कब्र से निकलती हैं लाशें: मनाया जाता है उत्सव, साथ बैठकर लोग खाते हैं खाना
सौ साल पहले गांव में टोराजन (Torajan) जनजाति का एक शिकारी शिकार को जंगल गया। पोंग रुमासेक नाम के इस शिकारी को जंगल के काफी भीतर एक लाश दिखी। रुमासेक ने सड़ती-गलती लाश को देखा और रुक गया।
नई दिल्ली: दुनिया में बहुत सी ऐसी रीती- रिवाजें हैं जिनको सुनकर आप हैरान हो जायेंगे। अब एक ऐसी ही एक रिवाज है जिसमें अजीबो गरीब तरीकों से उत्सव मनाया जाता है लेकिन कभी ऐसे त्योहार के बारे में सुना है, जो लाशों के बीच मनाया जाता हो। इंडोनेशिया देश में मा'नेने फेस्टिवल ऐसा ही है। एक खास जनजाति के लोग ये त्योहार मनाते हैं, जिसका मकसद लाशों की साफ-सफाई होता है। इस जनजाति के लोग मानते हैं कि मौत भी एक पड़ाव है, जिसके बाद मृतक की दूसरी यात्रा शुरू होती है। इस यात्रा के लिए तैयार करने को वे लाशों को सजाते हैं।
ये है पूरी कहानी
बता दें कि मा'नेने फेस्टिवल की शुरुआत आज से लगभग 100 साल पहले हुई थी। इसके पीछे बरप्पू गांव की एक कहानी है जिसे वहां के बड़े-बूढ़े सुनाते हैं। बताया जाता है कि "सौ साल पहले गांव में टोराजन (Torajan) जनजाति का एक शिकारी शिकार को जंगल गया। पोंग रुमासेक नाम के इस शिकारी को जंगल के काफी भीतर एक लाश दिखी। रुमासेक ने सड़ती-गलती लाश को देखा और रुक गया। उसने अपने कपड़े लाश को पहनाए और उसका अंतिम संस्कार किया।
इसके बाद से रुमासेक की जिंदगी में काफी अच्छे बदलाव आए और उसकी बदहाली भी खत्म हो गई। इसी के बाद से इस जनजाति में अपने पूर्वजों को सजाने की ये प्रथा चल निकली। माना जाता है कि लाश की देखभाल करने पर आत्माएं आशीर्वाद देती हैं।
ये मृतक की खुशी के लिए होता है
इस त्योहार की शुरुआत किसी की मौत के साथ ही हो जाती है। परिजन की मौत पर एक दिन में उसे दफनाया नहीं जाता, बल्कि कई दिनों तक उत्सव होता है। कई बार ये हफ्तों चलता है। ये मृतक की खुशी के लिए होता है जिसमें उसे अगली यात्रा के लिए तैयार किया जाता है। ये यात्रा पुया कहलाती है। इसकी शुरुआत बड़े जानवरों को मारने से होती है, जैसे बैल और भैंसें।
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इसके बाद मृत जानवरों की सींगों से मृतक का घर सजाते हैं। मान्यता है कि जिसके घर पर जितनी सींगें लगी होंगी, अगली यात्रा में उसे उतना ही सम्मान मिलेगा। ये भी एक वजह है कि अंतिम संस्कार लंबा चलता है क्योंकि ये काफी महंगा होता है और सामान जुटाने के लिए परिजनों को वक्त चाहिए होता है।
लाशों को लकड़ी के ताबूत में बंद करके गुफाओं में रखा जाता है
इसके बाद बारी आती है मृतक को दफनाने की। वहां जमीन के भीतर दफनाने की बजाए लाश को लकड़ी के ताबूत में बंद करके गुफाओं में रख दिया जाता है। अगर किसी शिशु या 10 साल से कम उम्र के बच्चे की मौत हो तो उसे पेड़ की दरारों में रख दिया जाता है।
लाशों को पहनाई जाती हैं टोपी, काला चश्मा, घड़ी
मृतक का शरीर ज्यादा से ज्यादा दिनों तक सुरक्षित रह सके, इसके लिए उसे अलग-अलग तरह के कई कपड़ों की लेयर में लपेटा जाता है। मृतक को कपड़े ही नहीं, बल्कि आभूषण तक पहनाए जाते हैं। आजकल के हिसाब से उन्हें फैशन की चीजें,जैसे टोपी, काला चश्मा, घड़ी जैसी चीजें भी पहनाई जाती हैं। ये इसपर निर्भर है कि मृतक के परिवार के पास कितने पैसे हैं।
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सजाने-धजाने के बाद मृतक को लकड़ी के ताबूत में बंदकर उसे पहाड़ी गुफा में रख दिया जाता है। साथ में लकड़ी का एक पुतला रखा जाता है, जिसे ताउ-ताउ कहते हैं। ये पुतला लाशों की रक्षा करता है। माना जाता है कि ताबूत के अंदर रखा शरीर मरा नहीं है, बल्कि बीमार है और जब तक वो सोया हुआ है, उसे सुरक्षा चाहिए होगी।
लाशों के साथ बैठकर ही लोग खाना खाते हैं
इसके बाद हर तीन साल पर मरने की तिथि के आसपास लाशों को खोदकर निकाला जाता है और उसे दोबारा नए कपड़े पहनाकर तैयार किया जाता है। लाशों के साथ बैठकर ही लोग खाना खाते हैं। नाच-गाना होता है और फिर वैसे ही लाशों को सुला दिया जाता है। उतरे हुए कपड़ों को परिजन पहन लेते हैं। काफी सालों बाद जब लाश हड्डियों में बदलने लगे, तब जाकर उसे जमीन में दफनाया जाता है।