कोरोना जैसे विषाणु रहे हैं मानवता के सबसे बड़े अदृश्य दुश्मन
चोरी छिपे हमला करने वाले विषाणुओं से मानवता का इतिहास भरा पड़ा है। 1910 में पहली न्यूमोनिक प्लेग महामारी हो या 2020 की कोविड-19, सबने जमकर उत्पात मचाया है...
नीलमणि लाल
लखनऊ: चोरी छिपे हमला करने वाले विषाणुओं से मानवता का इतिहास भरा पड़ा है। 1910 में पहली न्यूमोनिक प्लेग महामारी हो या 2020 की कोविड-19, सबने जमकर उत्पात मचाया है। सबसे खतरनाक और भयानक बात ये रही है कि इन विषाणुओं ने ऊपर से स्वस्थ दिख रहे इनसान के जरिये दूसरों के शरीर को निशाना बनाया है।
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न्यूमोनिक प्लेग
1910 के न्यूमोनिक प्लेग की बात करें तो इसने एक लाख से ज्यादा लोगों की जान ले ली थी। उस समय का एक वाकया है जब ब्रिटिश फिजीशियन रेगीनाल्ड फर्रार उत्तर पूर्व चीन के मुक्देन नामक जगह गए थे। यहाँ वे अपने एक सहयोगी के साथ मजदूरों के एक झोपड़े में गए। वहाँ उन्होने 6 मजदूरों को एक बेड पर बैठे देखा। ये सब दिखने में स्वस्थ थे लेकिन खाँस रहे थे। डॉ फर्रार ने सबको एक कपड़े में खाँस कर थूकने को कहा। सबके थूक में खून था और अगले ही दिन सबकी मौत हो चुकी थी।
न्यूमोनिक प्लेग
न्यूमोनिक प्लेग इनसानों को ज्ञात सबसे घातक बैक्टीरिया जनित बीमारी है। ऊपरी तौर पर ये बहुत छिपी नहीं लगती। ये संक्रमण के दो से पाँच दिन के भीतर मरीज को मार डालती है। अगर इलाज नहीं किया गया तो मरना 100 फीसदी तय होता है। एंटीबायोटिक्स देने पर भी मृत्यु दर 14 फीसदी होती है।
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ढाई करोड़ लोगों की ले ली जान
1346-53 की ‘ब्लैक डेथ’ महामारी मानव इतिहास की सबसे बड़ी महामारी मानी जाती है। इसने पूरे विश्व को जला दिया था और सिर्फ यूरोप में ही अनुमानतः ढाई करोड़ लोगों की जान ले ली थी। ब्लैक डेथ कब्रिस्तानों में दफन लाशों के दांतों से लिए गए डीएनए परीक्षण से पता चला है कि ये महामारी ‘येर्सिनिया पेस्टिस’ नाम के प्लेग विषाणु से फैली थी। इसी विषाणु से 1910 के न्यूमोनिक प्लेग में चीन के हजारों लोग मारे गए थे।
आज भी पश्चिमी अमेरिका में जंगल के कुत्तों और गिलहरियों के अलावा चंद लोग हर साल इस विषाणु से मारे जाते हैं। अमेरिका के अलावा अफ्रीका और बाकी विश्व में करीब 1600 लोगों की मौत हर साल इस विषाणु से होती है।
क्यों फैला प्लेग
ब्लैक डेथ आज के समय के प्लेग से एकदम अलग था। प्लेग असल में चूहों और चूहों को काटने वाले पिस्सुओं द्वारा फैलाई जाने वाली बीमारी है जिसका अगर इलाज नहीं किया जाये तो मृत्यु दर 60 से 100 फीसदी तक होती है। चूहों के अलावा फेफड़ों के जरिये भी प्लेग फैलता है जिसे न्यूमोनिक प्लेग कहते हैं।
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बहरहाल, कई दशकों तक वैज्ञानिक, इतिहासकार, शोधकर्ता ये मानने को तैयार नहीं थे कि चूहे जैसे धीमी रफ्तार वाले जीव से पूरे विश्व में ब्लैक डेथ जैसी भयानक बीमारी फैली होगी। लेकिन ब्लैक डेथ के शिकार लोगों के डीएनए के परीक्षण से शोधकर्ताओं ने साबित कर दिया कि ब्लैक डेथ का कारण प्लेग ही था। इस खोज से वैज्ञानिक हैरान थे कि आखिर ये बीमारी इतने तेजी से फैली कैसे?
