Yoga Ka Itihas aur Mahtav: योग को ऐसे नहीं दुनिया ने स्वीकारा, जानें अतीत से वर्तमान तक की यात्रा
Yoga Ka Itihas aur Mahtav: अतएव योग भारतीय-प्राचीन परम्परा एवं संस्कृति की अमूल्य धरोहर है जो कि आज भी सुरक्षित है एवं मानव सभ्यता लिये उपयोगी है।
Yoga: भारतीय ज्ञान-परम्परा का सनातन ज्ञान 'योग' है। 'योग' शब्द का प्रयोगश्रुति एवं स्मृति ग्रन्थों में अति पुरातन काल से होता आया है। योग का ज्ञान इस ब्रह्माण्ड में अनादि काल से विद्यमान है अर्थात् सृष्टि की उत्त्पत्ति से पूर्व भी योग विद्यमान था। अतएव ‘योग’ उतना ही प्राचीन है जितनी यह कि ‘सृष्टि’। योग साधना-पद्धति से ही प्राप्त ऋतम्भरा-प्रज्ञा के द्वारा वैदिक ऋषियों ने ऋचाओं का साक्षात्कार किया एवं सृष्टि के उत्पत्ति के कारण'ब्रह्म' (चेतन), कार्यरूपी सृष्टि तथा उसके शाश्वत एवं अपरिवर्तनशील नियमों का अनुभव प्राप्त किया। अतएव योग भारतीय-प्राचीन परम्परा एवं संस्कृति की अमूल्य धरोहर है जो कि आज भी सुरक्षित है एवं मानव सभ्यता लिये उपयोगी है।
'योग' मोक्ष के 'साधन' एवं 'साध्य' दोनों अर्थों में प्रयुक्त होता है। ‘युज्समाधौधातु’ से ‘घञा’ प्रत्यय लगाने से निष्पन्न योग शब्द'चित्तवृत्तिनिरोध' रूपी 'समाधि' के अर्थ में है जो कि 'योग' के 'साधन' के रुप में स्वीकृत है। अतएव पतंजलि कृत योग-दर्शन में 'योग' शब्द 'साधन' अर्थ में प्रयुक्त है। युजिर् योगे धातु से बने 'योग' शब्द "आत्मा एवं परमात्मा के संयोगरूप" साध्य के अर्थ में प्रयुक्त है, जो कि वेदान्त द्वारा स्वीकृत है।' बृहदारण्यकोपनिषद् (2/4/5) के सारतम उपदेशयाज्ञवल्क्य-मैत्रेयी-संवाद 'आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्योनिदिध्यासितव्यः' में भारतीय जीवन-प्रवाह की समग्र आशा, आकांक्षा का पर्यवसान होता है। आत्मतत्त्व के विश्लेषण एवं उसके साक्षात्कार के साधन और स्वरूप के निरूपण में ही योग-दर्शन का तात्पर्य है। महाभारत में शुकदेवजी ने कहा है कि- 'न तु योगमृते प्राप्तुं शक्या सा परमागतिः।' इसीलिये श्रीमद भगवद्गीता में श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को 'योगी' बनने की प्रेरणा देते हुए कहा गया है –
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ।। श्रीमद भगवद्गीता, 6/46 ।।
महाभारत एवं याज्ञवल्क्य-स्मृति के अनुसार ऋग्वेदोक्त "हिरण्यगर्भ" (ऋग्वेद 10/21) देवता ही योगशास्त्र के पुरातन ज्ञाता (वेत्ता) हैं।' श्रीमद्भागवत में कहा है कि हे योगेश्वर ! यह योग कौशल वही है जिसे भगवान हिरण्यगर्भ ने कहा था।' महाभारत (11/339/69) के अनुसारभगवान् नारायण (विष्णु) ही हिरण्यगर्भ हैं। श्रीमद भगवद्गीता (महाभारत भीष्म पर्व-अध्याय-25-42) के चतुर्थ अध्याय (4/1-3) में श्रीकृष्ण, अर्जुनसे कहते हैं कि-
"मैंने इस अविनाशी-योग को सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वतमनु से कहा था और मनु ने अपने राजा इक्ष्वाकु से कहा था।' इस प्रकार परंपरा से प्राप्त-योग को राजर्षियों ने जाना, किन्तु उसके बाद वह योग बहुत काल से इस पृथ्वी लोक में लुप्त हो गया था। तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिये वह परम रहस्ययुक्त, पुरातन-योग आज मैंने तुझको कहा है।"
