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कहानी तिब्बत की: बौद्ध धर्म की धरती पर खूब खेला गया धोखेबाज़ी और खूनी खेल

वो तिब्बत जिसके सर्वमान्य नेता भारत में शरण लिए हुये हैं। ये एक ऐसा देश है जिस पर मंगोलों, नेपालियों और चीनियों ने बार-बार हमले किए।

Aradhya Tripathi
Published on: 22 Jun 2020 7:28 PM IST
कहानी तिब्बत की: बौद्ध धर्म की धरती पर खूब खेला गया धोखेबाज़ी और खूनी खेल
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नीलमणि लाल

लखनऊ: भारत और चीन के बीच का इलाका है तिब्बत का। वो तिब्बत जो सैकड़ों साल तक आज़ाद रहा लेकिन चीन ने धोखेबाज़ी और सेना के बल पर कब्जा कर लिया। वो तिब्बत जिसके सर्वमान्य नेता भारत में शरण लिए हुये हैं। ये एक ऐसा देश है जिस पर मंगोलों, नेपालियों और चीनियों ने बार-बार हमले किए। सबने कब्जा करने की कोशिशें कीं। एक शांत और धर्मपरायण देश के नागरिकों के साथ सिलसिलेवार दगाबाजी की गई। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण ये रहा कि मदद के नाम पर पीठ में छुरा घोंपने का ही काम किया गया।

बौद्ध धर्म का आगमन और प्रसार

दुनिया की छत पुकारा जाने वाला तिब्बत बहुत विशाल भूभाग वाला क्षेत्र है। भारत का करीब दो तिहाई क्षेत्रफल। बुद्ध के जन्म यानी सन 1063 से 500 साल पहले शेनराब मिवो नामक एक महान शख्सियत ने शेन नस्ल के लोगों की आदिम प्रथाओं में सुधार किया और तिब्बती बोन धर्म की स्थापना की। प्राचीन मान्यता है कि 18 शांगशुंग राजाओं ने तिब्बत पर राज किया था। जिनके बाद सम्राट न्यात्री सेनपो का शासनकाल रहा।

आधुनिक तिब्बती कैलेंडर की शुरुआत ईसा पूर्व 127 में सम्राट न्यात्री सेनपो के गद्दीनशीन होने की तिथि से होती है। तिब्बती के शाही वंश का क्रम एक हजार साल तक चला और सम्राट त्रि वुदुम त्सेन की वर्ष 842 में हत्या के साथ खत्म हो गया। तिब्बती सम्राटों में सोंग्त्सेन गाम्पो के काल में तिब्बत एक मजबूत सैन्य शक्ति बन गया था और इसकी सेनाएँ मध्य एशिया तक गईं थीं। सोंग्त्सेन गाम्पो ने तिब्बत में बौद्ध धर्म को बढ़ावा दिया और अपने एक मंत्री तथा अन्य युवाओं को भारत में शिक्षा के लिए भेजा था।

चीन पर भी था कब्जा

सम्राट त्रिसोंग देउत्सेन (755-797) के शासन काल में तिब्बती साम्राज्य अपने शिखर पर था। इन्हीं के शासनकाल में तिब्बती सेना ने चीन और अन्य मध्य एशियन देशों पर हमला किया। 763 ईस्वी में तिब्बत ने चीनी राजधानी शांगआन ( वर्तमान शियान) पर कब्जा कर लिया जिसके बाद चीनी राजा भाग गए और तिब्बत ने एक नया शासक गद्दी पर बैठा दिया। इस विजय गाथा का वर्णन ल्हासा में एक पत्थर के स्तम्भ पर लिखा हुआ है।

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इसी दौर में तिब्बत में गुरु पद्मसंभव ने पहले मठ की स्थापना की थी। पद्मसंभव ने ही बौद्ध धर्म को शीर्ष स्थान प्रदान किया। इसके बाद चीनी भिक्षुओं को तिब्बत से भगा दिया गया और बौद्ध धर्म के चीनी रूपान्तरण को हमेशा के लिए तिब्बत से समाप्त कर दिया। इसी के साथ बुद्धिज़्म की भारतीय प्रणाली को अपना लिया गया। इसके बाद बौद्ध धर्म को तिब्बत का राज धर्म घोषित कर दिया गया।

