीब एक दर्जन और झीलें वहां अलार्म कर रही है। पहाड़ों पर बर्फ पिघलने की प्रक्रिया का तेज होना खतरनाक है।

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तबाही के मुहाने पर कड़ी आज समूची मानवजाति

एक बड़ी तबाही के मुहाने पर आज समूची मानवजाति खड़ी है। इसे हंसी में उड़ाना हमारी जलवायु परिवर्तन पर तत्काल प्रतिक्रिया करने की भावना को दबाता है, जैसे कि हमने महामारी के लिए किया है, हमें इस बारे में अधिक से अधिक बात करनी चाहिए कि पहले क्या हुआ है और हम नहीं चेते तो फिर से होगा। अन्यथा हम अपनी धरती के साथ एक जुआ खेलना जारी रखेंगे और अंत में, केवल हारे हुए - होंगे हम।

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