इस प्रकार परम्परा से प्राप्त 'योग' वैदिक एवं लौकिक वाङ्गय में प्राप्त होता है। वेदों (ऋग्वेद-1/5/3,11/18/7,1/30/17 यजुर्वेद- 11/2, सामवेद- 2/2/7/9 (पूर्वार्चिक), 1/2/10/3 (उत्तरार्चिक), तथाअथर्ववेद-20/26/1,20/99/1),ब्राह्मण-ग्रन्थों (ऐतरेय ब्राह्मण-11/5, शतपथ ब्राह्मण 3/2/2/26, तैत्तिरीय- ब्राह्मण-1/2/1/15), आरण्यकों(ऐतरेय-आरण्यक 2/1/6, शांखायन-आरण्यक- 5/2 - 3 ) उपनिषदों(बृहदारण्यकोपनिषद् (- 3/1) / 2 , मुण्डकोपनिषद् (3/1) / 5 श्वेताश्वतरोपनिषद् - 1/3 2/8 - 9 मैत्रायणी उपनिषद् 6/18 कठोपनिषद्1/2/12, 2/3/10-11), रामायण (सुन्दरकाण्ड), महाभारत (शान्तिपर्व), पुराण (ब्रह्मपुराण, अध्याय 235, भगवद्पुराण-अध्याय 2,12, अग्निपुराणअध्याय-352- 58, गरुडपुराण - अध्याय 14,49 व 118, शिवपुराण अध्याय 17, 37-39, मार्कण्डेय पुराण - अध्याय-36-43) तथा वैदिक -दर्शन के सूत्र-साहित्यों में पूर्णतया योग का स्वरूप उपलब्ध होता है। कठोपनिषद् में योग को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि जिस समय पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ मन के सहित आत्मा में स्थित हो जाती हैं और बुद्धि भी चेष्टा नहीं करती, उस अवस्था को परमगति कहते हैं। उस स्थिर इंद्रिय धारण को ही 'योग' कहते हैं।" इस प्रकार स्पष्ट है कि सृष्टि के प्रारंभ से पूर्व 'योग' विद्यमान था तथा त्तात्विक-ज्ञान की प्राप्ति के साधन के रूप में 'योग' की महत्ता सर्वसम्मत रूप से विद्यमान थी।
योग के प्रकार
पद्धतियों की भिन्नता के आधार पर 'योग' के विभिन्न प्रकार होते हैं, उसमेंसे वैदिक- दर्शन के अन्तर्गत 7 प्रकार के प्रमुख योग होते हैं- राजयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, मन्त्रयोग, लययोग और हठयोग। योगराजोपनिषद्(1,2) में मन्त्रयोग, लययोग, हठयोग और राजयोग के रूप में योग को विभक्त किया गया है, जबकि 'योगशिखोपनिषद् (129, 130 )में मंत्रयोग , लययोग, हठयोग एवं राजयोग को एक ही महायोग कीअन्तर्भूमिकाओं के रूप में स्वीकार किया गया है। जीव एवं ब्रह्म के संयोग को ‘परमयोग' के रूप में वर्णित करने वाले ‘गरुड़ पुराण' के 14वें अध्याय में'ध्यान-योग' का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। श्रीमद्भागवतपुराण (11/206) में ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग के रूप में मानव- कल्याण हेतु 'योग' का वर्णन प्राप्त होता है। देवी भागवत पुराण में मोक्ष प्राप्ति के साधन के रुप में ज्ञानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग को स्वीकार किया गया है।श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण द्वारा चार प्रकार के योग- ज्ञानयोग, अभ्यासयोग, भक्तियोग व कर्मयोग - का वर्णन किया गया है। इस प्रकार वैदिक -दर्शन में प्राप्त 'योग' को हम सात प्रमुख भागों में विभक्त कर सकते हैं, जो इस प्रकार हैं-
(1) राज-योग- मंत्रयोग, लययोग, हठयोग का फल राजयोग है, अतः यह योग सर्वश्रेष्ठ योग अर्थात् 'राजयोग' है। साधारणतया 'राजयोग' को पातंजल का सूचक माना जाता है, क्योंकि यह समाधि के साधन के रूप में वर्णित है। योगशिखोपनिषद् (1/136) में राजयोग को परिभाषित करते हुए कहा गया है 'रजसो रेतसो योगात् शक्तिशिवयोगाद् राजयोगः।' श्रीमद्भगवद्गीता (12/9) में 'राजयोग' को 'अभ्यास-योग' के नाम से कहना गया है। श्रीकृष्ण, धनञ्जय को कहते हैं कि "यदि तू अपने मन को अचलस्थापन करने में असमर्थ हो तो अभ्यास रूपी योग के द्वारा मुझको प्राप्त करने की इच्छा कर।" मन को अन्य विषयों से हटाकर पुनः पुनः आलम्बनपर केन्द्रित करना ही 'अभ्यास योग' अर्थात 'राजयोग' है। जो अभ्यास-योगसे मन एवं प्राण दोनों को ही आत्मा में लीन कर लेते हैं, वे राजयोगी सर्वश्रेष्ठ हैं।
(2) हठ-योग - हठ पद दो वर्षों (ह सूर्य+ठ चन्द्रमा) से मिलकर बना है।हठयोग का अर्थ है बलपूर्वक शरीर व मन को नियन्त्रण से 'योग-साधना' में सिद्धि लाभ प्राप्त करना। 'हठयोग' के सम्बन्ध में नाथ योगी सम्प्रदाय विशेष ज्ञान रखता है, पातंजलयोग के 'अष्टाङ्ग-योग' में 'शरीर नियन्त्रण' का अत्यल्प वर्णन प्राप्त होता है। 'हठयोग' के आधारभूत ग्रन्थ'हठयोगप्रदीपिका'- (4/103) में कहा गया है कि - 'हठयोग' का लक्ष्य'राजयोग' ही है। हठयोग की साधना का अन्तिम साध्य इड़ा और पिङ्गला कभी सुषुम्ना से, 'प्राण' और 'अपान' वायुओं की जीवन-शक्ति के केंद्र बिंदु से , 'बिन्दु' और 'रज' को सम्पूर्ण मानसिक-शारीरिक शक्ति के केन्द्र बिंदु से और अन्ततः चेतना की उच्चतम स्थिति में शिव और शक्ति की एकता स्थापित करना है जो कि 'राजयोग' का लक्ष्य है।
