सियासी चक्रव्यूह में ममता: भाजपा ने लगाया किले में सेंध, बंगाल में बदलाव की बयार
बंगाल की दीदी का पूरा कैरियर चुनौतियों व संघर्ष से भरा है। हर बार चुनौतियों को उनने अवसर में बदल कर दिखाया है। तभी तो 34 साल के वामपंथ के क़िले को पश्चिम बंगाल में न केवल ढहा दिया। बल्कि अपनी सरकार बना लिया।
योगेश मिश्र
राजनीति एक शब्द,
जिससे मन में कभी जागता था श्रद्धा भाव,
अब हो गये हैं इसके मायने बड़ा कारोबार, पार्टी के दफ़्तर बने हैं बाज़ार ,
सच, राजनीति बनकर रह गयी है गंदा खेल।
कवि, लेखक, कलाकार प्राय: उस डगर पर नहीं चलता जो उसे पसंद न हो। जिसके ख़िलाफ़ वह कलम चलाता है, वह पथ भी नहीं चुनता। पर इन कविताओं को रचने वाली कवयित्री ने इसे गलत साबित कर दिखाया। वही पथ पकड़ा, जिसके ख़िलाफ़ लिखा। हम पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता की बनर्जी की बात कर रहे हैं। कम लोग जानते होंगे की वह कविताएँ भी रचती हैं। दुर्गा पूजा पर आधारित अपने एल्बम ‘रौद्रर छाया’ के लिए सात गीत कंपोज़ कर चुकी हैं। अपने मुफ़लिसी के दिनों में उन्हें दूध तक बेचना पड़ा था।
दीदी का पूरा कैरियर चुनौतियों व संघर्ष से भरा
बंगाल की दीदी का पूरा कैरियर चुनौतियों व संघर्ष से भरा है। हर बार चुनौतियों को उनने अवसर में बदल कर दिखाया है। तभी तो 34 साल के वामपंथ के क़िले को पश्चिम बंगाल में न केवल ढहा दिया। बल्कि अपनी सरकार बना लिया। 1984 में माकपा के वरिष्ठ नेता सोमनाथ चटर्जी को हराकर देश की सबसे युवा सांसद बन गयीं। हालाँकि 1989 में मालिनी भट्टाचार्य ने उन्हें हरा दिया। पहली महिला रेलमंत्री व पश्चिम बंगाल की पहली महिला मुख्यमंत्री हैं। अब तक कांग्रेस व वामपंथ से उलझती और जीतती रहीं हैं। पहली बार वह भाजपा के निशाने पर हैं।
ममता के क़िले में सेंध
देश के गृहमंत्री व भाजपा के कुशल तथा सफल रणनीतिकार अमित शाह ने अपने हालिया दौरे में 200 सीटें जीतने का लक्ष्य तय किया है। यह ममता की दिक़्क़तें बढ़ाने वाला है। इसके लिए अमित शाह उन्हीं हथकंडों का इस्तेमाल कर रहे है, जिसका ममता बनर्जी करती रही हैं। ममता के क़िले में सेंध लगनी शुरू हो गयी है। अमित शाह ने पहले ही ममता के यहाँ नंबर दो के नेता रहे मुकुल राय को कमल पकड़ाया। अबकी शुभेंदु अधिकारी को अपने पाले में खड़ा कर लिया है। पश्चिम बंगाल की राजनीति के केंद्र में हाल फ़िलहाल काँथी क़स्बा है। ब्रितानी काल के दौरान इसे कोंटाई नाम से जाना जाता था। कांथी में शुभेंदु अंधिकारी का घर है। शुभेंदु नंदी ग्राम के किसानों का चेहरा थे। इसी आंदोलन ने 2011 में ममता के सरकार बनाने का रास्ता खोला था। वह टीएमसी के दूसरे सबसे लोकप्रिय नेता हैं।
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ममता, हिंदी भाषी व दलितों का सवाल उठा रही हैं
भाजपा की चुनौतियों से ममता की दिक़्क़त साफ पढ़ी जा सकती हैं। उनकी बेचैनी उनके हालिया फ़ैसलों में दिखती हैं। जो ममता बंगाली अस्मिता व और संस्कृति की बात उठाती रही हैं। वह हिंदी भाषी व दलितों का सवाल उठा रही हैं। तुष्टिकरण से बचने के लिए आठ हज़ार पुरोहितों को एक हज़ार रूपये मासिक भत्ता मकान देने का ऐलान करना पड़ा।इमामों को वक़्फ़ के मार्फ़त 2500 रूपया दे रहीं हैं। 37 हज़ार दुर्गा पूजा समितियों को 50-50 हज़ार रूपये का अनुदान देने का एलान किया।पूजा समितियों के बिजली बिल में 59 फ़ीसदी छूट दी। समितियों से वसूले जाने टैक्स ख़त्म कर दिये।दलित अकादमी का गठन के साथ हिंदी भाषी वोटरों पर भी उनकी नज़र पहली बार गयी।यह काम अपने नेता दिनेश त्रिवेदी को थमाया है।81 हज़ार फेरीवालों को एकमुश्त दो दो हज़ार का अनुदान दिया।