चीन से संधियाँ और शाक्य वंश

सम्राट नाधक त्रि रल्पाचेन के शासन काल (815-836) में तिब्बती सेनाओं ने कई क्षेत्रों को फतह किया और 821 में चीन के साथ एक शांति संधि की गई। 838 में रल्पाचेन के भाई वुदुम त्सेन गद्दी पर बैठे। उसने बोन धर्म की पुनः स्थापना की कोशिश करने के साथ बौद्धों को प्रताड़ित करना शुरू कर दिया। इसका नतीजा एक बौद्ध भिक्षु के हाथों रल्पाचेन की हत्या के रूप में सामने आया। रल्पाचेन की हत्या के बाद तिब्बती साम्राज्य उनके दो पुत्रों में बंट गया।

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इसकी परिणीति राजकुमारों, जनरलों और मंत्रियों की आपसी लड़ाइके बाद साम्राज्य के छोटे छोटे टुकड़ों में विभाजित होने के रूप में हुई। 1073 में कोंचोंग ग्यालपो ने शाक्य वंश की स्थापना की। उनके बाद उनके पुत्र शक्य कुंगो न्यिंगपो ने तांत्रिक परम्पराओं को बढ़ावा दिया और शाक्य संप्रदाय की शुरुआत की। 1244 से 1350 तक शाक्य लामाओं का दबदबा खूब बढ़ा और तिब्बत पर एक के बाद एक 20 शाक्य लामाओं का शासन रहा।

मंगोल राजा को बौद्ध बना दिया

यूरोप और एशिया के तमाम देशों पर हमला करने वाले मंगोलों ने तिब्बत पर भी आँखें लगा दीं और वे हमला कर के ल्हासा के उत्तर में फेनपो तक पहुँच भी गए। लेकिन एक हैरतअंगेज बात ये रही कि मंगोलों के राजा प्रिंस गोदन खान को शाक्य कुंगा ज्ञाल्त्सेन या शाक्य पंडित ने धर्मपरिवर्तन करके बौद्ध बना दिया। इसके बाद मंगोलों की हमलावर सेना वापस चलीं गईं। शाक्य पंडित के भतीजे और उत्तराधिकारी शाक्य फगपा ने बाद में मंगोलों के अगले राजा कुबलाई खान का भी धर्म परिवर्तन कराके उन्हें बौद्ध बना दिया था

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इसके बदले में कुबलाई खान ने तिब्बत की तीनों प्रान्तों को पूर्ण संप्रभुता प्रदान कर दी थी। 1295 में कुबलाई खान की मृत्यु के बाद शाक्य पुरोहितों और शासकों का प्रभुत्व अवसान पर आ गया। 1358 में मध्य तिब्बत प्रांत को नेडोंग के गवर्नर जंगचुब ज्ञाल्त्सेन ने अपने नियंत्रण में ले लिया। जंगचुब बौद्ध धर्म की कागयुद परंपरा की फामो द्रुपा शाखा के भिक्षु थे। इसकी बाद अगले 86 साल तक फामो द्रुप के 11 लामाओं का तिब्बत पर शासन रहा।

अलतान खान और दलाई लामा

1543 में जन्मे सोनम ज्ञात्सो एक प्रमुख आध्यात्मिक गुरु बन कर उभरे थे। वो फामो द्रुपा शासक द्राकपा जुंगने के आध्यात्मिक गुरु बने और उनके समय में कई प्रमुख मठों की स्थापना हुई। सोनम ज्ञात्सो ने तिब्बत में आपसी संघर्षों में उलझे गुटों के बीच सफलतापूर्वक मध्यस्थता भी की और मंगोल राजा कुबलाई खान के वंशज अलतान खान को बौद्ध धर्म स्वीकार कराया था।