(3) लय-योग- 'लययोग' से तात्पर्य है 'लय' के द्वारा 'समाधि' को प्राप्त करना। योगतत्त्वोनिषद्' के अनुसार 'लययोग' का स्वरूप 'चित्तलय' है।कठोपनिषद् (1/3/3) में ब्रह्म-साक्षात्कार के साधन के रूप में 'लय' कावर्णन करते हुए कहा गया है कि "विवेकी पुरुष वाक्-इन्द्रिय का मन में उपसंहार करे, उसका प्रकाश स्वरूप बुद्धि में लय करे, बुद्धि को महत्-तत्त्वमें लीन करें और महत्व को शान्त आत्मा में लीन करे।" हठयोगप्रदीपिका के अनुसार राजयोग के सन्दर्भ में ही हठयोग और लययोग की सार्थकता हैं। दूसरे शब्दों में हठयोग और लययोग, राजयोग की प्राप्ति में सहायक है, क्योंकि राजयोगी काल की सीमा से परे अर्थात् कालातीत अवस्था को प्राप्त होकर मृत्यु पर भी विजय प्राप्त कर लेता है।"
(4) मन्त्र-योग - विशिष्ट देव, अवतार या ईश्वर के नाम का या रहस्यमयबीजाक्षरों का जप मंत्रयोग है। योगतत्त्वोपनिषद् (मन्त्र 21, 22) में कहना गया है "जो अल्पबुद्धि वाला साधक मातृकादि से युक्त मन्त्र का 12 वर्षों तक जप करते हुए मन्त्रयोग का सेवन करता है, वह अणिमादि सिद्धि सहितज्ञान को क्रमशः प्राप्त कर लेता है।"" राधाकृष्णन ने 'रोगमुक्ति' के साधन के रूप में 'मन्त्रयोग' के महत्त्व को स्वीकार किया है, क्योंकि 'मन्त्रयोग' द्वारा रोगमुक्ति की सहायिका 'मानसिक-शक्ति' में वृद्धि होती है।शिव-पुराण के 17वें अध्याय में 'ऊँ' मन्त्र के उच्चारण के अभ्यास व फल को बताया गया है। पतंजलि ने भी ईश्वर के वाचक 'प्रणव' के जप से समाधि -लाभ व समाधि-फल की प्राप्ति को बताते हुए मन्त्रयोग के महत्त्व को स्पष्ट किया है।
(5) ज्ञान-योग- श्रीमद्भगवद्गीता में आत्मतत्त्व की प्राप्ति के साधन के रूप में सांख्ययोगियों के लिये ज्ञान-योग का उपदेश किया गया है।" श्रीमद्भगवद्गीता (1/2) में श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं "मैं तेरे लियेविज्ञान सहित ज्ञान को सम्पूर्णतया कहूंगा, जिसको जानकर संसार में पुनःऔर कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रहता।" आध्यात्मज्ञान में नित्य स्थितिऔर तत्त्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को देखना यह सब ज्ञान है।" इस ज्ञानको जानने वाला भक्त ईश्वर के स्वरूप को प्राप्त हो जाता है।"
(6) कर्म-योग- मीमांसा के अनुसार वेदविहित यज्ञादि कर्मों का विधिवत् अनुष्ठान एवं निषिद्ध कर्मों का असम्पादन 'कर्मयोग' है। गीता में कर्मयोग का तात्पर्य 'निष्काम कर्म' से है। श्रीमद्भगवद्गीता (3/3) में योगियों के लिये'कर्मयोग' बताया गया है।" गीता के अनुसार कर्मों के फल की कामना न करते हुए एवं कर्मों के फल को ईश्वरार्पण करते हुए लोकसंग्रह के लिए कर्मों को संपादित करना ही 'कर्मयोग' है।
जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्तिरहित कर्म (निष्काम कर्म) द्वारा परमसिद्धि को प्राप्त हुए थे। अतएव आसक्ति- रहित कर्म करने वाला मनुष्य परमात्मा को प्राप्त होता है।" इसीलिये श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को मन-बुद्धि आदि पर विजय प्राप्त करके सम्पूर्ण कर्मों के फल का त्याग करने का उपदेश दिया गया है। क्योंकि कर्मफल के त्याग से तत्काल ही परम-शान्ति प्राप्त होती हैं। अतएव 'कर्मयोग' से तात्पर्य 'कर्म-फल-संन्यास' से ग्रहण करना चाहिए ।