पीके की कंपनी, ममता का प्रचार का काम कर रही
प्रशांत किशोर ( पी के ) की कंपनी "आई पैक" ममता का प्रचार का काम कर रही है। दीदी बोलो जिसमें कोई भी व्यक्ति सीधे ममता से बात कर सकता है कार्यक्रम लोकप्रिय भी हुआ। प्रशांत किशोर ने सोमवार को एक ट्विट में यहाँ तक कहा कि भाजपा दहाई के आँकड़े के लिए संघर्ष कर रही है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो मैं ट्विटर छोड़ दूँगा।
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पीके को भाजपा की ताक़त का अंदाज़ा नहीं
पीके को भाजपा की ताक़त व संसाधनों का अंदाज नहीं है। तभी तो प्रशांत किशोर के इस वक्तव्य में उनके काम करने के भरोसे व सफलता का आत्मविश्वास अभिमान की हदें पार करता दिख रहा है। क्योंकि बीते लोकसभा चुनाव में भाजपा को 18 सीटें मिलीं थीं। जबकि अमित शाह ने 22 सीटों का लक्ष्य रखा था। यहाँ लोकसभा की 42 सीटें हैं। जबकि 2014 के चुनाव में भाजपा मात्र दो सीटें जीत पायी थी। यही नहीं, लोकसभा चुनाव के नतीजे बताते हैं कि भाजपा 128 सीटों पर बढ़त पर थी। जबकि पिछले ममता की टीएमसी को केवल 158 सीटों पर बढ़त थी। 2016 में ममता 211 सीटों पर जीती थीं। यही नहीं, 2014 में भाजपा के हाथ केवल 17 फ़ीसदी वोट थे, जो 2019 में बढकर 40 फ़ीसदी हो गये। यह ममता बनर्जी को मिले वोटों से केवल तीन फ़ीसदी कम है।
हिंदू वोटों की लामबंदी का संकेत
यह पार्टी के पक्ष में हिंदू वोटों की लामबंदी का संकेत है। पिछले साल लोकसभा चुनाव के बाद लोकनीति और सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज के एक सर्वे से पता चलता है कि भाजपा के 57 फीसदी वोट हिंदुओं से आए। केवल 4 फीसदी मुसलमानों के वोट रहे। टीएमसी के लिए 70 फीसदी मुसलमानों ने और 32 फीसदी हिंदुओं ने वोट किया।
बंगाल की 10 करोड़ आबादी में से लगभग 7 करोड़ हिंदू हैं। इनमें लगभग 5.5 करोड़ बंगाली हैं।यह वर्ग, जाति और क्षेत्र के आधार पर बंटा हुआ है। लेकिन पिछले एक दशक में यह फैक्टर बदला है। राजनीतिक दलों ने इसे खूब हवा दी है। मिसाल के तौर पर 2019 के लोकसभा चुनाव में, पुरुलिया, पश्चिम मिदनापुर, झाडग़्राम, बांकुड़ा और बीरभूम के अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्ग ने भाजपा का समर्थन किया, जिससे भाजपा इन जिलों की आठ में से पांच सीटें जीत गई।
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मुसलमानों की 27 फीसदी आबादी
राज्य में करीब 27 फीसदी आबादी मुसलमानों की है। मुर्शिदाबाद, मालदा और नार्थ दिनाजपुर जिलों में तो 50 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम हैं। इसके अलावा बीरभूम में 37.06, साउथ चौबीस परगना में 35.57, नदिया में 26.76 और नार्थ चौबीस परगना में 25.82 फीसदी मुस्लिम आबादी है। हावड़ा, हुगली और बर्धमान में भी मुसलमानों की खासी तादाद है। राज्य की 294 सीटों में से 90 –100 सीटें मुस्लिम वोटों से तय होती हैं।
