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महात्मा गांधी का जुनून जो इनके जीवन का बन गया युगधर्म

ये कुछ उदाहरण ऐसे हैं जो यह बताते हैं कि गांधी का जुनून, उनके संघर्ष के सबक आज भी हमारे आपके सबके भीतर जिंदा हैं जरूरत है बस अपने आसपास किसी ऐसे अभिनव, प्रेरक व सार्थक प्रयास की। जो देश व समाज को नवप्रेरणा से भर दे।

Manali Rastogi
Published on: 28 Jun 2023 11:12 AM IST (Updated on: 28 Jun 2023 1:14 PM IST)
महात्मा गांधी का जुनून जो इनके जीवन का बन गया युगधर्म
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पंडित रामकृष्ण वाजपेयी पंडित रामकृष्ण वाजपेयी

वास्तव में गांधी कोई नहीं बन सकता। क्योंकि महात्मा गांधी बन पाना किसी के वश की बात नहीं इसके लिए जिस त्याग और बलिदान की जरूरत होती है साधारणतः कोई इसे स्वीकार नहीं कर सकता। यह बात अक्सर वह लोग करते हैं जो सब तरफ से आंख मींचकर मूदौ आंख कतौ कछु नाहीं के सिद्धांत को अपनी जिंदगी में आत्मसात कर चुके हैं।

मगर गांधी, मदर टेरेसा, राजा राममोहन राय, मदन मोहन मालवीय, बाल गंगाधर तिलक, सुभाषचंद्र बोस के जुनून को अपने जीवन में अपनाकर हम अपनी पहचान बना सकते हैं। समाज और देश का भला कर सकते हैं। इसके लिए सिर्फ एक चीज की जरूरत है वह है आपकी आत्मशक्ति।

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यह बात कई लोगों को अतिश्योक्ति लग सकती है लेकिन इस सच को स्वीकारने में समाज और देश की भलाई है जहां निराशा में आकंठ डूबे लोग अक्सर यह कहते घूमते नजर आते हैं कि गांधी जैसा कोई नहीं बन सकता। गांधी के आदर्शों को हमने भुला दिया। हम गांधी को याद करते हैं लेकिन गांधी के आदर्शों को अपनाने में डरते हैं।

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वास्तव में यदि हम अपने ऊपर ओढ़ा गया छद्म आवरण हटा दें तो गांधी की राह पर चलना कत्तई नामुमकिन नहीं है क्योंकि यह धरती जिसने गांधी ही नहीं तमाम सपूत दिये हैं अभी बंजर नहीं हुई है। यदि कोई गांधी के एक अंश को भी अपनाता है तो वह गांधी को जी रहा है।

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दरअसल हमें यह समझना होगा कि गांधी के जीवन का जुनून न तो आधुनिक सभ्यता को सुधारना था, न ही इसे खारिज कर वर्ण व्यवस्था को बनाए रखना। जहां तक प्रतीत होता है कि उनका पक्के तौर पर यह मानना था कि इंसान की सीमाओं के चलते, एक तरह की समाजिक व्यवस्था विकसित करने के लिए असली काम आत्मबोध विकसित करना है।

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जिसे युग धर्म भी कहा जा सकता है। जो वर्तमान में प्रासंगिक और व्यवहारिक हो। आज हम ऐसे ही कुछ लोगों की चर्चा करेंगे जिनका आत्मबोध विकसित हुआ और वह सफलता के सोपान पार करते हुए अपनी पहचान बनाते हुए आगे बढ़ रहे हैं।

पोलियो को जड़ से मिटाने का उठा लिया संकल्प

सबसे पहले हम चर्चा करते हैं उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जिले के तुलसीपुर के भकचहिया निवासी संजय शुक्ल की एक घटना या किक ने उनकी जिंदगी की दिशा ही बदल दी। यह घटना थी उनकी बड़ी बहन को पोलियो की बीमारी का शिकार होना। इस घटना ने उनके मन मस्तिष्क पर इतना गहरा असर डाला कि उन्होंने इस बीमारी के खिलाफ जंग क्षेड़ दी।

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मकसद था कि अब कोई बच्चा इस बीमारी से दिव्यांगता का शिकार न बने। संजय शुक्ल के जीवन का मकसद नाम कमाना नहीं था न ही पैसा कमाना था। वह अपने मिशन में जुट गए। आज उनकी सेवाओं और जागरुकता अभियान का लाभ अपने देश में ही नहीं पड़ोसी देश नेपाल तक में उठाया जा रहा है।

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बीते नौ साल से सिरिया नाका स्थित बॉर्डर बूथ पर सक्रिय संजय शुक्ल अब तक करीब ढाई लाख बच्चों को पोलियो खुराक पिला चुके हैं। यह बूथ 365 दिन संचालित होता है। इस बूथ के जरिये स्वास्थ्य विभाग इनकी सेवाओं का लाभ उठा रहा है।

मूक बधिरों की जुबान बन गई मेधा

पिछले दिनों यू ट्यूब पर एक वीडियो अपलोड हुआ था जो बहुत तेजी से वायरल हुआ था। इस दो मिनट के वीडियो को ग्वालियर की मेधा गुप्ता ने तैयार किया था। साइन लैंग्वेज में तैयार किया गया यह वीडियों लाखों उन लोगों व बच्चों के लिए वरदान बन गया जो लाख कोशिश के बाद भी बोल नहीं पाते या सुन नहीं पाते।