(7) भक्ति-योग- भक्ति शब्द 'भज्' धातु से बना है। इसका अर्थ सेवा, आराधना करना है। जब भक्त सेवा या आराधना द्वारा भगवान् से साक्षात संबंध स्थापित कर लेता है तो वही 'भक्तियोग' है। नारद भक्तिसूत्र (1/2) के अनुसार परमेश्वर के प्रति परम-प्रेमरूप ही भक्ति है। वह अमृत स्वरुपा है ।" जिस भक्ति को प्राप्त करके मनुष्य सिद्धि, अमृतत्व व तृप्ति को प्राप्त कर लेता है। श्रीमद्भगवद्गीता (12/12) में श्रीकृष्ण ने भक्त को उत्तम योग बताते हुए कहा है कि "जो भक्त ईश्वर में मन को एकाग्र करके निरन्तर ईश्वर के भजन ध्यान में लगे हुए अतिशय बद्धा से युक्त होकर ईश्वर के सगुण रूप की उपासना करते हैं वह पोगियों में उत्तम योगी है।"" श्रीकृष्ण में भक्तियोग अर्थात् 'ईश्वर के परायण होकर कर्म करना' का फलभगवद्प्राप्ति बताया है।"
इस प्रकार पद्धति के आधार पर योग के प्रकारों की भिन्नता होते हुए भी लक्ष्य में एकात्व है। श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित चारों योगों की उत्तरोत्तर श्रेष्ठता को बताते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि - अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से ध्यान विशिष्ट है, ध्यान से सम्पूर्ण कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है, क्योंकि त्याग से तत्काल परम शान्ति प्राप्त होती है।"
पातंजल-योग
'योग' शब्द का प्रयोग पुरातन काल से होता आया है। सृष्टि के आदिकालसे ही ऋषियों द्वारा योग-साधना के माध्यम से अनुभूत ब्रह्माण्डीय नियमों को अपने शिष्यों को बताया गया। प्रारम्भ में आन्तरिक एवं बाह्य अर्थात्पिण्ड व ब्रह्माण्ड के कारणरुपी "ब्रह्म" साध्य की प्राप्ति के साधन-रूप'योगविद्या' गुरु-शिष्य परम्परा के माध्यम से मौखिक रूप में उपलब्ध था।श्रुति एवं स्मृति ग्रन्थों के आधार पर योग के आदि संस्थापक 'हिरण्यगर्भ' हैं, जिसे पतंजलि मुनि के द्वारा योगसूत्र के माध्यम से सूत्रबद्ध किया गया।अतएव पतंजलिकृत 'योगसूत्र' इस विद्या का प्राचीनतम सूत्र-ग्रन्थ है जो चार भागों में विभक्त है- (1) समाधिपाद (2) साधनपाद (3) विभूतिपादतथा (4) कैवल्यपाद।
योगसूत्र के निगूढ रहस्यों का उद्घाटन करने में व्यासभाष्य नितान्त कृतकार्य है। 'योगसूत्र-व्यासभाष्य' स्वयं अत्यन्त गूढार्थयुक्त है, अतः उसके अर्थ के विश्लेषण हेतु अनेक टीका-प्रटीकाएँ लिखी गयीं। व्यासभाष्य पर लिखित टीका -प्रटीकाओं के अतिरिक्त योगसूत्र पर लिखित अन्य स्वतन्त्र टीका-प्रटीकाएँ उपलब्ध होती हैं। इस प्रकार योगसूत्र पर लिखित भाष्य वार्तिक-टीका-प्रटीकाओं के द्वारा 'योग-दर्शन' पर एक समृद्ध एवं विस्तृत साहित्य प्राप्त होता है।
पातंजल योग-दर्शन में 26 तत्त्वों को प्रमेय रूप में स्वीकार किया गया है।सर्वदर्शन- संग्रह में माधवाचार्य ने इन प्रमेय तत्त्वों को भाव्य-वस्तु कहा है।भाव्य-वस्तु के दो भेद हैं- (1) ईश्वर (2) तत्त्वसमूह।" तत्त्व समूह दो प्रकार का है जड़ (प्रकृति) व अजड (पुरुष)।" प्रकृति, महत्, अहंकारादि चैबीस जड पदार्थ हैं। पुरुष आत्मन् अजड है।"
सांख्य-योग के अनुसार प्रकृति एवं पुरुष दोनों ही विभु तत्त्व हैं, अतएव इनका अनादि संयोग है।" प्रकृति त्रिगुणात्मक (सत्त्व रजस् तमस्) है तथासृष्टि-लय की स्थिति में अव्यक्तावस्था में रहने के कारण इसे अव्यक्तप्रकृति कहा जाता है। सृष्टि-उत्पत्ति के समय अनादि अविद्या के कारण पुरुष का प्रकृति से संयोग होता है, तब संयोग के कारण प्रकृति के त्रिगुणों में परस्पर क्रिया होने के कारण व्यक्तावस्था को प्राप्त प्रकृति, सत्त्वप्रधान- चित्त के रूप में परिणत हो जाती है। चित्त क्रमशः अस्मिता (अहंकार), पतन्मात्री, जो इन्द्रियों, पंच महाभूत और फिर संमार के विभिन्न पदार्थों में परिणत होता रहता है। एवं महाभूत पर्यन्त प्रकृति का 'तत्वान्तर-परिणाम' कहा जाता है।
इस प्रकार अव्यक्त प्रकृति गुणषय का अलिङ्गपरिणाम है और चित्त(बुद्धि) लिङ्ग परिणाम । गुणों के 6 अविशेष परिणाम हैं- अस्मिता औरपंचतन्मात्राएं ।इन्द्रियाँ और 5 महाभूत, गुणों के ये 16 विशेष परिणाम हैं । पुरुष (चितिशक्ति) अपरिणामिनी, अप्रतिसङ्कमा, दर्शितविषया, शुद्धऔर अनन्ता है।" कलेश, कर्म, विपाक एवं आय से अपरामृष्ट पुरुष विशेष'ईश्वर' हैं।"
