अमेरिकी राष्ट्रपति बिडेनः चीन से मुकाबले में असली परीक्षा, आसान नहीं संतुलन

अमेरिका में अब ये आम सहमति है कि चीन को ढेर सारी रियायतें देकर उसमें बदलाव लाने की नीति पूरी तरह नाकाम रही है। अमेरिकी विशेषज्ञों को इस बात की आशंका है कि अगर अब भी चीन की कम्युनिस्ट पार्टी पर लगाम नहीं लगाई गई, तो चीन अंतरराष्ट्रीय मामलों में अमेरिका को दोयम दर्जे की हस्ती बना देगा।

Update:2020-11-07 23:06 IST
US President Biden will face real test against China, not easy balance

नीलमणि लाल

प्रेसिडेंट बनने के बाद जो बिडेन के सामने सबसे बड़ी चुनौती चीन से निपटने की होगी। दुनिया में अमेरिका का आर्थिक और तकनीकी प्रभाव कम होता जा रहा है। डोनाल्ड ट्रम्प ने इसी मसले को बहुत जोरदार तरीके से उठाया था और चीन को सफल न होने देने के लिए हर संभव कोशिश करने की बात कही थी और इस बारे में तमाम कदम भी उठाये थे। चीन जिस तरह से अमेरिका की बादशाहत को चुनौती दे रहा है उस हालात में अमेरिका के नए राष्ट्रपति के लिए विकल्पों का चुनाव बेहद मुश्किल हो जाएगा। बिडेन के लिए चीन के प्रति अमेरिका का रवैया बदलकर अमन की बात कर पाना बेहद मुश्किल होगा।

चीन के ख़िलाफ अमेरिका में फिलवक्त प्रचार का माहौल अपने शिखर पर है। ये वैसा ही माहौल है जैसा कि पहले विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन में जर्मनी के खिलाफ देखा गया था। तब के ब्रिटेन के नेताओं ने जर्मनी को एक ऐसे राष्ट्र के तौर पर प्रस्तुत किया था, जो किसी भी तरह का समझौता करने के लिए तैयार ही नहीं है। चीन के ख़िलाफ़ आज के अमेरिका में वैसा ही माहौल है।

चीन रहा बड़ा चुनावी मुद्दा

इस बार अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में चीन एक बड़ा मुद्दा रहा है। रिपब्लिकन पार्टी हो या डेमोक्रेटिक पार्टी, दोनों ही पार्टियों के नेता चीन को एक विलेन के तौर पर पेश करने में पूरी ताक़त से जुटे रहे। जो बिडेन ने भी चीन के ख़िलाफ़ बयानबाज़ी की। शिन्जियांग के उइघुर मुसलमानों पर चीन के ज़ुल्मों और हांगकांग की स्वायत्तता में बदलाव करने का हवाला देते हुए बिडेन ने कहा कि, ‘शी जिनपिंग एक दुष्ट व्यक्ति हैं। उनके अंदर लोकतंत्र का एक रेशा तक नहीं

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अमेरिका में अब ये आम सहमति है कि चीन को ढेर सारी रियायतें देकर उसमें बदलाव लाने की नीति पूरी तरह नाकाम रही है। अमेरिकी विशेषज्ञों को इस बात की आशंका है कि अगर अब भी चीन की कम्युनिस्ट पार्टी पर लगाम नहीं लगाई गई, तो चीन अंतरराष्ट्रीय मामलों में अमेरिका को दोयम दर्जे की हस्ती बना देगा।

ओबामा की नरम नीति

बराक ओबामा ने चीन के प्रति नरम रवैया अपनाया था और तमाम विवादों का समाधान बातचीत से निकालने की कोशिश की थी। लेकिन, डोनाल्ड ट्रंप ने 2017 में सत्ता में आने के साथ ही चीन के ख़िलाफ़ बेहद आक्रामक रुख़ अख़्तियार कर लिया।

ट्रंप ने चीन के साथ व्यापार युद्ध की शुरुआत की। ट्रंप ने कूटनीतिक नियमों और परंपराओं को ताक पर रखते हुए चीन के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया। अब बिडेन को इसी दिशा में आगे बढ़ना चाहिए लेकिन वो किस हद तक ऐसा कर पाएंगे ये देखने वाली बात होगी।

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उठा-पटक भरे कई वर्षों के बाद अमेरिका की विदेश नीति भी लड़खड़ा रही है। ऐसे में सवाल है कि क्या बतौर प्रेसिडेंट बिडेन अमेरिका का पतन रोक पाने में सफल हो सकेंगे? ये तय है कि अमेरिका की कमान संभालने पर बिडेन अमेरिका के प्रभुत्व वाली व्यवस्था को ही आगे बढ़ाने में यक़ीन रखेंगे जिसके तहत अमेरिका पिछले कई दशकों से उदारवादी विश्व व्यवस्था को चलाता आया है।

इस नीति में सहयोग और मुक़ाबले के माध्यम से अमेरिका की विदेश नीति के लक्ष्यों को हासिल करने की कोशिश की जाती है। बिडेन पारंपरिक कूटनीतिक रास्ते पर चलने को ही प्राथमिकता देंगे। वो अपने साथी देशों और दुश्मनों के साथ ट्रम्प जैसा आक्रामक रुख अपनाने की नीति पर नहीं चलेंगे।

संभावना इस बात की

इस बात की पूरी संभावना है कि वो लोकतांत्रिक तरीक़े अपनाकर, मानवाधिकारों का शोर मचाकर चीन की कमियों को उजागर करेंगे। बिडेन इस बात की पूरी कोशिश करेंगे कि वो दक्षिणी चीन सागर में चीन को पीछे हटने को मजबूर करें। इसके लिए वो क्वाड यानी भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ सहयोग को बढ़ावा देंगे।

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जहां तक आर्थिक मोर्चे की बात है, तो बिडेन ने पहले ही ये घोषणा कर दी है कि वो चीन पर ट्रंप प्रशासन द्वारा लगाए गए व्यापार कर की नए सिरे से समीक्षा करेंगे। बिडेन का मानना है कि व्यापार युद्ध से चीन के साथ साथ अमेरिका को भी भारी नुक़सान हुआ है। अमेरिका का निर्माण क्षेत्र सुस्त हो गया है, कृषि क्षेत्र को अरबों डॉलर का नुक़सान हुआ है और इसकी भरपाई अमेरिकी टैक्स दाताओं को करनी पड़ी है।

संभावना है कि बिडेन अमेरिका के सहयोगी और साझेदार देशों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करेंगे कि वो चीन के ख़िलाफ़ संघर्ष के मोर्चे खोलें। इस बात की पूरी संभावना है कि बिडेन की नीति भारत जैसे देशों पर ये दबाव बनाने की होगी कि वो चीन के ख़िलाफ़ और आक्रामक रुख़ अपनाएं।

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