महाराष्ट्र हलचल! क्या रोमेश भंडारी के नक्शे कदम पर चल रहे भगत सिंह कोश्यारी

महाराष्ट्र में पिछले 19 दिनों से राजनीति हलचल में गजब का भूचाल देखा गया है। मतगणना के बाद से ही महाराष्ट्र में सरकार निर्माण को लेकर सभी राजनीति पार्टियों के नये-नये वादे और दावे देखे गये।

Update: 2019-11-12 16:53 GMT

नई दिल्ली: महाराष्ट्र में पिछले 19 दिनों से राजनीति हलचल में गजब का भूचाल देखा गया है। मतगणना के बाद से ही महाराष्ट्र में सरकार निर्माण को लेकर सभी राजनीति पार्टियों के नये-नये वादे और दावे देखे गये।

आज महाराष्ट्र में नया मोड़ तब आया जब महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन(राज्यपाल शासन) लागू हो गया। इसके बाद भी महाराष्ट्र में राजनीति पार्टियों (भाजपा-शिवसेना-कांग्रेस-एनसीपी) ने सरकार निर्माण के लिए लगातार प्रयासरत हैं।

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राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने वही तो नहीं कर दिया, जो कदम कभी 1996 में उत्तर प्रदेश में तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंडारी ने उठाया था।

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बताया जाता है कि तब जहां भाजपा ने राज्यपाल की भूमिका को लेकर सड़क से संसद तक न सिर्फ सवाल उठाए थे, बल्कि मामले को अदालत में भी ले जाया गया था।

वहीं कांग्रेस और दूसरे गैर भाजपा दलों ने राज्यपाल के फैसले का बचाव किया था। तब अदालत ने राज्यपाल के फैसले को सही नहीं माना था। अब कांग्रेस एनसीपी और शिवसेना राज्यपाल के फैसले पर सवाल उठा रहे हैं और भाजपा उनके बचाव में है।

भाजपा के पास थीं 174 सीटें...

अब देखना है कि मामला अदालत में जाने पर क्या फैसला आता है। बात तब की है जब 1996 के विधानसभा चुनाव में त्रिशंकु विधानसभा आई थी और किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला था। तब भाजपा 174 सीटों के साथ विधानसभा में सबसे बड़े दल के रूप में उभरकर आई थी, उसके बाद समाजवादी पार्टी जनता दल और कांग्रेस (ति) का गठबंधन 134 सीटों के साथ दूसरे बड़े समूह के रूप में आया था और कांग्रेस-बसपा गठबंधन सौ सीटों के साथ तीसरे नंबर पर था।

तब रोमेश भंडारी ने सबसे बड़े दल भाजपा को सरकार बनाने के लिए न बुलाकर विधानसभा को निलंबित कर राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर दी थी।

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भाजपा ने किया था इलाहाबाद हाई कोर्ट का रूख...

तब भाजपा इस मामले को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में ले गई थी और उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में राज्यपाल द्वारा सरकार बनाने की संभावनाओं को बिना तलाशे विधानसभा निलंबित करने और राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश के कदम को आड़े हाथों लेते हुए बेहद सख्त टिप्पणी की थी।

उच्च न्यायालय ने इस मामले में एस आर बोम्मई मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का हवाला देते हुए कहा था कि बहुमत का फैसला सिर्फ सदन के भीतर होना चाहिए और सरकार बनाने की सभी संभावनाओं के खत्म होने के बाद ही राष्ट्रपति शासन की सिफारिश अंतिम विकल्प है और उत्तर प्रदेश में राज्यपाल ने उसे पहले विकल्प के रूप में इस्तेमाल किया।

तब अदालत के इस फैसले को लेकर भाजपा ने न सिर्फ उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंडारी के इस्तीफे की मांग की थी, बल्कि तत्कालीन संयुक्त मोर्चा सरकार के प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा समेत पूरी सरकार पर हमला बोला था।

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राज्यपाल के फैसले पर उठेंगे सवाल...

अब अगर शिवसेना राज्यपाल की सिफारिश और राष्ट्रपति शासन को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देती है, तब अदालत में राज्यपाल के फैसले पर संवैधानिक और कानूनी सवाल अवश्य उठेंगे। त्रिशंकु विधानसभा या किसी सरकार के बहुमत खो देने के मामले में एसआर बोम्मई मामले में सर्वोच्च न्यायाल द्वारा दिया गया आदेश ही सबसे बड़ा संवैधानिक मापदंड है। केंद्र और राज्यों में सरकारों के गठन या बहुमत परीक्षण के लिए इसी फैसले को कसौटी माना जाता है।

इस फैसले के मुताबिक त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में राज्यपाल सरकार गठन की सारी संभावनाओं को तलाशेंगे। इसी के तहत अगर कोई दल या गठबंधन सरकार बनाने का दावा और बहुमत का सूबत पेश नहीं करता, तो सबसे आम तौर पर सबसे बड़े दल को पहले मौका दिया जाता है और अगर वह दल सरकार बना लेता है, तो उसे एक निश्चित समय में सदन में अपना बहुमत साबित करना होता है।

13 दिन में गिरी थी वाजपेयी सरकार...