महर्षि पतंजलि ने समाधि द्वारा सृष्टि-उत्पत्ति की प्रक्रिया को जानने के पश्चात यह अनुभव किया कि सम्पूर्ण सृष्टि जड प्रकृति का परिणाम मात्र है। प्रकृति, चेतन पुरुष के संयोग से चित्त में लेकर पंचमहाभूत पर्यन्त संपूर्ण सृष्टि को उत्पन्न करती है। अतएव चेतन तत्त्व के ज्ञान से ही संपूर्ण सृष्टि व स्व-स्वरुप को जानना सम्भव है जो कि योग साधना से ही संभव है। इसीलिये पतंजलि ने माधक (अधिकारी) भेद में चार प्रकार के योग का वर्णन किया है-
(1)संप्रज्ञात योग व असंप्रज्ञात योग (उत्तम साधक हेतु)
(2)क्रियायोग (मध्यम साधक हेतु)
(3) अष्टाङ्ग-योग (प्रारम्भिक साधक हेतु)
(4) भक्ति-योग (सर्व सधारण हेतु)
सम्प्रज्ञात एवं असम्प्रज्ञात-योग
योग-दर्शन के अनुसार इन्द्रियों के माध्यम से वस्तु का पूर्ण-ज्ञान न होकरआंशिक-ज्ञान होता है। अतएव योग-दर्शन पूर्ण-ज्ञान प्राप्ति हेतु समाधि को साधन के रूप में स्वीकार करता है। व्यास के अनुसार (योगः समाधिः।योगसूत्रव्यासभाष्य- 1/1) समाधि ही योग है। पतंजलि के अनुसार(योगश्चित्तवृत्ति- निरोधः। योगसूत्र - 1/2) चित्त की वृत्तियों का निरोध'योग' है। प्रख्या, प्रवृत्ति एवं स्थिति धर्म से युक्त होने के कारण चित्तत्रिगुणात्मक (सत्त्व + रजस् + तमस्) है। विगुणात्मक चित्त की वृत्तिसात्त्विक, राजसिक व तामसिक भेद से तीन प्रकार की होती है। रजस् व तमस् से युक्त सत्त्व अवस्था वाले चित्त में क्लिष्टवृत्ति उत्पन्न होती है।अविद्यादि क्लेश से उत्पन्न तथा कर्म-संस्कार-समूह को उत्पन्न करने वालीक्लिष्टवृत्ति जन्म, आयु व भोग की जनिका है।" राजसिक व तामसिक वृत्ति का निरोध होने पर शुद्ध सत्त्व प्रधान सात्त्विक-वृत्ति से चित्त मेंअक्लिष्टवृत्ति उत्पन्न होती है, जो कि अक्लिष्ट-संस्कार की जनक है तथा योगी को विवेक-ज्ञान से युक्त करने में सहायक है। सत्त्वगुण के प्राधान्य से समाहित चित्त वाले योगी को उस वैशारदकाल में सत्य को धारण करने वाली ऋतम्भरा प्रज्ञा उत्पन्न होती है।" इसलिये चित्तवृत्तिनिरोध से तात्पर्य मुख्यतः राजसिक व तामसिक वृत्तियों के निरोध से है।सात्त्विक वृत्ति के उदय से क्लिष्ट-वृत्ति के क्षीणता को प्राप्त होने पर'संप्रज्ञात-योग' सिद्ध होता है तथा सात्त्विक-वृत्ति का भी निरोध हो जाने पर'असम्प्रज्ञात-योग' सिद्ध होता है। इस प्रकार पतंजलि द्वारा स्वीकृत 'योग' दो प्रकार का है- (1) संप्रज्ञात (2) असम्प्रज्ञात।
1. सम्प्रज्ञात-योगः चित्त की एकाग्रावस्था में राजस एवं तामस वृत्तियों केपूर्ण निरोध होने पर सात्त्विक वृत्ति पूर्ण रूप से उदित हो जाती है, फलस्वरूप साधक को पदार्थ का वास्तविक एवं निर्भान्त ज्ञान होता है- 'सम्यक् प्रज्ञायते अस्मिन्निति सम्प्रज्ञातः समाधिः।'- अतएव इस समाधि को ‘सम्प्रज्ञातसमाधि' कहते हैं। 'सम्यक् प्रज्ञायते साक्षात्क्रियतेह्येयमस्मिन्निरोध विशेष रूप से योग इति सम्प्रज्ञातो योगः।' एकाग्रता काल में राजसिक एवं तामसिक वृत्तियों के निरोध होने पर सत्त्वगुण प्रधान चित्तध्येय पदार्थ का चिन्तन करने में समर्थ होता है। अतएव जो समाधि एकाग्रभूमि वाले चित्त को होती है तथा आलम्बन रूप से चित्त में स्थित पदार्थ को पूर्णतया प्रकाशित करती है, अविद्यादि क्लेशों को क्षीण करती है, कर्म-बन्धनों (संचित संचीयमान आदि) को शिथिल करती है तथा निरोध(असम्प्रज्ञात-समाधि) की ओर अभिमुख करती है, वह समाधि, सम्प्रज्ञात-योग कहलाती है।" सम्प्रज्ञात-योग की सिद्धि के चार सोपानक्रम हैं (1) सवितर्क (2) सविचार (3) सानन्द (4) सास्मिता।
