TRENDING TAGS :
देश की पहली महिला PM इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि आज, जानिए रोचक बातें
गरीबी हटाओ के तहत कार्यक्रम, हालाँकि स्थानीय रूपसे चलाये गये, परन्तु उनका वित्तपोषण, विकास, पर्यवेक्षण एवं कर्मिकरण नई दिल्ली तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस दल द्वारा किया गया।
नई दिल्ली: आज देश की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि है। इंदिरा गांधी का पूरा नाम इंदिरा प्रियदर्शनी गांधी था, जिन्हें देश की पहली महिला प्रधानमंत्री होने का गौरव प्राप्त है। यही नहीं, इंदिरा भारत की प्रथम और अब तक एकमात्र महिला प्रधानमंत्री रही हैं। चूंकि, आज उनकी पुण्यतिथि है, इसलिए हम आपको उनके बारे कुछ रोचक बातें बताएंगे।
यह भी पढ़ें: लगा बड़ा झटका! वरिष्ठ नेता का निधन, 3 बार राज्यसभा और 2 बार लोकसभा के सदस्य रहे
अटल जी की तरफ बहुत प्यार से देखती थीं इंदिरा गांधी
देश में कई सारे लोग वर्षों से कहते रहे हैं कि वर्ष 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद संसद में विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने पीएम इंदिरा गांधी को ‘दुर्गा’ कहकर संबोधित किया था।
यह भी पढ़ें: लगा बड़ा झटका! वरिष्ठ नेता का निधन, 3 बार राज्यसभा और 2 बार लोकसभा के सदस्य रहे
यही नहीं, इसी वर्ष अटल जी पीएम इंदिरा गांधी को लेकर एक और बात कही थी। बात 1971 में हुए लोकसभा इलेक्शन की है। तब जनसंघ सांसदों की संख्या 22 ही रह गई थी। सांसद थे तो 35 लेकिन बचे 22 ही थे।
यह भी पढ़ें: पाकिस्तान में मौत का तांडव! आग में जले 10 की दर्दनाक मौत, ट्रेन में बड़ा हादसा
ऐसे में जब अटल जी से सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता रहे डॉ नारायण माधव घटाटे ने पूछ लिया कि इंदिरा जी की क्या प्रतिक्रिया है? इस सवाल पर पहले तो अटल जी हंस दिए। उसके बाद हंसते हुए ही बोल भी दिए कि, ‘अभी तो हमारी तरफ बहुत प्यार से देखती हैं।’
यह भी पढ़ें: PM मोदी ने स्टैचू ऑफ यूनिटी पर सरदार पटेल को दी श्रद्धांजलि, दिलाई एकता की शपथ
जब अटल जी इस घटना के दो दशक बाद पीएम बन गए, तो उन्होंने एक इंटरव्यू में दुर्गा वाले कथन से साफ इनकार कर दिया। अटल ने तब कहा, मैंने इंदिरा के लिए दुर्गा उपमा का इस्तेमाल नहीं किया था। कुछ अखबारों ने कही-सुनी बातों के आधार पर यह खबर छाप दी। मैंने अगले दिन इसका खंडन किया, तो उसे कोने में समेट दिया गया।
बेटे संजय ने मां इंदिरा को सबके सामने मारा था थप्पड़
इंदिरा गांधी को भारतीय राजनीति के इतिहास में विशेष योगदान के लिए जाना जाता है। उनकी गिनती देश के एक तेज तर्रार और तुरंत फैसले लेने वाले नेता के तौर पर भी होती है। उनके जीवन से जुड़े कई यादगार किस्से लोगों के मुंह से आज भी सुनने को मिलते है। उनमें से एक किस्सा ऐसा भी सुनने में आता है कि एक बार संजय गांधी ने इंदिरा गांधी के साथ बदतमीजी की सभी हदें पार कर दी थीं। संजय ने सबके सामने अपनी मां इंदिरा को थप्पड़ मारा था।
यह भी पढ़ें: अयोध्या केस पर SC का फैसला सभी को खुले मन से स्वीकार करना चाहिए: आरएसएस
बता दें, स्क्रॉल की रिपोर्ट की माने तो जब देश के अंदर इमरजेंसी की घोषणा हुई तो पुलित्जर पुरस्कार विजेता पत्रकार लुईस एम सिमंस द वाशिंगटन पोस्ट में बतौर संवाददाता दिल्ली में कार्यरत थे। उस वक्त अमेरिका के प्रतिष्ठित अखबार द वाशिंगटन पोस्ट में उनका एक लेख प्राकशित हुआ।
इस लेख में लुईस एम सिमंस ने लिखा था कि एक डिनर पार्टी के दौरान संजय गांधी ने अपनी मां और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को कई थप्पड़ मारे। स्क्रोलडॉटइन को ईमेल पर दिए एक साक्षात्कार में सिमंस ने ये जानकारी दी थी।
‘द इमरजेंसी: अ पर्सनल हिस्ट्री’ बुक में भी इस घटना का जिक्र
वरिष्ठ पत्रकार कूमी कपूर ने अपनी एक हालिया किताब द इमरजेंसी: अ पर्सनल हिस्ट्री में लिखा है कि यह खबर जंगल में आग की तरह फैली थी। सेंसरशिप की वजह से किसी भारतीय अखबार ने इस खबर पर कुछ नहीं लिखा था। इसे देखते हुए खबर के इस कदर असर से क्या आपको हैरानी हुई थी?