पिछले कम से कम पांच विधानसभा चुनावों में यही सीटें बंगाल में सरकार बनवाने में अहम् भूमिका अदा करती आयीं हैं। पुराने दौर में बंगाल का मुस्लिम वोटर कभी किसी एक पार्टी का वोट बैंक नहीं रहा। कांग्रेस, कम्युनिस्ट और तृणमूल, सभी को मुसलमान वोट मिलते रहे। लोकल नेता अपने प्रभुत्व के बल पर मुस्लिम वोट पा जाते थे। यही वजह है कि मुसलमानों के कंट्रोल वाली सीटों पर फॉरवर्ड ब्लाक, राजद, आरएसपी, सीपीआई और अन्य क्षेत्रीय दलों की जीत होती रहती थी।
मुसलमान वोटरों को अपने पक्ष
2006 के बाद ये हालात बदलने लगे और ममता बनर्जी की तृणमूल ने धीरे धीरे मुसलमान वोटरों को अपने पक्ष में करना शुरू कर दिया। लेकिन यही कोर वोटर व उनके प्रचार की कमान सँभालने वाले प्रशांत किशोर अब ममता के लिए गले की फांस बन चुके हैं। एक तो ममता बनर्जी की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति ने हिन्दू मतदाताओं को भाजपा की तरफ भेज दिया है। दूसरे कि असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम ने बंगाल चुनाव में उतरने की घोषणा करके यह तय कर दिया है कि मुस्लिम वोट में अच्छा खासा बंटवारा होगा।
इन दोनों पहलुओं का खामियाजा तृणमूल को ही भुगतना है। ममता बनर्जी ने मुसलमानों के बीच एनआरसी और सीएए को लेकर बहुत ब्रेन वाशिंग की है। इसमें केजरीवाल, फारूक अब्दुल्ला और अखिलेश यादव आदि का भी सहयोग मिला है। बंगाल के मुस्लिमों में भय समा गया है कि असम के बाद अब एनआरसी का नम्बर बंगाल में लगने वाला है। इस भय की वजह बंगाल में बड़े पैमाने पर अवैध रूप से आये बांग्लादेशियों की घुसपैठ है जो अब तृणमूल के बड़े वोट बैंक हैं।
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भाजपा का फोकस हिंदुत्व
भाजपा का फोकस हिंदुत्व, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय मुद्दों पर है। ममता बनर्जी की तृणमूल बंगाल की अस्मिता और क्षेत्रवाद को मुद्दा बनाये हुए है। भाजपा के पास कोई मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं है।पार्टी के पास यूपी, बिहार आदि की तरह कॉडर नहीं है। टीएमसी, सीबीआई,सीपीआईएम, और कांग्रेस के कई बड़े नेता भाजपा में शामिल होते दिखेंगे।
पश्चिम बंगाल में नई भाजपा दिख सकती है
इन नेताओं को भाजपा कार्यकर्ता स्वीकार करेगा या नहीं? पुरानी नहीं, पश्चिम बंगाल में नई भाजपा दिख सकती है। यह एक और एक मिलकर किस तरह ग्यारह हो सकते हैं । भाजपा को इसी खेल को अंजाम देना है। उनकी पार्टी के प्रतीक पुरुष डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का यह गृह राज्य है। नरेंद्र मोदी व अमित शाह भाजपा को इस काम को अंजाम देना है। उनके जम्मू कश्मीर के सपने को तो वह पहले ही धारा 370 को कमजोर करके पूरा कर दिखा चुके हैं।
पश्चिम बंगाल में चुनाव बहुसंख्यक केंद्रित करने में यदि ये कामयाब हो पायेंगे तब उम्मीद की जानी चाहिए। वह भी तब जब ममता की सरकार की जगह वहाँ राष्ट्रपति शासन हो। क्योंकि राजनीति में किसी के पक्ष में चलने वाली लहर हमेशा सही तस्वीर पेश नहीं करती। पर यह भी सही है कि नोट बंदी के बाद भाजपा यूपी जीत गयी। कोरोना के बाद बिहार। अब किसान आंदोलन के बाद पश्चिम बंगाल हो रहा है।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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