हिंदी हमारी पहचान, पर 'राष्ट्रभाषा' नहीं, जानें आखिर क्यों?
10 जनवरी का दिन भारत में ही नहीं विश्व भर में 'हिंदी' के नाम समर्पित है। साल 2006 में तत्कालीन मनमोहन सरकार ने 10 जनवरी को विश्व हिंदी दिवस के तौर पर घोषित किया था। इसकी वजह हिंदी को अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में स्थापित करना है। ताज्जुब की बात ये है कि विश्व स्तर पर हिंदी को बढ़ावा देने वाले भारत में ही हिंदी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा अब तक नहीं मिला है।
लखनऊ: 10 जनवरी का दिन भारत में ही नहीं विश्व भर में 'हिंदी' के नाम समर्पित है। साल 2006 में तत्कालीन मनमोहन सरकार ने 10 जनवरी को विश्व हिंदी दिवस (World Hindi day) के तौर पर घोषित किया था। इसकी वजह हिंदी को अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में स्थापित करना है। ताज्जुब की बात ये है कि विश्व स्तर पर हिंदी को बढ़ावा देने वाले भारत में ही हिंदी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा अब तक नहीं मिला है।
14 सितंबर और 10 जनवरी के हिंदी दिवस में क्या अंतर:
ज्यादातर लोगों के दिमाग में ये सवाल जरुर आता है कि 10 जनवरी को भी हिंदी दिवस मनाया जाता है और 14 सितंबर को भी, ऐसा क्यों? ये सवाल लाजमी है। भारत दो बार हिंदी दिवस मनाता है। लेकीन दोनों हिंदी दिवस में एक फर्क है।
दरअसल, 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया था। इस निर्णय के बाद हिंदी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिए 1953 से पूरे भारत में 14 सितंबर को हर साल हिंदी दिवस (National Hindi Day) के रूप में मनाया जाने लगा।
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वहीं, साल 2006 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 10 जनवरी को 'विश्व हिन्दी दिवस' (World Hindi Day) के तौर पर मनाए जाने की घोषणा की थी। जिसके बाद पूरी दुनिया में आज का दिन 'विश्व हिन्दी दिवस' के तौर पर जाना जाने लगा।
विश्व हिंदी दिवस के लिए 10 जनवरी का चयन क्यों:
एक साल ये भी है कि भारत ने 14 सितंबर को ही विश्व हिंदी दिवस के दौर पर घोषित न करके 10 जनवरी का दिन क्यों चुना।
दुनिया भर में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए पहला विश्व हिन्दी सम्मेलन 10 जनवरी 1975 को नागपुर में आयोजित किया गया था। इसलिए इस दिन को विश्व हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस सम्मेलन में 30 देशों के 122 प्रतिनिधि शामिल हुए थे।
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राजभाषा है हिंदी पर 'राष्ट्र भाषा' नहीं:
गौरतलब है कि ही हिंदी को भारत में राजभाषा का दर्जा प्राप्त है, लेकिन इसे राष्ट्रभाषा नहीं कह सकते। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की पहल पर 1949 में सर्वसम्मति से हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया। वहीं राष्ट्रभाषा को लेकर कुछ तय नहीं हो सका। वजह साफ़ थी उस दौर में हिंदी विरोधियों की संख्या ज्यादा थी।
संविधान सभा में लंबी लंबी बहस चली, इनमें सबसे विवादित विषय 'भाषा' थी। संविधान को किस भाषा में लिखा जाए, सदन में कौन सी भाषा को अपनाया जाए, किस भाषा को ‘राष्ट्रीय भाषा' का दर्जा दिया जाए, इसे लेकर किसी एक राय पर पहुंचना लगभग नामुमकिन सा रहा।
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1963 में नेहरू ने राजभाषा अधिनियम को दिशा देने का काम किया, जिसके तहत उन्होंने इस बात की तरफ इशारा किया कि 1965 से आधिकारिक रूप से सभी तरह का संचार 'हिंदी' में किया जाएगा और अंग्रेजी को एक सहायक भाषा के रूप में इस्तेमाल किया जा ‘सकता' है। हिंदी विरोधियों को लगा कि केंद्र 'गैर हिंदी' भाषियों पर हिंदी 'थोपने' का काम कर सकती है।
26 जनवरी 1965 को तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करने का फैसला कर लिया था लेकिन उससे पहले ही दक्षिण भारतीय राजनीतिक पार्टी डीएमके ने इस फैसले के खिलाफ तमिलनाडु में विरोध प्रदर्शन की घोषणा कर दी।
विरोध इतना उग्र था कि मदुरै से लेकर कोयमबटूर और मद्रास से लेकर छोटे छोटे गांव में हिंदी की किताबों को जलाया जाने लगा।
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वहीं जानकारी मिलती है कि कुछ तमिल भाषियों ने इसके विरोध में जान भी दे दी थी।
इतने विरोध के बाद कांग्रेस अपने फैसले पर नरम पड़ गयी।
इतने कड़े विरोध के बाद हिंदी को भारत की राजभाषा का दर्जा तो मिल गया लेकिन 'राष्ट्रीय भाषा' का दर्जा मिलते मिलते रह गया।