चुपके से पकड़ने वाली बीमारी
वैज्ञानिकों ने पाया कि प्लेग छल से, चुपके से कपट से फैलने वाली बीमारी है। प्लेग का विषाणु यानी वाई पेस्टिस ठीक पोलियोवायरस की तरह चुपके से फैलने वाला विषाणु है जो बड़े कपटपूर्ण तरीके से आगे बढ़ता है। डॉ फर्रार ने मंचूरिया में देखा था कि कैसे मौत के मुहाने पर खड़े लोगों में कोई लक्षण दिखाई नहीं देता था। ऐसा ही ब्लैक डेथ में हुआ था। 14वीं सदी के कवि गिओवन्नी बोकसियो ने लिखा है कैसे उस काल में लोग अपने दोस्तों के साथ डोफार का खाना खाते थे और रात का खाना स्वर्ग में अपने पूर्वजों के साथ खाते थे।
प्लेग चुपके से संक्रमित करता है और झटपट जान ले लेता है। जब विषाणु पूरे शरीर में कब्जा जमा रहे होते हैं तब भी संक्रमित व्यक्ति चलता फिरता रहता है। उस दौर में लोग अपने गाँव में बाहरी लोगों को घुसने नहीं देते थे। किलेबंदे करके रखी जाती थी।
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अब समाप्तप्राय है प्लेग
मूलतः न्यूमेनिक प्लेग बेहद संक्रामक और जानलेवा होता है लेकिन आधुनिक विश्व में ये समाप्तप्राय है। सिर्फ मध्य एशिया में कभी कभार ये बीमारी सिर खड़ा करती है और वही तेजी और तीव्रता दिखाती है लेकिन आधुनिक विज्ञान की बदौलत इस बीमारी पर जल्द काबू पा लिया जाता है। मध्य एशियन प्लेग की एक खासियत इसे अन्य प्लेग से अलग करती है। वो ये कि गिलहरी जैसे बड़े आकार के पशु ‘मरमोट्स’ से इसके विषाणु फैलते हैं। श्वास के अलावा इन विषाणुओं के फैलने के करियर यही मरमोट्स होते हैं। मंचूरियन प्लेग भी मरमोट प्लेग था और काफी मुमकिन है कि ब्लैक डेथ भी मरमोट से फैली थी। क्योंकि मध्य एशिया, खास कर चीन में मरमोट्स पाये जाते हैं।
चुपके से आगे बढ़ता है...
इसके अलावा ब्लैक डेथ इनसानी पिस्सुओं से भी फैली। ये हमारे आदिमकालीन पूर्वजों से इस तरह जुड़े हुये थे कि इन पर ध्यान ही नहीं गया। ये जीव गंदे कपड़ों और चादरों में छिपे रहते हैं और एक व्यक्ति से दूसरे में आसानी से चले जाते हैं। साँसों की ड्रॉपलेट्स की तरह मानव पिस्सू से होने वाला प्लेग बहुत चुपके से आगे बढ़ता है।
प्लेग का रहस्य
प्लेग का रहस्य इसके संक्रमण के तरीके में नहीं बल्कि इस विषाणु की रणनीति में छिपा है। मानव शरीर पर हमला करने में सहूलियत के लिए प्लेग शरीर में किसिस तरह का इन्फ़्लामेशन या सूजन नहीं होने देता। इसके लिए ये विषाणु एक खास तरह के टॉक्सिन का इस्तेमाल करता है। ये टॉक्सिन जब शरीर में रिलीज़ होता है तो हमारी इम्यूनिटी को काम करने से रोक देता है। जब शरीर हमलावर विषाणुओं से लड़ता है तो इन्फ़्लामेशन या सूजन के रूप में ये सामने आता है।
हजारों की संख्या में अचानक लोग मरने लगे
जब इन्फ़्लामेटरी रेस्पोंस हुआ ही हैं तो बुखार, ठंड लगना और बदन दर्द जैसे लक्षण प्रगट नहीं होते। सो प्लेग से संक्रमित व्यक्ति को पता ही नहीं चलता कि वो बीमार है। मौत के क्षण तक ये पता नहीं चलता। ऐसे में संक्रमणएक व्यक्ति से दूसरे में फैलता चला जाता है। जब ब्लैक डेथ मध्य एशिया से आगे बढ़ कर बाकी जागह फैला तो विषाणु एक देश से दूसरे देश, शहर शहर गाँव गाँव लोगों को संक्रमित करता चला गया। जिन लोगों में कोई लक्षण नहीं थे वो हजारों की संख्या में अचानक मरने लगे।