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अलतान खान ने 1578 में सोनम ज्ञात्सो को दलाई लामा यानी पांडित्य के सागर की उपाधि प्रदान की थी। 1642 में पांचवें दलाई लामा ग्वांग लोब्सांग ज्ञात्सो ने तिब्बत पर आध्यात्मिक और शासकीय अधिकार जमा लिया और तिब्बती सरकार की स्थापन की।

चीनी साम्राज्य ने स्वीकारी सत्ता

चीन के मांचू सम्राट ने पांचवें दलाई लामा ग्वांग लोब्सांग ज्ञात्सो को चीन आमंत्रित किया और एक संप्रभु सम्राट की भांति बराबरी से उनका स्वागत किया। बताया जाता है कि चीनी सम्राट स्वयं पीकिंग से बाहर ग्वांग लोब्सांग ज्ञात्सो की अगवानी करने गए थे और शहर की दीवारों के ऊपर से एक रास्ता बनवाया गया था ताकि दलाई लामा को किसी गेट से होकर पीकिंग में प्रवेश न करना पड़े।

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चीनी सम्राट ने न सिर्फ दलाई लामा को एक स्वतंत्र संप्रभु के अलावा एक अलौकिक शक्ति के रूप में भी स्वीकारा। इसके बदले में दलाई लामा ने मंगोलों से चीन में सम्राट की सत्ता को मान्यता दिलवा दी। इसी काल में एक गुरु – शिष्य का संबंध शुरू हुआ जिससे तिब्बत – चीन और मंगोलिया के रिश्तों में एक नया कोण जुड़ गया।

पांचवें दलाई लामा के बाद सब बदल गया

पांचवें दलाई लामा के बाद तिब्बत में अस्थायित्व और षडयंत्रों का दौरा आ गया। 1697 में छठवें दलाई लामा त्सान्यंग ज्ञात्सो शासक बने लेकिन उनको राजकाज में कोई भी रुचि नहीं थी। दलाई लामा की स्थिति और प्रधानमंत्री देसि सांग्ये ज्ञात्सो के साथ मंगोल राजा ल्हाजंग खान की निजी तकरार का नतीजा प्रधानमंत्री के इस्तीफे के रूप में सामने आया। इसके बाद ल्हाजंग खान ने पूरी राजनीतिक सत्ता अपने हाथ में ले ली और कुछ समय के उपरांत चीन के मंचू शासक के साथ मिल कर युवा दलाई लामा को निर्वासन में भेज दिया।

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हालत इतने बिगड़ गए कि ल्हासा के तीन बड़े मठों के भिक्षुओं ने द्जुंगर मंगोलों को मदद के लिए बुला लिया। ये मठ कुबलाई खान के समय में स्थापित गेलुग्पा बौद्ध संप्रदाय के थे। बहरहाल, द्जुंगर मंगोल आए और ल्हाजंग खान को पराजित कर उसे मौत के घाट उतार दिया। लेकिन हमलावर इतने से संतुष्ट नहीं हुये और उन्होने न्यिंग्मपा संप्रदाय के अनुयाइयों को प्रताड़ित करना शुरू कर दिया। इस घटनाक्रम से तिब्बतियों में आपसे असंतोष बहुत बढ़ गया।

मंगोलों और चीनियों में संघर्ष

जब छठे दलाई लामा के अवतार कालसंग ज्ञात्सो को पूर्वी तिब्बत के लिथांग में खोज निकाला गया उस दौर में तिब्बत पर प्रभाव कायम करने के लिए मंगोलों की विभिन्न जनजतियों और मंचू शासकों में संघर्ष चल रहा था। इस संघर्ष में चीनी मंचू शासक विजयी रहे और 1720 में उन्होने सेना भेजी ताकि युवा दलाई लामा को सुरक्षित ल्हासा पहुंचाने के साथ साथ ल्हाजंग खान के हत्यारों का बदला भी लिया जा सके।