(1) सवितर्क- विशेषेण तर्कणमवधारणं वितर्कः। अर्थात् जिसमें विशेषरूप से निश्चय होता है, उसे 'वितर्क' कहते हैं। वितर्क से युक्त वृत्तिनिरोध'वितर्कानुगत योग' कहलाता है।" योग में वर्णित 26 तत्त्वों के समूह रुप स्थूल पदार्थ को लेकर योगी चिन्तन की ओर बढ़ता है तो सर्वप्रथमसवितर्क-योग के द्वारा ध्येय विषय के स्थूल रूप (पंचमहाभूत) कासम्प्रज्ञान होता है।"
(2) सविचार - सत्त्वप्रधान चित्त में ध्येय विषय के सूक्ष्मरूप की परिपूर्णता'विचार' है।" चित्त के आलम्बन 'स्थूलरूप' (पंचमहाभूत) के कारण'सूक्ष्मरूप' (पंचतन्मात्रादि) का समाधि द्वारा साक्षात्कार होना ही 'सविचार' अथवा 'विचारानुगत योग' कहलाता है।"
(3) सानन्द आनन्दो ह्रादः विचारः सूक्ष्मतर आभोगस्तृतीयः (योगविवरण-1/17) चित्त का 'विचार' से सूक्ष्मतर 'ह्लाद' विषयक आभोग 'आनन्द' है।स्थूल विषयक इन्द्रिय के विषय में चित्त का हृाद रूप आभोग 'आनन्द' कहलाता है।" सत्त्वगुण मुखात्मक होता है। अतएव सत्त्वप्रधान अस्मिता(अहंकार) से उत्पन्न एकादशेन्द्रियाँ सुखात्मक अर्थात् आनन्द रूप हैं।आनन्दानुगत सम्प्रज्ञात समाधि में योगी स्थूल इन्द्रियों के बिना चित्त के माध्यम से 'आनन्दरुपी ज्ञान' का साक्षात्कार (आभोग) करता है।" 'आनन्दानुगत-योग' में "मैं सुखी हूं"। इस प्रकार की आनन्दविषयिणीचित्तवृत्ति के उदित होने पर चित्त की पूर्णतः सुखाकाराकारिता ही 'सानन्द' अथवा 'आनन्दानुगत-योग' कहलाता है।"
(4) सास्मिता - 'दृग' (पुरुष / चितिशक्ति) एवं 'दर्शन' (प्रकृति) शक्ति का एकात्मकता ही 'अस्मिता' है। चित्रस्थ अथवा बुद्धिस्थचितिच्छाया ही'अस्मिता' है।" चित्त, स्थूल, सूक्ष्म व सूक्ष्मतम समस्त ज्ञान को स्व प्रतिबिंबित पुरुष (चितिशक्ति) को अर्पित कर देता है तथा प्रतिबिंबित पुरुष (चितिशक्ति) सभी अनुभवों को आत्मसात् कर स्वत्वस्थापित कर लेता है। प्रतिबिम्बित पुरुष द्वारा स्वसत्ता का अनुभव 'अस्मि' रूप से करना ही 'अस्मिता' है।" सम्प्रज्ञातसमाधि में एकात्मिकता (चित्त वपुरुष) का अनुभव ही अस्मिता है।" अतएव योगी का ध्येय 'अस्मिता' होनेपर 'अस्मितानुगतयोग' की स्थिति में 'पुरुषतत्त्व' एवं 'प्रकृति के शुद्धसत्त्वरूप' का ज्ञान होने पर प्रमाता, प्रमेय और प्रमा का भेद समाप्त होजाता है। योगी की अस्मिता (प्रकृति का शुद्ध सात्विक स्वरूप) ही 'प्रमाता' है, ऐसा अनुभव होता है।"
2. असम्प्रज्ञात-योगः चित्त की सभी वृत्तियों (सात्त्विक-राजसिक तामसिक) का निरोध होने पर असम्प्रज्ञात समाधि होती है।" असम्प्रज्ञात की अवस्था में चित्त, सम्प्रज्ञात-योग से प्राप्त विवेक-ज्ञान का भी परवैराग्य से निरुद्ध करना है। अतएव चित्त को निरुद्ध-अवस्था में निरोधजन्य संस्कार मात्र विशिष्ट निर्बीज समाधि प्राप्त होती है।" इस अवस्था में चित्त को किसी भी वस्तु का ज्ञान नहीं होता है, इसलिये यह असम्प्रज्ञातयोग कहना जाता है। इस प्रकार असम्प्रज्ञात-योग की अवस्था में प्रमाता, प्रमेय व प्रमिति की स्थिति न रहने पर ज्ञान-प्रक्रिया के बीजभूत चित्त कास्वकारण प्रकृति में लय हो जाने पर, पुरुष अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। इसलिये वह शुद्ध और मुक्त कहा जाता है।" त्रिगुणात्मक प्रकृति का स्व कारण अव्यक्त प्रकृति में लय हो जाना कैवल्य है तथा चितिशक्ति(पुरुष) का अपने रूप में प्रतिष्ठित हो जाना ही कैवल्य है।"
क्रियायोग
'क्रियायोग' एक पारिभाषिक शब्द है। क्रियायोग, चंचल चित्त वाले साधकअर्थात् मध्यम- अधिकारी के लिये बताया गया है।" तप, स्वाध्याय एवंईश्वर-प्रणिधान क्रियायोग है। इन तीनों क्रियाओं को 'योग' इसलिये कहागया है, क्योंकि इनके करने से योग सिद्ध होता है। इस प्रकार साधन और साधन के अभेद कथन होने के कारण इन क्रियाओं का नाम 'क्रियायोग' पडा है।" रजस्तमोमयी अशुद्धि को क्षीण करने हेतु तप का ग्रहण किया गया है। द्वन्द्रों (सर्दी-गर्मी, भूख-प्यासादि) को सहन करना 'तप' है।" तपस्या का पालन साधक को चित्त की प्रसन्नता को बाधित न करने वाली स्थिति तक करना चाहिये।" प्रणवादि पवित्र- मन्त्रों का जप अथवामोक्षपरक शास्त्रों का अध्ययन 'स्वाध्याय' है।" सम्पूर्ण क्रियाओं को परमगुरु ईश्वर में समर्पित करना अथवा कर्मों के फलों का संन्यास'ईश्वर-प्रणिधान' है।"
