चीन दुम दबाकर भागा था, मिसाल बनी थी अमेरिका-भारत की दोस्ती

अमेरिकी मदद की खबर पहुंचते ही चीन के भारत में बढ़ते कदम ठिठक गए थे। भारत और अमेरिका की गहरी दोस्ती के अतीत में बहुत कम ही वाकये मिलते हैं। भारत ने आजादी के बाद से ही गुट-निरपेक्षता की नीति अपनाते हुए अमेरिका से दूरी बनाए रखी। 

Update:2020-06-18 18:02 IST

नई दिल्ली: एक बार फिर भारत और चीन संभावित युद्ध के मुहाने पर खड़े नजर आ रहे हैं। गलवान घाटी में भारत-चीन के सैनिकों के बीच हिंसक झड़प ने चिंगारी को भड़का दिया है। ऐसे में भारत कभी चुप नहीं बैठेगा। 1962 में जब भारत-चीन का युद्ध हुआ तो अमेरिका ने अपनी खुद की चुनौतियों के बावजूद भारत का साथ दिया। अमेरिकी मदद की खबर पहुंचते ही चीन के भारत में बढ़ते कदम ठिठक गए थे। भारत और अमेरिका की गहरी दोस्ती के अतीत में बहुत कम ही वाकये मिलते हैं। भारत ने आजादी के बाद से ही गुट-निरपेक्षता की नीति अपनाते हुए अमेरिका से दूरी बनाए रखी।

अमेरिका ने उदारता से दोस्ती का हाथ आगे बढ़ाया

अक्टूबर-नवंबर 1962 के चीनी हमले के दौरान जब भारत बिल्कुल अलग-थलग पड़ गया था तो अमेरिका ही भारत के लिए मददगार बनकर सामने आया था। भारत को सैन्य मदद की सख्त जरूरत थी तो अमेरिका ने उदारता से दोस्ती का हाथ आगे बढ़ाया था। अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ। केनेडी उस वक्त क्यूबा संकट से निपटने में व्यस्त थे इसलिए उन्होंने अमेरिकी राजदूत प्रोफेसर जॉन कीनिथ गैलब्रेथ को हालात संभालने की जिम्मेदारी दी। भारत की मदद के लिए फिलीपींस में मौजूद अमेरिकी एयरफोर्स को अलर्ट कर दिया गया था। इसके साथ ही, अमेरिका ने चीन को भी संदेश पहुंचा दिया कि वह भारत की मदद करने आ रहा है।

भारतीय बिल्कुल मायूस हो गए

अमेरिका ने चीन के संभावित हमले को रोकने के लिए बंगाल की खाड़ी में यूएसएस किटी हॉक एयरक्राफ्ट कैरियर भेजने की योजना भी बना ली थी। 18 नवंबर 1962 को जब चीनी सेना के भारतीय भू-भाग में और आगे बढ़ने की खबर आई तो भारतीय बिल्कुल मायूस हो गए। उस वक्त भारत के दोस्तों ने भी साथ छोड़ दिया था। 25 अक्टूबर 1962 को जब सोवियत का अमेरिका के साथ युद्ध बिल्कुल तय नजर आ रहा था तो सोवियत के अखबार प्रावडा ने फ्रंट पेज पर एक आर्टिकल छापा था और 1962 के युद्ध के लिए पूरी तरह से भारत को कसूरवार ठहराया था।

भारत पर औपनिवेशिक ताकतों के इशारे पर चलने का लगा था आरोप

आर्टिकल में भारत और चीन के बीच खींची गई मैकमोहन रेखा को कुख्यात और ब्रिटिश औपनिवेश का नतीजा करार देते हुए इसे कानूनी तौर पर अमान्य घोषित किया था। रूसी अखबार ने भारत पर औपनिवेशिक ताकतों के इशारे पर चलने का आरोप लगाया और उसे लड़ाई का रिंगमास्टर करार दिया। सोवियत यूनियन के इस रुख के उलट अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति केनेडी का रवैया उदार और सहयोगपूर्ण था।

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अमेरिकन एयरक्राफ्ट सैन्य मदद लेकर दिल्ली आने लगे थे

अमेरिकन एयरक्राफ्ट नियमित तौर पर सैन्य मदद लेकर दिल्ली आने लगे थे और उन पर इंडो-तिब्बत सीमा के फोटो भी होते थे। भारत को इन एरियल फोटोग्राफ से काफी मदद मिलती थी क्योंकि उस वक्त भारत के पास संघर्ष वाले इलाकों के नक्शे नहीं थे। अमेरिकी विदेश मंत्रालय के तत्कालीन सहायक सचिव रोजर हिल्समैन खुद सैन्य मदद को भारत पहुंचा रहे थे। रोजर को दूसरे विश्व युद्ध के दौरान बर्मा कैंपेन का भी अनुभव हासिल था।

अमेरिका के हस्तक्षेप की वजह से चीन हटा पीछे

21 नवंबर 1962 को चीन ने एकतरफा सीजफायर का ऐलान कर दिया और कहा कि वह अरुणाचल प्रदेश के कब्जे वाले इलाके से अपनी सेना को पीछे हटा रहा है। हो सकता है कि चीन को सर्दियों में पहाड़ी इलाके में बने रहने में दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा हो लेकिन विश्लेषकों का मानना है कि अमेरिका के हस्तक्षेप की वजह से भी चीन ने पीछे हटने का फैसला किया। यही नहीं, 62 में पाकिस्तान को भारत के खिलाफ किसी हमले में शामिल होने से रोकने में भी अमेरिका ने अहम भूमिका निभाई थी।