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लेकिन जब मंचू सेना ल्हासा में घुसी तब तक द्जुंगर हमलावर लूटपाट करके जा चुके थे। चीनी सेना तीन साल बाद वापस चीन लौटी लेकिन उसने अपना एक रेसीडेंट ल्हासा में स्थाटपिट कर दिया। दिखाने को वो दलाई लामा की सहायता के लिए था लेकिन असलियत में उसका काम मंचू शासकों के हितों को आगे बढ़ाना था। यहीं से तिब्बत में चीन के हस्तक्षेप की शुरुआत होती है।

तिब्बत में चीनी घुसपैठ

चीन के मंचू सम्राट ने ल्हासा में अपना आदमी बैठा दिया था लेकिन उनके इरादे पूर्ण कब्जा जमाने के थे। कुछ समय उपरांत मंचू सम्राट ने तिब्बती लोगों की भावनाओं के खिलाफ जा कर तिब्बत में अपनी पसंद का युवराज मनोनीत कर दिया। स्थिति बिगड़ती जा रही थी और कुछ साल बाद मंचू के मनोनीत युवराज के हत्या कर दी गई। इससे भड़क कर मंचू सम्राट यूंग चेंग ने तिब्बत में सेना भेज दी। ये तिब्बत पर चीन का पहला हमला था।

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1727 में मंचू सेना के नियंत्रण के बाद तिब्बती सरकार में प्रशासनिक फेरबदल किए गए। मंचू सम्राट की हरकतें इस हद बढ़ गईं कि उसके रेसीडेंट ने तिब्बती युवराज के हत्या कर डाली। इससे गुस्साये तिब्बतियों ने ल्हासा में मंचू शासक के लोगों का नरसंहार कर डाला। 1749 में मंचू सेना ने फिर ल्हासा पर आक्रमण कर दिया। तिब्बत पर कब्जे की लड़ाई चरम पर पहुँच गई थी।

नेपाल का हमला

तिब्बत के रिश्ते नेपाल से ठीक थे लेकिन कुछ घटनाओं के कारण इनमें खटास आ गई। एक कारण था चाँदी के सिक्कों का। असल में तिब्बत में उस समय चाँदी के सिक्के चलते थे। इन सिक्कों की ढलाई नेपाल में होती थी। पहले तो सब ठीक चला लेकिन नेपाल ने तिब्बत को सप्लाई होने वाले इन सिक्कों में तांबा मिलाना शुरू कर दिया। 1751 में सातवें दलाई लामा ने सिक्कों में मिलावट का विरोध करते हुये गोरखाओं के मुखिया पृथ्वी नारायण से शिकायत की। खटास का दूसरा कारण सिक्किम पर गोरखा हमला था। इस प्रकरण में तिब्बत ने हस्तक्षेप किया था और नेपाल को सिक्किम के साथ संधि करनी पड़ी थी।

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नेपाल को ये बात चुभ रही थी और वे तिब्बत पर हमले का बहाना ढूंढ रहे थे। नेपाल को तब मौका मिल गया जब तीसरे पंचेन लामा की संपत्ति पर उनके दो भाइयों ने दावा ठोंक दिया था। एक भाई शमर तुलकु ने अपने दावे को मजबूती देने के लिए गोरखाओं से मदद मांगी और गोरखाओं को तिब्बत पर धावा बोलने का अवसर मिल गया। आठवें दलाई लामा ने गोरखाओं के खिलाफ मंचू सम्राट चिएन लुंग से सैन्य मदद मांगी और 1792 में सेना तिब्बत में प्रवेश कर गई। इसके बाद चीन की दखलंदाज़ी बहुत ज्यादा बढ़ गई। चीनी रेसीडेंट दलाई लामा के नाम के चयन की प्रक्रिया ही बदलने लग गए।

ब्रिटिश शासकों का दखल

1876 में 13वें दलाई लामा थुब्तेन ज्ञात्सो ने 19 वर्ष की उम्र में कार्यभार संभाला और उनके कार्यकाल में तिब्बत अपनी संप्रभुता की दावेदारी मजबूती से करने लगा। इसी दौर में ब्रिटेन का इस क्षेत्र में दखल शुरू हुआ। चीन ने ब्रिटेन से कहा कि वह तिब्बत पर अपना प्रभाव का विस्तार करे। चीन और ब्रिटेन के बीच 13 सितंबर 1876 में एक समझौता हुआ जिसमें चीन ने ब्रिटेन को तिब्बत में अन्वेषण के लिए टीम भेजने का ‘अधिकार’ दे दिया।