क्रियायोग का पूर्णतया पालन करने पर सम्प्रज्ञात एवं असम्प्रज्ञात समाधि प्राप्त होती है और अविद्यादि क्लेश क्षीणता को प्राप्त होते हैं।" क्रियायोग का निरन्तर पालन करने पर सम्प्रज्ञात एवं असम्प्रज्ञात योग सिद्ध होता है।'अग्निपुराण' व 'पद्मपुराण' में 'क्रियायोग' को मोक्ष के साधन के रूप मेंस्वीकार किया गया है।
अष्टाङ्ग-योग
पतंजलि प्रदत्त अष्टाङ्ग-योग प्राम्भिक साधक के लिये बताया गया है।अष्टाङ्ग-योग सामान्य साधक के लिये मानवीय गुणों के विकास, समग्रस्वास्थ्य एवं समाधि द्वारा चेतना के उच्चतम स्तर की प्राप्ति का हेतु(सोपान) है। अष्टाङ्ग योग के प्रथम दो अङ्ग यम (अहिंसा-सत्य-अस्तेयब्रह्मचर्य अपरिग्रह) एवं नियम" (शौच-सन्तोष- तप-स्वाध्याय-ईश्वर-प्रणिधान) का पालन करने से प्रत्येक व्यक्ति में निहित उच्चत्तम मानवीय मूल्यों का विकास होता है। उच्चत्तम मानवीयमूल्यों से युक्त व्यक्ति की आज प्रत्येक समाज को आवश्यकता है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति सदैव समाज एवं देश को सही मार्ग एवं दिशा प्रदान करने का प्रयास करता है। आसन एवं प्राणायाम" (तृतीय एवं चतुर्थअङ्ग) के पालन से समग्र स्वास्थ्य का लाभ होता है। आसन करने से शरीर के अवयव- संस्थान सुदृढ होते हैं एवं प्राणायाम करने से श्वसन-प्रक्रिया के सुचारु रहने से शरीर में जीवनी-शक्ति का विकास होता है व मनुष्य श्वसन सम्बन्धी रोगों से मुक्त रहता है। शारीरिक रूप से सुदृढ़ एवं स्वस्थ व्यक्ति ही समाज एवं विश्व की उन्नति के लिये कार्य कर सकता है।आयुर्वेद में भी कहा है- शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् - सम्पूर्ण कार्यों को करने का साधन शरीर है। पंचम अङ्ग प्रत्याहार" (इन्द्रियों के नियन्त्रण) से मनुष्य अपनी ऊर्जा को केन्द्रित कर स्व एवं मानव कल्याण के लिये उपयोग कर सकता है। प्रत्याहार, योग के आवश्यक अंग के रूप मे स्वीकृत है। यथार्थ रूप में पतंजलि ने यम-नियम- आसन-प्राणायाम-प्रत्याहार को योग के बहिरंग साधन के रूप में स्वीकार किया है। एवं धारणा - ध्यान - समाधि" को ही योग की संज्ञा दी है जिसे शास्त्रीय परिभाषा में संयम (त्रयमेकत्र संयमः। योगसूत्र- 3/4) शब्द कहा गया है।
योग अर्थात् धारणा-ध्यान-समाधि का सम्बन्ध मन (Mind) से है।धारणा-ध्यान- समाधि करने से मन एवं बुद्धि का विकास होता है तथा ऋतंभरा प्रज्ञा (ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा। योगसूत्र- 1/48) उत्पन्न होती है। योग के द्वारा उत्पन्न ऋतम्भरा प्रज्ञा (पूर्ण सत्य को जानने वाली बुद्धि) केमाध्यम से ही ब्रह्माण्ड के मूल कारण प्रकृति एवं पुरुष के यथार्थ स्वरूपका ज्ञान सम्भव है। योग के अङ्गों का अनुष्ठान करने से, अशुद्धि का क्षय हो जाने पर विवेकख्याति के उदय तक ज्ञान का प्रकाश होता है।" इस पत्रकार पतंजलि प्रदत्त अष्टाङ्ग- योग का श्रद्धा के साथ निरन्तर पालन करना हुआ योगी, चित्तवृत्ति-निरोध के द्वारा एकाग्र चित्त वाला होकर संप्रज्ञात व असंप्रज्ञात-योग को प्राप्त करता है।
भक्ति-योग (ईश्वरप्रणिधानाद्वा)