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केनेडी ने क्यूबा से रूसी परमाणु हथियार हटवा दिए

भारत-चीन के युद्ध के दौरान, सोवियत यूनियन ने क्यूबा में परमाणु हथियार और लंबी दूरी की मिसाइलें तैनात कर दी थीं। परमाणु युद्ध का टलना असंभव नजर आ रहा था। हालांकि, केनेडी दोनों संकटों से बेहतरीन तरीके से निपटे। उन्होंने रूस के साथ युद्ध को टाल दिया और क्यूबा से रूसी परमाणु हथियार हटवा दिए। दूसरी तरफ, भारत को अमेरिकी वायुसेना की मदद भेजकर भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को आश्वस्त किया। यूएस नेवी ने बंगाल की खाड़ी में एक लड़ाकू कैरियर भी भेजा जिससे पूरी दुनिया को ये संदेश चला गया कि अमेरिका भारत के साथ है।

चीनी शासक माओ ने एकतरफा सीजफायर का ऐलान कर दिया

जॉन एफ केनेडीज फॉरगेटन क्राइसिस: तिब्बत, सीआईए ऐंड सिनो-इंडिया वॉर किताब में सीआईए के पूर्व अधिकारी ब्रूस रिडेल ने लिखा है, संकट के चरम पर पहुंचने के दौरान नेहरू ने केनेडी से 350 अमेरिकी लड़ाकू एयरक्राफ्ट भेजने का अनुरोध किया था। हालांकि, केनेडी को इसका जवाब देने की जरूरत ही नहीं पड़ी क्योंकि चीनी शासक माओ ने एकतरफा सीजफायर का ऐलान कर दिया और उत्तर-पूर्व भारत से अपनी सेना को पीछे खींच लिया। नेहरू ने भी चीनी हमले को रोकने के लिए केनेडी को क्रेडिट दिया था।

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भारत चीन के हाथों तेजी से अपनी जमीन खो रहा था

ब्रूस के मुताबिक, भारत चीन के हाथों तेजी से अपनी जमीन खो रहा था और भारतीय सैनिक अपनी जान गंवा रहे थे। नेहरू ने नवंबर 1962 में केनेडी को एक खत लिखकर चीन को रोकने के लिए एयर ट्रांसपोर्ट और जेट फाइटर्स की जरूरत बताई थी। नेहरू ने इसके तुरंत बाद एक और खत भी लिखा था। इस खत को अमेरिका में तत्कालीन भारतीय राजदूत बी के नेहरू ने अपने हाथों से केनेडी को सौंपा था। अमेरिकी अधिकारी के मुताबिक, भारत ने अमेरिका से चीनी सेना को हराने के लिए हवाई युद्ध में भी शामिल होने की मांग की थी।

चीन ने युद्ध विराम का ऐलान कर दिया

नेहरू ने इन खत में बॉम्बर्स की भी मांग की थी और साथ ही आश्वासन दिया था कि इनका इस्तेमाल पाकिस्तान के खिलाफ नहीं किया जाएगा बल्कि चीन के खिलाफ आत्मरक्षा में इनका इस्तेमाल होगा। ब्रूस के मुताबिक, केनेडी ने इसके बाद अपने प्रशासन को जो निर्देश दिए थे, उनसे ऐसा लग रहा था कि वह युद्ध की तैयारी कर रहे हैं। हालांकि, अमेरिका के कोई कदम उठाने से पहले ही चीन ने युद्ध विराम का ऐलान कर दिया।

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अमेरिका, भारत और संभवत: ब्रिटेन भी चीन के खिलाफ युद्ध में शामिल हो जाता

पूरे उत्तर-पूर्वी भारत पर कब्जा करने की स्थिति में आने के बावजूद चीनी नेतृत्व के पीछे हटने के ऐलान ने पूरी दुनिया को हैरान कर दिया था। चीन को डर सताने लगा था कि ब्रिटेन और अमेरिका भारत को युद्ध में मदद पहुंचा सकते हैं। ब्रूस ने अपनी किताब में लिखा है, हमें ये तो नहीं पता कि अगर युद्ध जारी रहता तो अमेरिका भारत को किस तरीके से और किस स्तर पर मदद पहुंचाता लेकिन ये तय था कि अमेरिका, भारत और संभवत: ब्रिटेन भी चीन के खिलाफ युद्ध में शामिल हो जाता।

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केनेडी की हत्या हुई तो भारतीय भी शोक में डूब गए थे

अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉन एफ। केनेडी इस घटना के बाद भारत में बेहद लोकप्रिय हो गए थे। यहां तक कि पान की दुकानों पर नेहरू और गांधी की तस्वीरों के साथ केनेडी की तस्वीर भी नजर आने लगी थीं। नवंबर 1963 में केनेडी की हत्या हुई तो भारतीय भी शोक में डूब गए थे। ये एक ऐसा दौर था जब भारतीय अमेरिका को अपने भरोसेमंद दोस्त की तरह पर देखने लगे थे। हालांकि, पाकिस्तान-ब्रिटेन के दबाव और आतंकवाद पर अपने दोहरे रवैये की वजह से अमेरिका लंबे समय तक भारत के साथ इस दोस्ती के दौर को जारी नहीं रख सका।

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