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तिब्बत ने इस करार को अवैध बताते हुये ब्रिटिश टीम को तिब्बत में घुसने देने से इंकार कर दिया। इसके बाद 1886 और 1890 में तिब्बत को लेकर चीन और ब्रिटेन दो और करार हुये लेकिन तिब्बत ने इनको भी मानने से इंकार कर दिया। तिब्बती सरकार ने चीन के बगलगीर ब्रिटेन के साथ किसी भी प्रकार के संबंध से साफ मना कर दिया। उल्टे तिब्बत से 1900 और 1901 में रूस के साथ नए समझौते कर लिए।

ल्हासा पर ब्रिटिश आक्रमण

तिब्बत के साथ रूस की बढ़ती दोस्ती ब्रिटेन को एकदम रास नहीं आ रही थी। जिस तरह एशिया में रूस का प्रभाव बढ़ रहा था उससे ब्रिटेन को अपने लिए खतरा लगने लगा था। इसका नतीजा ये हुआ कि 3 अगस्त 1904 को कर्नल यंगहसबेंड की अगुवाई में ब्रिटिश दल ल्हासा में जबरन घुस गया। तिब्बत को हार मान कर 7 सितंबर 1904 को ब्रिटेन के साथ एक संधि करनी पड़ी। ब्रिटेन के धावा बोलने के दौरान भी तिब्बत एक स्वतंत्र देश की तरह काम करता रहा। चीन ने भी ब्रिटिश आक्रमण के खिलाफ आवाज नहीं उठाई।

इस दौरान 13वें दलाई लामा मंगोलिया चले गए। जब ब्रिटिश तिब्बत से वापस चले गए तब चीन ने तिब्बत के कामकाज में फिर हाथ डालने की कोशिश की। जब दलाई लामा मंगोलिया की कुंबुम मोनास्ट्री में थे तब उनको दो संदेश मिले। एक तिब्बत से आया था जिसमें कहा गया था कि वे वे तुरंत वापस आयें क्योंकि कुख्यात मंचू जनरल चाओ एर्हफेंग सेना ले कर चढ़ाई करने आ रहा है। दूसरा संदेश पीकिंग से आया था जिसमें उनसे चीनी राजधानी आने का आग्रह किया गया था। दलाई लामा पीकिंग चले गए। उनको उम्मीद थी कि वे चीनी सम्राट को तिब्बत पर हमला न करने के लिए मना लेंगे।

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जब दलाई लामा अंततः 1909 में वापस ल्हासा लौटे तो देखा कि पीकिंग में उनसे जो वादे किए गए थे वो सब झूठे निकले हैं। चीनी सेना ने ल्हासा में जमकर नरसंहार, रेप, लूट, बरबादी की थी। दलाई लामा फिर एक बार भागने को विवश हुये और इस बार वे ब्रिटिश भारत आ गए, सहायता की उम्मीद में। 1911 में जब चीन की क्रांति की खबर ल्हासा पहुंची तो चीनी सेनाओं ने मंचू अधिकारियों के खिलाफ विद्रोह कर दिया। तिब्बतियों के खिलाफ भी मारकाट शुरू हो गई। भारत से दलाई लामा के आदेश मिलने के बाद तिब्बती लोग एकजुट हो कर जवाबी कार्रवाई करने लगे और अंततः 1912 में चीनियों को तिब्बत से भागा दिया गया।

