हर दिल जो प्यार करेगा... चरम है दीवानगी, विकृति दिमाग में चढ़ना
रोमनों ने प्रेम के इस प्राचीन उत्सव का सिर्फ़ नाम ही नहीं बदला। इसकी एक प्रथा भी बंद कर दी। जिसके तहत उत्सव में शामिल महिलाओं की पिटाई की जाती थी। इसके पीछे यह विश्वास था कि महिलाएँ जितनी पिटेंगी, उनकी प्रजनन क्षमता उतनी बढ़ेंगी।
योगेश मिश्र
एक बार मुलाक़ात हुई नहीं कि दूसरी की हसरत जग जाती है। तीसरी मुलाक़ात का अवसर भी भौंरे की तरह दिमाग़ में चक्कर लगाता हुआ अंदर कोई खाका खींच रहा होता है। कितनी उम्मीदें होती हैं। झोली भरी हुई , जिन्हें मुट्ठी में भरकर ‘उस‘ को देना चाहते हैं हम। यह भी चाहते हैं कि मुट्ठी भींचे रहें, कहीं सरक न जाये। हर नई चीज़ को हम पकड़ कर रख लेना चाहते हैं। जो पुराना हो गया है उसे गटर में फेंक देना चाहते हैं। जबकि हम स्वयं ख़ारिज हो चुके मुद्दों के ज़मीन पर खड़ी ज़िंदगी जीते हैं । ज़िंदगी में स्त्री के लिए पुरूष व पुरुष के लिए स्त्री स्वर अनहद की तरह बजता है। तड़प में डूबी मद्धिम सी पुकार ज़िंदगी और प्यार के इर्द गिर्द घूमती है।
प्यार के मायने बदल गए पर अर्थ गहरा है
विचारोत्तेजक संवाद करते हैं हम। सहिष्णुता और असहिष्णुता को चुनौती देते हैं। संवेदनाओं और चेतना को झकझोर डालते हैं । स्नेह का अंक: सलीला उम्मीद, मोहब्बत और इंसानियत, ख़ूबसूरत दुनिया रचती है।
नए पश्चिमी मापदंडों के अनुसार आज प्यार के मायने बेशक बदल गये हों, पर हमारी संस्कृति में प्यार शब्द का गहरा अर्थ है। प्यार पाने की तड़प का मतलब अपने आप को खोकर ‘उसमें’ लीन हो जाना है। हम स्वयं को प्रकृति का एक अंग समझते हैं।
मूल रूप से संबंधों के प्रति संवेदनाओं व वर्तमान परिस्थितियों को व्यक्त करने की कोशिश होती है। सच्चा प्रेम इतना वास्तविक और जीवंत होता है कि उसे शिल्प, रंग रोगन और पच्चीकारी की कोई ज़रूरत नहीं।
प्रेम खेल नहीं है, पर कभी कभी जो प्रेम खेल खेल में हो जाता है, खेल खेल में खेला जाता है। वह भावना से खेलना नहीं, भावनाओं का आदर करना सिखाता है। केवल भावुकता कह कर इस को ख़ारिज नहीं किया जा सकता।
प्रेम विमर्श से हटकर है
कई अर्थों में प्रेम विमर्श से हटकर है। उन में पीड़ा तो है। फिर भी प्रेम तसल्ली और इत्मिनान के साथ अपने ब्योरे चुनता है। उन्हें आगे बढ़ाता है। यह जब घर संसार और गृहस्थी की ज़िंदगी पर चलता है तो ज़्यादा असहज दिखाई देता है। सपाट प्रेम जैसा कुछ नहीं है।प्रेम है लेकिन रिश्तों की चुभन भी है।
भाषा का सधाव और परिस्थितियों की निर्मम चीर फाड़ इसकी विशेषता है। कई जगह थोड़ा अस्वाभाविक लगता है। प्रेम में ज़्यादा प्रांजल और तत्सम शब्दावली कथन को बाधित करने लगती है। पात्र को नाटकीय बना देती है। प्रेम सबके दिलों में होता है। लेकिन जब यह दिमाग़ में चढ़ जाता है तो विकृत हो उठता है।
प्रेम में हम कितने रंग देखते हैं। प्रेम काल में जीवन में कोई न कोई कहानी चलती रहती है । सामान्य से दिखने वाले असामान्य उधेड़बुन में हम सब उलझ जाते हैं। प्रेम खींचतान, तनाव और कश्मकश में उलझाता है। यहाँ पुरुष और स्त्री के नए सपने हैं। होते हैं। हर की नई दुनिया है।
प्रेम उड़ना चाहता है
अनुभव व कल्पना का संसार बदल जाता है। अंदाज़-ए-बयाँ भी बदल जाता है। प्रारंभ में थोड़ा बहकना, थोड़ा संभलना, थोड़ी परिपक्वता। अन्तर्वस्तु के स्तर पर वर्जित क्षेत्रों और विकल्पों का चलन प्रेम में बाँधता जोड़ता है। संभावनाशील प्रेम पंख खोलकर अनंत आकाश में उड़ जाना चाहता है।
तो मन के किसी कोने में रहकर अक्सर वर्तमान की यादों की मीठी ख़ुशबू से महकाते रहना भी चाहता है। वर्तमान में रहते हुए अतीत के उन ख़ास पलों में जी लेना भी चाहता है।
