Stampede Incidents 2025: भीड़ का क़िस्सा, भगदड़ का हिस्सा

Stampede Incidents 2025: भीड़ और भगदड़ को अब पर्याय न बनाएं। इन्सान को इंसान ही रहने दें उसे कीड़े-मकोड़े की तरह पैरों तले रौंदने न दें...;

Written By :  Yogesh Mishra
Update:2025-02-19 12:43 IST

Stampede Incidents Lesson Delhi Railway Station and Prayagraj Maha Kumbh Mela

Stampede Incidents 2025: पैरों तले कुचलती आस्था और भरोसा और भगदड़। हमारे लिए कोई नई चीज नहीं। दुनिया के लिए भी कोई अजूबा नहीं। लेकिन हमारी भीड़ के संग जितने हादसे होते हैं, आये दिन होते हैं। ये हैरान करने के साथ साथ असीम दुःख की बात है। हाल के ही दिनों में पहले कुम्भ, फिर नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर भगदड़ में अनेक लोग मारे गये, घायल हुए। इसके पहले कभी हाथरस तो कभी बालाजी और कभी कहीं और तमाम जगहों पर भगदड़ की अनेक घटनाएँ हो चुकीं हैं। कोई गारंटी नहीं कि आगे भी भगदड़ के हादसे नहीं होंगे, बस कब और कहाँ होंगे, यही आशंका जताई जा सकती है और ईश्वर से दुआ की जा सकती है कि किसी कि जान न जाए।

कहने वाले कह सकते हैं कि दुनिया की सबसे ज्यादा आबादी होने के नाते हम सदैव भगदड़ के जोखिम में हैं। बात सही भी है। धार्मिक आयोजनों, खेलों, राजनीतिक रैलियों, प्रदर्शनों, यात्राओं – कहीं पर भी भीड़ जुटान में कोई कमी-कोताही नहीं होती। सच यह भी है कि ज्यादा भीड़ को उस आयोजन की सफलता का पैमाना माना जाता है। अब किसी नेता की रैली में लाखों की भीड़ न हो तो उस नेता की नेतागीरी पर ही सवाल उठ जाता है। किसी प्रवचक की सभा में भीड़ न जुटे तो प्रवचन ही बेकार है। किसी कंसर्ट में लोग एक के ऊपर एक न चढ़ें तो वो कंसर्ट फ्लॉप ही कहलाता है।


किसी शादी समारोह में हजारों को खाना न परोसा जाए तो वो शादी ही कैसी? भीड़ तो शक्ति का प्रतीक है। पर हम भीड़ इकट्ठा करते समय जनसंख्या घनत्व का ख्याल नहीं रख पाते।जबकि एक सीमित स्थान में लोगों की संख्या बहुत अधिक हो जाती है, तो लोगों के पास हिलने-डुलने की जगह नहीं बचती।हल्की सी अफवाह या धक्का-मुक्की भी भगदड़ का कारण बन सकती है।

पर इस जुमले पर अमल ज़्यादा ज़रूरी होता है कि भीड़ से ही दम है और दंभ भी है। भीड़ ही शक्ति प्रदर्शन है। भीड़ हैसियत मापने का एक पैमाना भी है।

लेकिन किसी भी शक्ति की तरह भीड़ की शक्ति भी कब बेकाबू हो जाये कोई अनुमान नहीं लगा सकता। ये एक जलजले की मानिंद है जिसका पूर्वानुमान लगाने का विज्ञान ही डेवलप नहीं हो पाया है। क्योंकि भीड़ का कोई कैरेक्टर नहीं होता। भीड़ अपने आप में एक कैरेक्टर है। भीड़ में कोई एकल नहीं रह पाता।  लाखों – हजारों शरीर मिल कर आत्मसात हो कर एकल ऊर्जा बन जाते हैं, सोचने समझने की स्थिति से पार चले जाते हैं। और जब ऐसा हो जाता है तो उस एकल ऊर्जा को तोड़ना बेहद मुश्किल हो जाता है। ऐसे में बनती है अफवाह, किसी का बेहोश हो कर गिर जाना, किसी का पैनिक कर जाना, कहीं से बल प्रयोग का होना – याने कोई भी एक्शन भगदड़ को ट्रिगर कर सकता है और यही हम देखते आ रहे हैं।


खैर, कहने को भीड़ में शामिल लोगों में अनुशासन-जागरूकता-धीरज की कमी को इंगित करके लोगों को ही भगदड़ और उसके भयानक परिणामों के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। तर्क बेहद आसान है कि जो भीड़ का हिस्सा बना वो तो भीड़ के अंजाम के काबिल ही था। लेकिन क्या यही तर्क अनंतकाल तक दोहराया जाना चाहिए? क्या उनकी जिम्मेदारी नहीं बनती जो भीड़ होने देते हैं? कहीं पर भीड़ अचानक जमा नहीं हो जाती। भीड़ कोई अचानक की बाढ़ नहीं होती। भीड़ बनने में वक्त लगता है। भीड़ जुटाने के लिए प्रयोजन करने पड़ते हैं। कुंभ में भी तमाम प्रयोजन किये गये। पहली बार बुलावा दिया गया।सवाल है कि भीड़ को बनने क्यों दिया जाता है? ड्रोन से लेकर एआई और जमीनी इंटेलिजेंस के दावे क्यों भगदड़ में हवा हो जाते हैं? अनगिनत भगदड़ होने के बावजूद भीड़ नियंत्रण जैसी कोई चीज आज तलक अस्तित्व में क्यों नहीं आई? कहने को तो आईआईटी, आईआईएम जैसे संस्थान बड़े बड़े दिमागदार एक्सपर्ट्स तैयार करते हैं।लेकिन इन संस्थानों में अनिवार्य रूप से क्राउड मैनेजमेंट की पढ़ाई क्यों नहीं होती? क्या आईएएस की ट्रेनिंग देने वाले संस्थान में क्राउड मैनेजमेंट ट्रेनिंग की कोई जगह है? सच्चाई तो ये है ऐसी ट्रेनिंग कहीं नहीं है। पुलिस वालों को भी कितनी और क्या ट्रेनिंग दी जाती है, वो हम तमाम भगदड़ के हादसों से वाकिफ हो समझ ही चुके हैं।