1996 में त्रिशंकु लोकसभा आने पर तत्कालीन राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा ने इसी आधार पर सबसे बड़े दल भाजपा के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने का न्यौता दिया था और वाजपेयी ने सरकार बनाई। लेकिन सदन में बहुमत की पर्याप्त संख्या न जुटा पाने की वजह से वाजपेयी ने 13 दिन में ही इस्तीफा दे दिया था। इसके बाद कई राज्यों में इसी तरह के प्रयोग हुए, हालांकि गोवा, मणिपुर जैसे कुछ राज्यों में इससे उलट भी प्रयोग हुए जहां सबसे बड़े दल कांग्रेस को मौका न देकर भाजपा को सरकार बनाने का मौका दिया गया और भाजपा ने बाद में सदन में बहुमत का जुगाड़ कर लिया।

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पहले भाजपा को दिया था मौका...

लेकिन कर्नाटक में सबसे बड़ा दल होने पर भाजपा को सरकार बनाने का मौका तो राज्यपाल वजूभाई बाला ने दे दिया था, लेकिन भाजपा बहुमत का जुगाड़ नहीं कर सकी थी। महाराष्ट्र में हालाकि चुनाव पूर्व गठबंधन भाजपा शिवसेना युति को पूर्ण बहुमत मिल गया था, लेकिन शिवसेना के एनडीए से अलग होने के बाद राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी के सामने भी कुछ वैसी ही परिस्थिति बनी, जैसी 1996 में उत्तर प्रदेश में या 2018 में कर्नाटक में बनी थी।

राज्यपाल ने सबसे पहले सबसे बड़े दल भाजपा को सरकार बनाने के लिए बुलाया और 48 घंटे का वक्त दिया, लेकिन भाजपा ने सरकार बनाने से मना कर दिया। इसके बाद राज्यपाल ने शिवसेना को सरकार बनाने के लिए 24 घंटे का वक्त दिया, जिसके खत्म होने के बाद शिवसेना ने 48 घंटे का वक्त मांगा, लेकिन राज्यपाल ने इनकार कर दिया और राष्ट्रवादी कांग्रेस को 24 घंटे का वक्त दिया।

कैबिनेट ने सिफारिश को किया मंजूर...

अगले दिन दोपहर को एनसीपी ने राज्यपाल से कुछ और वक्त देने का अनुरोध किया, जिसे खारिज करते हुए राज्यपाल ने तत्काल राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर दी और विदेश जाने से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केंद्रीय मंत्रिमंडल की आपात बैठक बुलाकर सिफारिश को मंजूर करके राष्ट्रपति के पास भेज दिया। लेकिन इस कवायद में राज्यपाल ने चौथे दल कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए अपनी राय देने का मौका नहीं दिया।

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अब राज्यपाल कोश्यारी से यह चूक कैसे हुई इसका जवाब वही दे सकते हैं, क्योंकि अदालत में इसे विपक्षी दल एक मजबूत बिंदु के रूप में पेश करेंगे। इसके अलावा राज्यपाल के फैसले में एक बड़ा विरोधाभास यह है कि शिवसेना और एनसीपी ने सरकार बनाने से इनकार नहीं किया सिर्फ कुछ और वक्त मांगा जो उन्हें नहीं मिला।

सुनवाई में बोम्मई केस का होगा जिक्र...

अब अदालत में दोनों दलों को और वक्त न दिए जाने का औचित्य राज्यपाल को साबित करना होगा। क्योंकि बोम्मई मामले में सर्वोच्च न्यायालय और उत्तर प्रदेश मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश में स्पष्ट कहा गया है कि जब सरकार बनाने की सारी संभावनाएं खत्म हो जाएं, तभी राष्ट्रपति शासन के विकल्प को अपनाया जाए। जबकि महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी के सरकार बनाने से इनकार न करने और कांग्रेस को मौका न दिए जाने से सरकार गठन की संभावनाएं पूरी तरह खत्म नहीं हुईं थी।

कांग्रेस ने खड़े किए सवाल...

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अदालत में राज्यपाल को अपनी सिफारिश का औचित्य साबित करने के लिए यह भी बताना होगा कि सरकार गठन की सारी संभावनाएं कैसे खत्म हो गईं थीं। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अहमद पटेल ने केंद्र सरकार पर सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देशों के खुले उल्लंघन का आरोप लगाया और प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने शिवसेना और एनसीपी को और समय न देने व कांग्रेस को मौका न देने पर सवाल उठाए हैं, जबकि वरिष्ठ वकील और पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने कर्नाटक में बहुमत साबित करने के लिए राज्यपाल द्वारा एक महीने का समय दिए जाने और महाराष्ट्र में शिवसेना एनसीपी को कुछ और घंटे दिए जाने से इनकार करने के राज्यपाल के निर्णय पर सवाल खड़ा किया है।

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