यह भी पढ़ें: 31 अक्टूबर: आखिर क्या हुआ था इंदिरा की हत्या वाले दिन, यहां जानें सबकुछ?
मुझे हैरानी नहीं हुई थी क्योंकि मैं जानता हूं कि भारतीयों को चटखारे लेना खूब पसंद है। इस खबर को दूसरे विदेशी मीडिया समूहों ने भी खूब चलाया। न्यूयॉर्कर मैगजीन ने इस पर प्रतिष्ठित पत्रकार वेद मेहता का एक लेख भी छापा था।
इंदिरा गांधी का निजी जीवन
इंदिरा को उनका “गांधी” उपनाम फिरोज़ गांधी से विवाह के पश्चात मिला था। इनका मोहनदास करमचंद गांधी से न तो खून का और न ही शादी के द्वारा कोई रिश्ता था। इनके पितामह मोतीलाल नेहरू एक प्रमुख भारतीय राष्ट्रवादी नेता थे। इनके पिता जवाहरलाल नेहरू भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के एक प्रमुख व्यक्तित्व थे और आज़ाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री रहे। बता दें, वह पंडित जवाहरलाल नेहरू और उनकी पत्नी कमला नेहरू की एकमात्र संतान थीं।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अध्यक्ष
1959 और 1960 के दौरान इंदिरा चुनाव लड़ीं और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गयीं। उनका कार्यकाल घटनाविहीन था। वो अपने पिता के कर्मचारियों के प्रमुख की भूमिका निभा रहीं थीं।
नेहरू का देहांत 27 मई, 1964 को हुआ और इंदिरा नए प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के प्रेरणा पर चुनाव लड़ीं और तत्काल सूचना और प्रसारण मंत्री के लिए नियुक्त हो, सरकार में शामिल हुईं।
हिन्दी के राष्ट्रभाषा बनने के मुद्दे पर दक्षिण के गैर हिन्दीभाषी राज्यों में दंगा छिड़ने पर वह चेन्नई गईं। वहाँ उन्होंने सरकारी अधिकारियों के साथ विचारविमर्श किया, समुदाय के नेताओं के गुस्से को प्रशमित किया और प्रभावित क्षेत्रों के पुनर्निर्माण प्रयासों की देखरेख की।
यह भी पढ़ें: सरदार वल्लभ भाई की वसीयत और सुभाष चंद्र बोस में क्या है संबंध…जानें यहां
शास्त्री एवं वरिष्ठ मंत्रीगण उनके इस तरह के प्रयासों की कमी के लिए शर्मिंदा थे। मंत्री गांधी के पदक्षेप सम्भवत सीधे शास्त्री के या अपने खुद के राजनैतिक ऊंचाई पाने के उद्देश्य से नहीं थे। कथित रूप से उनका मंत्रालय के दैनिक कामकाज में उत्साह का अभाव था लेकिन वो संवादमाध्यमोन्मुख तथा राजनीति और छबि तैयार करने के कला में दक्ष थीं।
जब 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध चल रहा था, इंदिरा श्रीनगर सीमा क्षेत्र में उपस्थित थी। हालांकि सेना ने चेतावनी दी थी कि पाकिस्तानी अनुप्रवेशकारी शहर के बहुत ही करीब तीब्र गति से पहुँच चुके हैं, उन्होंने अपने को जम्मू या दिल्ली में पुनःस्थापन का प्रस्ताव नामंजूर कर दिया और उल्टे स्थानीय सरकार का चक्कर लगाती रहीं और संवाद माध्यमों के ध्यानाकर्षण को स्वागत किया।
यह भी पढ़ें: मझधार में क्रिकेटर शाकिब का कॅरियर, वापसी करना मुश्किल…
ताशकंद में सोवियत मध्यस्थता में पाकिस्तान के अयूब खान के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर करने के कुछ घंटे बाद ही लालबहादुर शास्त्री का निधन हो गया। तब कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष के। कामराज ने शास्त्री के आकस्मिक निधन के बाद इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
विदेश तथा घरेलू नीति और राष्ट्रीय सुरक्षा
सन् 1966 में जब श्रीमती गांधी प्रधानमंत्री बनीं, कांग्रेस दो गुटों में विभाजित हो चुकी थी, श्रीमती गांधी के नेतृत्व में समाजवादी और मोरारजी देसाई के नेतृत्व में रूढीवादी। मोरारजी देसाई उन्हें “गूंगी गुड़िया” कहा करते थे। 1967 के चुनाव में आंतरिक समस्याएँ उभरी जहां कांग्रेस लगभग 60 सीटें खोकर 545 सीटोंवाली लोक सभा में 297 आसन प्राप्त किए। उन्हें देसाई को भारत के भारत के उप प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री के रूप में लेना पड़ा।