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समय के साथ श्वास के जरिये फैलने वाला संक्रमण तो रुक गया लेकिन इसी दौरान किसी वजह से ये विषाणु चूहों और पिस्सुओं में प्रवेश कर गया। और यूरोप में इसका कहर बरपने लगा। यूरोप में प्लेग का आखिरी बड़ा प्रहार 1720 में हुआ था और इसके बाद ये यूरोप से गायब हो गया लेकिन 19वीं सदी के अंत तक ये रूस में मौजूद रहा। इसके खात्मे की एक वजह शायद ये थी कि सस्ते साबुन के आविष्कार से लोग खुद को और कपड़ों को धो सक्ने में सक्षम बन सके थे।
सार्स वायरस
जब 2002 में चीन में कोरोना वायरस की एक किस्म – सार्स कोव – सामने आई और दुनिया में फैलने लगी तो इसके संक्रमण से मृत्यु दर 10 फीसदी तक पहुँच गई थी। लेकिन अच्छी बात ये रही कि इस वायरस ने सिर्फ 8 हजार लोगों को ही संक्रमित किया जिनमें से 800 से कम लोगों की मौत हुई। इस वायरस में छल जैसा कुछ नहीं था। ये अस्पताल के माहौल में पनपता था जहां वेंटिलेटर और कृत्रिम श्वास की अन्य मशीनों से उत्पन्न ड्रॉपलेट्स के वातावरण में ये असाने से फैल जाता था। चूंकि इसकी खासियत पहचान ली गई थी सो इसे कंट्रोल करना आसान था। क्वारंटाइन और आइसोलेशन जैसे पुराने और आसान तरीकों के जरिये इसे दबा दिया गया। चंद महीनों में ये खत्म हो चुका था।
कपटी है कोविड-19
सार्स कोव से जीनेटिक समानता के बावजूद कोविड-19 बीमारी पैदा करने वाला वायरस एक अलग राक्षस है। सांस पर पनपने वाले अधिकांश विषाणु डिस्ट्रिब्यूशन के लिए खांसी और छींकने पर निर्भर रहते हैं लेकिन सार्स कोव – 2 यानी कोविड-19 का वायरस लक्षण सामने आने से पहले ही इनसान की श्वसन प्रणाली में भारी संख्या मौजूद रह सकता है। कोविड-19 में आपको वायरस फैलाने के लिए खाँसने, छींकने, नाक पोंछने और फिर किसी सतह को छूने या किसी का हाथ पकड़ने की जरूरत नहीं है। सिर्फ किसी के करीब गाने, बोलनेया फुसफुसाने से ही वायरस उछल कर दूसरे व्यक्ति में जा सकता है। जिनमें वायरस जाएगा उनमें से भी कुछ लोग ही बीमार पड़ते हैं।
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मानव इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ
लेकिन ऐसे लोगों की श्वसन प्रणाली में ये वायरस दो से 5 दिन के भीतर या कभी कभी तो दो हफ्ते बाद तक, जमा रहेगा और संक्रमण को आगे बढ़ाता जाएगा। चर्च में व्याख्यान ड़े रहे पादरी, समूह में गा रहे लोग, घुटनों के बल बैठ कर प्रार्थना कर रहे लोग – ये सब संक्रमण फैला चुके हैं। इनमें से कुछ लोग इतने बीमार हो जाते हैं कि उनके फेफड़े बर्बाद हो जाते हैं, किडनी फ़ेल हो जाती है, नसों में खून जम जाता है, स्ट्रोक पद जाता है। बहुत से लोगों की मौत हो जाती है। जिस तरह कोविड-19 दुनिया में फैला है उससे ब्लैक डेथ बहुत पीछे रह गई है। मानव इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है। सबसे भयानक बात ये है कि ये नया विषाणु छल, कपट और चुपके से फैलता है।
प्लेग और कोविड
कोरोना महामारी के शुरुआती दिनों में शोधकर्ताओं ने ये समझा कि ये वायरस सिर्फ बड़े आकार के गीले ड्रॉपलेट्स में रहता है और ये ड्रॉपलेट्स संक्रमित व्यक्ति से निकल कर बहुत से बहुत 6 फुट तक ही हवा में रहते हैं फिर नीचे गिर जाते हैं। ये ठीक वैसे ही है जैसा न्यूमेनिक प्लेग में होता था। लेकिन अब पता चला है कि पाँच माइक्रोन से कम आकार वाले ड्रॉपलेट्स कई घंटों तक हवा में बने रहते हैं और 6 फुट से ज्यादा दूर तक जाते हैं।
विषाणु को कल्चर करना मुश्किल