क्राउड मैनेजमेंट के नाम पर देखने को मिलता है क्या है? पुलिसवालों के हाथ में डंडा और यदाकदा बैरीकेडिंग। सन 54 के कुम्भ से लेकर 2025 के कुम्भ में फर्क ही क्या रहा? 71 साल बाद भी वही भगदड़? जब हम दुनिया में सबसे ज्यादा आबादी होने की बात करते हैं तो क्या ये ड्यूटी नहीं बनती कि बचपन से ही स्कूलों में भीड़, भीड़ व्यवहार और भीड़ से बचने जैसी बातों की ट्रेनिंग दी जाए? क्या कुम्भ जैसे आयोजनों की डुगडुगी पीटने के वक्त जनता को भीड़ से अपनी जान बचाने की हिदायत की डुगडुगी भी नहीं बजाई जानी चाहिए? क्यों नहीं ईमानदारी से स्वीकार कर लेते कि गाँव देहात से लेकर शहर के बाशिंदों में न जागरूकता है और न कॉमन सेन्स। जो कुछ है भी वह भीड़ में काफूर हो जाता है। सो लगातार उसके दिमाग में जान बचाने की हिदायतें हैमर क्यों नहीं करते?


ऐसा कुछ नहीं करते तभी तो भारत और भगदड़ कैसे एक दूसरे से जुड़े हुए हैं ये जापान और ऑस्ट्रेलिया की यूनिवर्सिटी के शोधवैज्ञानिकों के एक डेटा बेस से साफ़ होता है। इनके आंकड़े दिखाते हैं कि भारत और पश्चिमी अफ्रीका भगदड़ की दुर्घटनाओं के सबसे बड़े केंद्र बनते जा रहे हैं। अध्ययन के अनुसार 1990 से 1999 के बीच हर साल औसतन तीन ऐसी घटनाएं होती थीं, जो 2010 से 2019 के बीच बढ़कर 12 प्रतिवर्ष हो गईं। 2000 से 2019 के बीच दुनिया में जितने भी ऐसे हादसे हुए, उनमें से लगभग 70 प्रतिशत भारत में हुए और ये धार्मिक आयोजनों से संबंधित थे।


कहने को आपदा प्रबंधन का इंतजाम हमारे पास है। लेकिन आपदा प्रबंधन तो आपदा आने के वक्त या उसके बाद होता है, मानव निर्मित आपदा होने ही न पाए, इसका कोई न इंतजाम है न योजना और ना ही कोई विजन। महाकुम्भ को ही लें। देश-दुनिया में जमकर ढिंढोरा पीटा गया, न्योता बांटा गया।मीडिया के सभी कंटेंट और फार्म के लिए एक अरब बारह करोड़ चालीस लाख रुपये सूचना विभाग को खर्च करने के लिए दिये गयें।इंतजामों के आसमान छूते दावे किये गए। सात हज़ार पाँच सौ करोड़ रुपये ख़र्च करने की बात कहीं गई । जनता को भी क्या कहें, लोग ईश्वर में आस्था और सरकारों के इंतजामों पर विश्वास करके सैकड़ों-हजारों मील से चल पड़े। यात्रा आस्था की थी सो सिर्फ कुम्भ ही नहीं, बल्कि आसपास के सभी तीर्थ जाने की योजनायें बनीं। पर उत्तर प्रदेश सरकार के अफ़सरों की नज़र आसपास के शहरों पर गयी ही नहीं। आसपास के शहरों- अयोध्या, मथुरा व काशी को लेकर कोई बैठक ही नहीं हुई । नतीजा सामने है। ट्रेनों से लेकर स्टेशनों, शहरों और हाईवे तक का हाल दुनिया देख चुकी है, देख रही है। कहीं एक्सीडेंट हैं तो कहीं भगदड़ है। देश की राजधानी के रेलवे स्टेशन में भगदड़।


क्या हम अब भी संभलेंगे? भीड़ को शक्ति प्रदर्शन मानिए। लेकिन भीड़ में शामिल एक एक इंसान की जिन्दगी की कीमत भी तो पहचानिए। किसी के मरने के बाद कितना ही पैसा दे दें, लेकिन भरपाई असम्भव है। भीड़ और भगदड़ को अब पर्याय न बनाएं। इन्सान को इंसान ही रहने दें उसे कीड़े-मकोड़े की तरह पैरों तले रौंदने न दें। लोग भरोसा करके अपने घरों से चलते हैं, भीड़ का हिसा बनते हैं, उस विश्वास को तार-तार न करें। यही सबसे बड़ी आस्था होगी और यही सबसे बड़ा अमृतपान होगा।

(लेखक पत्रकार हैं। दैनिक पूर्वोदय से साभार।)

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