1969 में देसाई के साथ अनेक मुददों पर असहमति के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस विभाजित हो गयी। वे समाजवादियों एवं साम्यवादी दलों से समर्थन पाकर अगले दो वर्षों तक शासन चलाई। उसी वर्ष जुलाई 1969 को उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया। 1971 में बांग्लादेशी शरणार्थी समस्या हल करने के लिए उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान की ओर से, जो अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे थे, पाकिस्तान पर युद्ध घोषित कर दिया।
यह भी पढ़ें: इससे पहले नहीं देखी होगी ऐसी भीषण आग, जान बचाकर भागे ये हॉलीवुड स्टार्स
1971 के युद्ध के दौरान राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के अधीन अमेरिका अपने सातवें बेड़े को भारत को पूर्वी पाकिस्तान से दूर रहने के लिए यह वजह दिखाते हुए कि पश्चिमी पाकिस्तान के खिलाफ एक व्यापक हमला विशेष रूप सेकश्मीर के सीमाक्षेत्र के मुद्दे को लेकर हो सकती है, चेतावनी के रूप में बंगाल की खाड़ीमें भेजा।
यह कदम प्रथम विश्व से भारत को विमुख कर दिया था और प्रधानमंत्री गांधी ने अब तेजी के साथ एक पूर्व सतर्कतापूर्ण राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति को नई दिशा दी। भारत और सोवियत संघ पहले ही मित्रता और आपसी सहयोग संधि पर हस्ताक्षर किए थे, जिसके परिणामस्वरूप 1971 के युद्ध में भारत की जीत में राजनैतिक और सैन्य समर्थन का पर्याप्त योगदान रहा।
1971 के चुनाव में विजय और द्वितीय कार्यकाल (1971- 1975)
गांधी की सरकार को उनकी 1971 के जबरदस्त जनादेश के बाद प्रमुख कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। कांग्रेस पार्टी की आंतरिक संरचना इसके असंख्य विभाजन के फलस्वरूप कमजोर पड़ने से चुनाव में भाग्य निर्धारण के लिए पूरी तरह से उनके नेतृत्व पर निर्भरशील हो गई थी। गांधी का सन् 1971 की तैयारी में नारे का विषय था गरीबी हटाओ।
यह नारा और प्रस्तावित गरीबी हटाओ कार्यक्रम का खाका, जो इसके साथ आया, गांधी को ग्रामीण और शहरी गरीबों पर आधारित एक स्वतंत्र राष्ट्रीय समर्थन देने के लिए तैयार किए गए थे।
यह भी पढ़ें: तिहाड़ जेल में बंद चिदंबरम की जान को इससे है खतरा, मचा हड़कंप
इस तरह उन्हें प्रमुख ग्रामीण जातियों के दबदबे में रहे राज्य और स्थानीय सरकारों एवं शहरी व्यापारी वर्ग को अनदेखा करने की अनुमति रही थी। और, अतीत में बेजुबां रहे गरीब के हिस्से, कम से कम राजनातिक मूल्य एवं राजनातिक भार, दोनों की प्राप्ति में वृद्धि हुई।
गरीबी हटाओ के तहत कार्यक्रम, हालाँकि स्थानीय रूपसे चलाये गये, परन्तु उनका वित्तपोषण, विकास, पर्यवेक्षण एवं कर्मिकरण नई दिल्ली तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस दल द्वारा किया गया।
“ये कार्यक्रम केंद्रीय राजनैतिक नेतृत्व को समूचे देशभर में नये एवं विशाल संसाधनों के वितरित करने के मालिकाना भी प्रस्तुत किए।”‘अंततः, गरीबी हटाओ गरीबों के बहुत कम काम आये:आर्थिक विकास के लिए आवंटित सभी निधियों के मात्र 4% तीन प्रमुख गरीबी हटाओ कार्यक्रमों के हिस्से गये और लगभग कोई भी “गरीब से गरीब” तबके तक नहीं पहुँची। इस तरह यद्यपि यह कार्यक्रम गरीबी घटाने में असफल रही, इसने गांधी को चुनाव जितानेका लक्ष्य हासिल कर लिया।