सिंगापुर के विशेषज्ञ क्रिस्टेन केली कोलमैन का कहना है कि हवा में मौजूद विषाणु को कल्चर करना बहुत मुश्किल होता है। हवा के नमूने एकत्र करने की प्रक्रिया में वायरस मर जाता है और इसके अलावा हवा के नमूने बहुत डाइल्यूटेड होते हैं। डब्लूएचओ ये मानता ही नहीं है कि वायरस हवा के जरिये फैल सकता है क्योंकि उसे सबूत चाहिए कि पाँच माइक्रोन डायमीटर से कम आकार वाली साँसों की वाष्प में वायरस ट्रांसमिट हो सकता है। यही सबसे बड़ी गलती है। अधिकारियों को उचित कदम उठाने से पहले सबूत चाहिए होते हैं।
एक गणित है महामारी
महामारी कोई ऐसी चीज नहीं जिसका समय समय पार आना लाजिमी है। महामारी एक गणित है जो सभी स्थितियाँ अनुकूल होने पर ही फैलती है। आज की दुनिया आपस में बहुत जुड़ी हुई है ऐसे में महामारी फैलने की बहुत गुंजाइश रहती है। महामारी के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ भी इनसान स्वयं बनाते हैं। 2009 की एच1एन1 फ्लू महामारी भी बीमारी के कारखाने से निकली थी। वो कारख़ाना था मेक्सिको का एक विशाल सूअर फार्म।
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चीन के वुहान सीफूड होल सेल मार्केट को कोविड-19 वाइरस का सोर्स माना जाता है। इसकी वजह ये है कि इस मार्केट में मानव में ट्रांसमिट होने वाले एक नए वायरस की उत्पत्ति के सभी कारक मौजूद थे। एक बड़ी लेकिन बंद जगह में जीवित पशु बेचने वाले एक हजार स्टाल हैं जो वुहान के अमीर लोगों को रेकून कुत्ते, सिवेट बिल्लियाँ, पेंगोलिन और भेड़िये खाने के लिए बेचते हैं।
पिंजड़ों में ठूंस कर रखे गए जानवर, बेहद गंदगी और वहीं पर काम करते ढेरों कर्मचारी। बीमारी की उत्पत्ति के लिए इससे बढ़िया जगह और नहीं हो सकती। मार्केट में लोगों की लगातार आवाजाही से वायरस आराम से फलफूला और फैला। 2002 में सार्स वायरस भी इन्हीं स्थितियों में दक्षिण चीन के गुयांगडांग मार्केट से फैला था। कोविड के बाद बहुत आनी से वायरस कहीं और से पैदा हो सकता है।
औषधीय उपयोग के लिए खाया जाता है मीट
चीन और दक्षिणपूर्व एशिया के देशों में पशुओं के ऐसे बाजार तमाम हैं। इन देशों में जंगली मीट खाने और खिलाने वाले के लिए शान और सम्मान की बात समझी जाती है। ऐसे मीट को औषधीय उपयोग के लिए खाया जाता है। चीनी सरकार ने सार्स वायरस फैलने के बाद ये बाजार बंद करा दिये थे लेकिन बाद में इनको खोल दिया गया। जब तक ऐसे बाजार हैं नई बीमारियों का खतरा बना रहेगा।
भयानक पहलू
इस महामारी का सबसे भयानक पहलू इसी जुड़ी दहशत है। पोलियो वैक्सीन बनने से पहले ऐसी ही दहशत बनी रहती थी। इसी दहशत के चलते लोग ब्लाक डेथ के समय में गाँव छोड़ के भाग जाते थे और दूसरी जगहों पर अन्जाने में बीमारी फैला देते थे। कोरोना वायरस वैसा ही कपटी है। भारत से लेकर अमेरिका तक बहुत से लोग अब भी ये कहते हैं कि कोरोना महामारी एक छ्लावा है, बीमारों के आंकड़े झूठे हैं या फिर लोग ये कहते हैं कि महामारी को बड़ी कंपनियों ने साजिशन फैलाया है।
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मानसिक स्वास्थ्य पर संकट
कोरोना वायरस की कपटी प्रकृति से हम दहशत के साथ हिस्टीरिया की चपेट में आ गए हैं। मानसिक स्वास्थ्य पर संकट आ गया है। लेकिन सच्चाई यही है कि इस आफत से छुटकारा सिर्फ विज्ञान के जरिये पाया जा सकता है। हो सकता है कि सार्स की तरह ये वायरस भी अपनी ताकत खो बैठे। 1918 की फ्लू महामारी में भी वायरस अपनी ताकत कम अवधि में खो बैठा था और एक सामान्य फ्लू की तरह हो गया। लेकिन ये याद रखना चाहिए कि चुपके से फैलने वाले विषाणु कमजोर पड़ जाएँ या जल्दी ऐसा हो जाये इसकी कोई गारंटी नहीं है।
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