जब 10 हजार पठानों से भिड़ गए 21 सिख, लिख दी वीरता की कहानी

सारागढ़ी दिवस पर जांबाज सिख सिपाहियों का बलिदान हमेशा ही इतिहास के पन्नों में दर्ज रहेगा। 12 सितंबर 1897 में आज ही यह युद्ध ब्रिटिश भारतीय सेना की 36वीं सिख बटालियन के 21 सिख जवानों और दस हजार अफगानियों(पठानों) के बीच लड़ा गया था।

Update:2023-04-21 13:05 IST

नई दिल्ली: सारागढ़ी दिवस पर जांबाज सिख सिपाहियों का बलिदान हमेशा ही इतिहास के पन्नों में दर्ज रहेगा। 12 सितंबर 1897 में आज ही यह युद्ध ब्रिटिश भारतीय सेना की 36वीं सिख बटालियन के 21 सिख जवानों और दस हजार अफगानियों(पठानों) के बीच लड़ा गया था।

पठानों ने उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत (पाकिस्तान) पर हमला बोल दिया था। यह लोग गुलिस्तां किले पर कब्जा करना चाहते थे। किले के पास बनी सारागढ़ी सुरक्षा चौकी पर सिर्फ 21 जवान तैनात थे।

इन वीर पठानों ने अफगान हमलावरों के सामने आत्मसमर्पण नहीं किया और ये किले को बचाने में कामयाब रहे। युद्ध के अंत में सभी जवान शहीद हो गए। मरणोपरांत सभी शहीद सैनिकों को इंडियन मैरिट ऑफ ऑर्डर अवार्ड से सम्मानित किया गया।

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12 सितंबर, 1897 को सुबह 8 बजे रहे थे सारागढ़ी किले के संतरी ने दौड़कर अंदर खबर दी कि हजारों पठानों का एक लश्कर झंडों और नेजो (भाला) के साथ उत्तर की तरफ से सारागढ़ी किले की तरफ बढ़ रहा है।

उनकी तादाद 8,000 से 14,000 के बीच थी। संतरी को तुरंत अंदर बुला लिया गया और सैनिकों के नेता हवलदार ईशेर सिंह ने सिग्नल मैन गुरमुख सिंह को आदेश दिया कि पास के फोर्ट लॉकहार्ट में तैनात अंग्रेज अधिकारियों को तुरंत हालात से अवगत कराया जाए और उनसे पूछा जाए कि उनके लिए क्या हुक्म है?

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कर्नल हॉटन ने हुक्म दिया, अपनी जगह पर डटे रहो। एक घंटे के अंदर किले को तीन तरफ से घेर लिया गया और पठानों का एक सैनिक हाथ में सफेद झंडा लिए किले की तरफ बढ़ा।

उसने चिल्ला कर कहा, "हमारा तुमसे कोई झगड़ा नहीं है। हमारी लड़ाई अंग्रजो से है। तुम तादाद में बहुत कम हो, मारे जाओगे। हमारे सामने हथियार डाल दो। हम तुम्हारा ख्याल रखेंगे और तुमको यहाँ से सुरक्षित निकल जाने का रास्ता देंगे।

ब्रिटिश फौज के मेजर जनरल जेम्स लंट ने इस लड़ाई का वर्णन करते हुए लिखा, "ईशेर सिंह ने इस पेशकश का जवाब पठानों की ही भाषा पश्तो में दिया। उन्होंने कहा कि ये अंग्रेजों की नहीं महाराजा रणजीत सिंह की जमीन है और हम इसकी आखिरी सांस तक रक्षा करेंगे। बोले सो निहाल, सत श्री अकाल' के जयकारे से सारागढ़ी का किला गूंज उठा।

यह तारीख इतिहास में सिखों के अतुल्य साहस के रूप में दर्ज है। ब्रिटिश-एंग्लो सेना व अफगान सेना के बीच लड़ी यह लड़ाई 'बैटल ऑफ सारागढ़ी' के नाम से मशहूर है।