प्रेम का अर्थ है लेना। लेने के साथ देना। यदि हम किसी से कुछ लें। बदले में कुछ भी न दें तो यह प्रेम नहीं हुआ। कहते हैं कि प्राचीन रोम में तेरह चौदह फ़रवरी को प्रेम का उत्सव मनाया जाता था।
संत वेलेंटाइन
लेकिन ईसाइयत में दीक्षित होने वाले रोमन नागरिक अपने इस उत्सव को मना नहीं पा रहे थे। विमुख भी नहीं हो पा रहे थे। अंततः सेंट वैलेंटाइन नाम से उन्होंने यह उत्सव मनाना शुरू किया।
यह वही सेंट वैलेंटाइन थे, जिनके ईसाइयत में दीक्षित होने से नाराज़ होकर रोमन सम्राट क्लाडियस द्वितीय ने उन्हें मरवा दिया था।
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रोमनों ने प्रेम के इस प्राचीन उत्सव का सिर्फ़ नाम ही नहीं बदला। इसकी एक प्रथा भी बंद कर दी। जिसके तहत उत्सव में शामिल महिलाओं की पिटाई की जाती थी। इसके पीछे यह विश्वास था कि महिलाएँ जितनी पिटेंगी, उनकी प्रजनन क्षमता उतनी बढ़ेंगी।
मध्यकालीन अंग्रेज़ कवि जेफ्री चॉसर और लेखक विलियम शेक्सपीयर ने वैलेंटाइन डे की याद में रचनाएँ भी की हैं।
दरअसल, रोमन सम्राट क्लॉडियस द्वितीय ने जब अपने सैनिकों के विवाह पर प्रतिबंध लगाया। तब संत वैलेंटाइन सम्राट के आदेश के ख़िलाफ़ खड़े हुए। अनेक सैनिकों की शादियां कराई।
कहते हैं कि मारे जाने से बहुत पहले जेलर की बेटी से उनका प्रेम हो गया था और उसे भेजी गई एक चिट्ठी में उन्होंने लिखा था- “फ़्राम योर वेलेण्टाइन ।”
प्रेम के एक दिन पर एतराज
हालाँकि मैं प्रेम को समर्पित सिर्फ़ एक दिन पर यक़ीन नहीं करता। फिर भी जिस मानव समाज को घृणा और हिंसा के सार्वजनिक प्रदर्शन पर कोई समस्या नहीं है। उसे प्रेम के सार्वजनिक प्रदर्शन पर एतराज़ है।
वैलेंटाइन डे को अगर कारोबारियों के चंगुल से मुक्त कराया जा सके, बाज़ार के गिरफ़्त से बाहर लाया जा सके तो बहुत अच्छा होगा। क्योंकि हम बाज़ार को नहीं, बाज़ार हमें खा रहा है। यह एक कड़वी पर सच्ची बात है।
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नफ़ा नशा है। नफ़ा बाज़ार में वही करता है, जो नशा इंसान में करता है। उसको पागल कर देता है। इसीलिए हमारे आज के प्रेमी पागल हो बैठे हैं। हिंसा पर उतारू हैं। प्रेम के प्रदर्शन पर आमादा हैं। हत्या करने, आत्महत्या को अंजाम देने लगे हैं। इनका प्रेम शरीर पर आकर ठहर जाता है।
इन्हें क्या पता कि प्रेम अमर उन्हीं का हुआ जो शरीर नहीं पा सके। हो सकता है कि उन्हें अपने प्रेम के अमर करने का मन न हो। पर प्रेम को जीने का मन है न। तब भी इसे ठहरने नहीं देना होगा।
लेकिन दीवाना पहचाना जाएगा
प्रेम में स्मृतियाँ किस्सा बन जाती है। जिसके केंद्र में घटनाएँ होती हैं। व्यक्ति होता है। जीवन को जीने की नहीं , जीवन को बदलने की भी ज़िम्मेदारी होती है। जिसमें हम दिन दिन बनते इतिहास को सबसे पतली शिराओं में गति करते अहसास करते हैं। वह ऑंखों से दिखाई नहीं देता। जिसका काम व्यक्ति के ऊपर है।
भोक्ता-दृष्टा से ऊपर है। उसकी गति भौतिक सामाजिक- राजनीतिक उपस्थिति के इहलोक से इतर एक इतने विराट संसार की उपस्थिति के प्रति हमें अनजान बनाये रखती है। यही स्थिति, मन: स्थिति उसे दीवाना बना देती है। यह उसे सपनों में पींगें मारने को तैयार करती है।
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तभी तो राज कपूर की एक फ़िल्म में शैलेंद्र का गाना है-हर दिल जो प्यार करेगा, वह गाना गायेगा। दीवाना सैकड़ों में पहचाना जायेगा। होम्योपैथी भी अकेले में गाते या गाते चलते को दीवाना मानती है। इस लाइलाज बिमारी की दवा है होम्योपैथी में।