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जब मीडिया से जुड़े लोगों ने मेधा से संपर्क किया तो उन्होंने बताया कि अल्फाबेट इन इंडियन साइन लैंग्वेज वीडियो उन्होंने दो साल पहले यू ट्यूब पर डाला था। जब उनसे इसको तैयार करने की प्रेरणा कैसे मिली तो बहुत मार्मिक बात सामने आई मेधा ने बताया कि उसने जब से होश सम्हाला अपने माता-पिता को मूकबधिर ही देखा।

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उनके माता पिता एक दूसरे से संकेतों में बात किया करते थे। घर में वह भी अपने माता पिता से संकेतों की भाषा में बात करती थी लेकिन माता पिता की पीड़ा देखकर उसने खुद को इस भाषा में माहिर बनाने का फैसला लिया और मुंबई जाकर बाकायदा साइन लैंग्वेज का कोर्स किया। ताकि वह मूक बधिरों को शिक्षित कर सकें।

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मेधा ने 2013 में एक रजिस्टर्ड सोसायटी बनाई जिसे उन्होंने डेफ एजुकेशन एंडी मल्टी टॉस्क सोसायटी नाम दिया। इसके बाद अपने काम को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने बाइलिंग्वल स्कूल फॉर दे डेफ शुरू किया। मेधा आज ग्वालियर से निकल कर राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बना रही हैं।

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उनका एक और वीडियो रीड एंड साइन वर्ड भी बच्चों को काफी पसंद आ रहा है।अब यह उनकी जिंदगी का जुनून बन गया है वह अंतिम सांस तक मूक बधिरों को शिक्षित करने का मकसद लेकर चल रही हैं।

चित्रों के जरिये स्कूलों की सूरत बदलने का जुनून

इसी तरह से एक नाम है बदायूं के मुस्तफा अब्बासी का। जो कि एक साधारण पेंटर थे लेकिन अपनी सोच और जज्बे के कारण एक अलग पहचान बना चुके हैं। अब्बासी के बनाए चित्र बच्चों को इस कदर आकर्षित करते हैं कि दूरदराज के गांवों के बच्चे सरकारी स्कूलों में खिंचे चले आ रहे हैं।

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अब्बासी के चित्र बच्चों को प्रेरणा भी देते हैं, पढ़ने और आगे बढ़ने का संदेश भी। खास बात यह है कि एक साल पहले इस मुहिम को शुरू करने वाले अब्बासी किसी भी सरकारी स्कूल से अपनी चित्रकारी के बदले कोई पैसा नहीं लेते।

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मगर उनका जुनून उनकी पहचान बना रहा है। वह अपनी साधारण जीविका की गाड़ी चलाते हुए कुछ समय इन स्कूलों को संवारने पर तो देते ही हैं साथ ही अपनी कमाई का एक हिस्सा भी सरकारी स्कूलों में सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए लगा देते हैं।

कुरीतियों से लड़ने के जुनून ने बना दिया साइकिल वाली दीदी

मूलतः हमारे अंदर कब किसी बात का किस चीज का या परिवेश का क्या असर होता है हमें खुद नहीं पता होता। सोचने की बात है कि एक मासूम बच्ची जो चौथी पांचवीं कक्षा में पढ़ते समय सामाजिक कुरीतियों बाल विवाह, दहेज प्रथा आदि को लेकर नुक्कड़ नाटक करते करते इतनी परिपक्व हो जाती है कि उसके अंदर इन कुरीतियों से लड़ने का जुनून जाग जाता है।

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यह जुनून धीरे धीरे इतना परिपक्व हो जाता है कि स्कूल से निकल कर कालेज पहुंचते पहुचते उसकी पहचान साइकिल वाली दीदी की बन जाती है। जी हां ये कहानी है बिहार के जमुई की इशरत खातून की जो अभी सिर्फ 11वीं कक्षा में पढ़ रही है।

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देखने में छोटी बच्ची ही लगती है लेकिन महिलाओं के समानता के अधिकार, दहेज प्रथा, बाल विवाह जैसी कुरीतियों पर उसका संघर्ष उसे उसकी उम्र के हिसाब से बड़ा बना देते हैं। इशरत को यह सम्मान उसके हौसले जुनून और अंतहीन कोशिशों का नतीजा है।

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इसके अलावा बचपन में पिता साय़ा सर से उठने के बाद उसकी मां ने उसे सब्जी बेचकर पाला। पढ़ाया। आगे की पढ़ाई थम गई। मां बीमार रहने लगी तो उसने सिलाई सीखकर दर्जनों लड़कियों की टोली तैयार कर दी और आत्मनिर्भरता की मुहिम भी छेड़ दी।

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ये कुछ उदाहरण ऐसे हैं जो यह बताते हैं कि गांधी का जुनून, उनके संघर्ष के सबक आज भी हमारे आपके सबके भीतर जिंदा हैं जरूरत है बस अपने आसपास किसी ऐसे अभिनव, प्रेरक व सार्थक प्रयास की। जो देश व समाज को नवप्रेरणा से भर दे।

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