1913 की संधि में आज़ादी की घोषणा

जनवरी 1913 में तिब्बत और मंगोलिया के बीच एक संधि हुई जिसमें दोनों देशों ने अपने आपको स्वतंत्र और चीन से मुक्त घोषित कर दिया। 13वें दलाई लामा ने 1 मार्च 1913 को तिब्बत की पूर्ण आज़ादी का घोषणापत्र जारी किया। दलाई लामा के कुशल नेत्रत्व में तिब्बत के अंतर्राष्ट्रीय संबंध विकसित हुये, डाक तार सेवाएँ शुरू हुईं, और तिब्बत के आधुनिकीकरण में काफी काम हुआ। 17 दिसंबर 1933 को 13वें दलाई लामा का निधन हो गया।

चीन की कुत्सित चाल

अक्तूबर 1950 में कम्यूनिस्ट चीन ने पूर्वी तिब्बत पर हमला करके चामदो स्थित गवर्नर जनरल के मुख्यालय पर कब्जा कर लिया। 11 नवंबर 1950 को तिब्बत ने यूएनओ में चीनी आक्रमण के खिलाफ आवाज उठाई। लेकिन जनरल एसेम्बली ने इस मसले को स्थगित कर दिया। 17 नवंबर 1950 को 14वें दलाई लामा ने तिब्बत के प्रमुख के रूप में सम्पूर्ण आध्यात्मिक और शासकीय अधिकार धारण किए। उस समय वे मात्र 16 वर्ष के थे लेकिन देश को संकट से उबरने के लिए ये जरूरी था।

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23 मई 1951 को एक तिब्बती प्रतिनिधिमंडल बातचीत के लिए बीजिंग गया। लेकिन वहाँ इस दल से जबरन एक करार पर हस्ताक्षर करा लिए गए। इस करार को ‘तिब्बत की शांतिपूर्ण आज़ादी के लिए 17 सूत्री उपाय’ कहा गया था। आरोप है कि चीन ने तिब्बत के खिलाफ सैन्य कार्रवाई की धमकी देने के साथ - साथ तिब्बत की नकली आधिकारिक मुहर का इस्तेमाल किया था।

फर्जी करार के जरिये तिब्बत पर कब्जा

चीन ने इसी दस्तावेज़ के जरिये तिब्बत को चीन की एक कॉलोनी बना दिया है। यही नहीं जिन 17 सूत्री उपायों की बात समझौते में कही गई है उन सभी उपायों का भी चीन ने उल्लंघन किया है। 9 सितंबर 1951 को हजारों चीनी सैनिक ल्हासा में घुस गए और राजधानी पर कब्जा कर लिया। इसके बाद शुरू हुआ तिब्बती लोगों की प्रताड़ना का सिलसिला। सांस्कृतिक धरोहरों को नष्ट कर दिया गया। निर्दोष बच्चो, पुरुषों, स्त्रियों को मौत के घाट उतार दिया गया मठों और मंदिरों पर तोप के गोले बरसाए गए।

चीनियों ने इसका ऐसा निर्दयतापूर्ण प्रतिकार किया जैसा कि तिब्बत के लोगों ने कभी नहीं देखा था। हजारों पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को सरेआम चौराहों पर मौत के घाट उतार दिया गया और बहुत से तिब्बतियों को कैद कर दिया गया या निर्वासित कर दिया गया। भिक्षु और भिक्षुणियां चीनी प्रतिशोध के मुख्य निशाने थे।

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17 मार्च 1959 को दलाई लामा ल्हासा से भाग कर किसी तरह भारत में आ गए और राजनीतिक शरण मांगी। इसके बाद हजारों तिब्बती भी अपनी मातृभूमि को छोड़ कर भागने के लिए मजबूर हो गए। आज 15 लाख तिब्बती पूरी दुनिया में शरण लिए हुये हैं।

एक जीवित ईश्वर

तिब्बती लोग अपनी वफादारी अपने निर्वासित आध्यात्मिक नेता दलाई लामा के प्रति रखते हैं। दलाई लामा को उनके अनुयायी एक जीवित ईश्वर के तौर पर देखते हैं तो चीन उन्हें एक अलगाववादी ख़तरा मानता है। चीन कहता है कि तिब्बत तेरहवीं शताब्दी के मध्य से चीन का हिस्सा रहा है।

नीलमणि लाल



Aradhya Tripathi

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