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इसे विश्व की महानतम लड़ाइयों में शुमार किया गया है। इस युद्ध में सिख रेजीमेंट के 21 जवान अफगानों की 10 हजार की फौज से भिड़ गए थे और उन्होंने करीब 600 अफगानों को मौत के घाट उतारकर शहादत पाई।

क्यों हुई थी सारागढ़ी की लड़ाई

सारागढ़ी का किला पाकिस्तान के उत्तर पश्चिम सीमांत क्षेत्र के कोहाट ज़िले में करीब 6000 फीट की ऊंचाई पर है। ये वो इलाका है जहां रहने वाले लोगों पर आज तक किसी सरकार का नियंत्रण नहीं हो पाया है।

1880 के दशक में अंग्रेजों ने यहां पर तीन चौकियां बनाईं जिसका स्थानीय पठानों ने जबरदस्त विरोध किया, जिसकी वजह से अंग्रेजों को वो चौकियां खाली करनी पड़ी।

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1891 में अंग्रेजों ने वहां दोबारा अभियान चलाया। रबिया खेल से उनका समझौता हुआ और उन्हें गुलिस्तां, लॉक्हार्ट और सारागढ़ी में तीन छोटे क़िले बनाने की अनुमति मिल गई। लेकिन स्थानीयलोगों ने इसे कभी पसंद नहीं किया। वो इन ठिकानों पर लगातार हमले करते रहे ताकि अंग्रेज वहां से भाग खड़े हों।

इसके बाद उन्होंने अगले दिन 12 सितंबर की दोपहर साढे तीन बजे सारागढ़ी की चौकी पर पूरे लाव लश्कर सहित हमला बोल दिया। इस किले में हमले से मात्र आधा घंटा पहले ही कर्नल जान हयूगटन ने 93 सैनिकों को किसी पास के अन्य किले की कबालियों से हिफाजत करने के लिए भेजा था, इसलिए जब कबालियों ने सारागढ़ी पर हमला किया तो वहां हवलदार ईशर सिंह की कमांड में मात्र 20 अन्य सिख सैनिक थे।

नायक लाल सिंह, लायंस नायक चंदा सिंह, सिपाही राम सिंह, राम सिंह, हीरा सिंह, उत्तम सिंह, दया सिंह, जीवन सिंह, भोला सिंह, गुरमुख सिंह, नारायण सिंह, जीवन सिंह, नंद सिंह, भगवान सिंह, भगवान सिंह, सुंदर सिंह, बूटा सिंह, जीवा सिंह व सिपाही गुरमुख सिंह थे।

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इन 21 बहादुर सिखों ने हिम्मत नहीं हारी। श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की हजूरी में अरदास कर युद्ध करने के लिए अपना-अपना मोर्चा संभाल लिया। किले में मौजूद जवानों ने जवाब में कहा कि हमने दुश्मन का मुकाबला करने के लिए अरदास करके अपने हथियार उठाए लिए हैं। अब हम किसी भी स्थिति में पीछे हटने के बारे में नहीं सोच सकते हैं। ये 21 योद्धा पूरे छह घंटे तक बीस हजार के करीब पठानों से पूरी बहादुरी के साथ तब तक जूझते रहे।

उनके पास किले में मौजूद सारा गोली सिक्का समाप्त हो गया और फिर एक-एक कर सभी जवान शहीद हो गए। इनके शहीद होने के साथ ही सारागढ़ी चौकी पर कबाइलियों का कब्जा हो गया। शहीद हुए 21 फौजियों की यादगार बनाने के लिए जनांदोलन हुआ था। भारतीय सेना के सबसे बड़े इंडियन आर्डर आफ मेरिट के सम्मान से सम्मानित किया गया। इनकी यादगार वजीरास्तान (अब पाकिस्तान), अमृतसर व फिरोजपुर में स्थापित की गई थी।

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