भक्ति-योग हेतु पतंजलि द्वारा ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है। क्लेश, कर्म, विपाक (कर्मफल) एवं आशय (कर्मफलभोग) सेअपरामृष्ट 'पुरुषविशेष' ईश्वर है।" 'विशिष्यत इति विशेषः" इस व्युत्पत्ति के अनुसार सामान्य पुरुष से विलक्षण होने के कारण ईश्वर को'पुरुषविशेष' कहा गया है, क्योंकि 'ईश्वर' जन्म-मृत्यु के चक्र से परे होता है। योग-दर्शन में 'ईश्वर' को 'प्रणव' शब्द से कहा गया है।" कर्मफल कीअपेक्षा से रहित होकर परमगुरु 'ईश्वर' के प्रति सभी कर्मों का समर्पण करना ‘ ईश्वर-प्रणिधान' है।" 'ईश्वर-प्रणिधान' से समाधि की सिद्धि प्राप्तहोती है।" प्रणिधान अर्थात् भक्ति-विशेष से प्रसन्न किया गया ईश्वर योगी को संकल्पमात्र से अनुगृहीत करता है।" उस ईश्वर के अभिध्यान-मात्र से योगी कको शीघ्रता से समाधि-लाभ (असम्प्रज्ञात समाधि) एवं समाधि- फल(असम्प्रज्ञात-योग) प्राप्त होता है।"
नाथ-योग
भारत की योग परम्परा को जीवन्त बनाये रखने में "नाथ-योग सम्प्रदाय" का प्रमुख योगदान है। योग साधना के सिद्धान्तों को अक्षुण्ण बनाये रखने हेतु योगी गुरु गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) द्वारा एक 'योगी-सम्प्रदाय' का प्रवर्तन किया गया जो कि "नाथ-योग-सम्प्रदाय" के रूप में प्रसिद्धि को प्राप्त है। गुरु 'गोरखनाथ' योगी 'मत्स्येन्द्रनाथ' के शिष्य तथा 'आदिनाथ' के प्रशिष्य के रूप में प्रसिद्ध हैं। अति प्राचीन काल से ही गुरु गोरखनाथजी सामान्य धार्मिक मानस में शिव के प्रतिनिधि या शिवरूप समझकर पूजे जाते रहे हैं। इसलिये उनका एक नाम "शिव" भी हैं। नाथयोगी सम्प्रदायके विकास के इतिहास तथा अन्य लिखित परम्पराओं के साक्ष्य के आधार पर योगी गोरखनाथ का समय ऽवीं शताब्दी से 12 वींशताब्दी के मध्य निश्चित किया जा सकता है।
नाथ-योगियों के मन्दिरों और मठों में गोरखपुर स्थित गोरखनाथ मन्दिर का विशिष्ट स्थान है। परम्परा के अनुसार गुरु गोरखनाथ ने इस विशिष्ट भूमि को अपनी साधना का केन्द्र बनाया। यह मठ सहस्रवर्षों से स्थित है और इसने सहसों युवाओं को आध्यात्मिकता के पथ की ओर अग्रसर किया।इस मठ का प्रबन्ध एक योगी के हाथ में रहता है, जिसे "महन्त" कहते हैं।वह योगी गुरु 'गोरखनाथ' का 'प्रतिनिधि' और इस संगठन से सम्बद्ध सभी योगियों का 'आध्यात्मिक-गुरु' माना जाता है। गुरु गोरखनाथ मन्दिर की महंत परम्परा, गुरु के प्रति अगाध श्रद्धा समर्पण का एक जीवन्त उदाहरण है। गोरखपुर स्थित 'गोरखनाथ' मन्दिर इस दृष्टि से भी विशिष्ट है, क्योंकि इसके महन्तों की परम्परा में कुछ ऐसे महान् योगी हुए जो अपनेआध्यात्मिक ज्ञान एवं अद्वितीय योग-शक्ति के कारण दूर-दूर तक विख्यात रहे हैं। गुरु बुद्धनाथ, वीरनाथ, अजबनाथ और पियारनाथ इस मठ के महन्त रह चुके हैं। अलौकिक जीवन के धनी गुरु गुरु बालकनाथ(1758-1786) 28 वर्षों तक महन्त रहे हैं। इस प्रकार 17वीं शताब्दी से आप तक इस मठ में प्रख्यात योगियों की एक लम्बी परम्परा प्राप्त होती है।
गुरु गोरखनाथजी का योगी सम्प्रदाय 12 उपपंथों में विभाजित है।इसीलिये इन्हें 'बारहो पन्थी' कहते हैं। इनमें से प्रत्येक सम्प्रदाय गोरखनाथ जी के निकटतम शिष्य अथवा अनुयायी द्वारा प्रवर्तित है।सम्प्रदाय के उपपंथ इस प्रकार हैं-
(1) सतनाथी (2) रामनाथी (3) धर्मनाथी (4) लक्ष्मननाथी (5) दरियानाथी(6) गंगानाथी (7) बैरागपंथी (8) रावलपंथी या नागनाथी (9) जालन्धरनाथी (10) ओपन्थी (11) कापलती या कपिलपंथी (12) षज्जानाथी या महावीरपंथी। इन विभिन्न पंथियों का भारतवर्ष मेंअपना प्रमुख केन्द्र हैं तथा ये सभी देशव्यापी एक संगठन से सम्बद्ध हैं।नाथ-पंथी योगियों द्वारा रचित विस्तृत योग-साहित्य प्राप्त होता है जिसमेंसे 'गोरक्ष-शतक', 'गोरक्ष-संहिता', 'सिद्धान्त-पद्धति, 'योग-सिद्धान्त-पद्धति', 'सिद्ध- सिद्धान्त-पद्धति, 'हठयोग', 'ज्ञानामृत' आदि अनेक संस्कृत ग्रन्थस्वयं गोरक्षनाथजी द्वारा रचित हैं। इसी सम्प्रदाय के योगियों द्वारा रचित'हठयागप्रदीपिका', 'शिव-संहिता' और 'घेरण्ड-संहिता' आदि योग-साधना से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार 'गोरक्ष-गीता', 'गोरक्ष-कौमुदी', 'गोरक्षसहस्रनाम', 'योग-संग्रह', 'योगमञ्जरी', 'योग-मार्त्तण्ड' आदि ग्रन्थ गोरखनाथजी के शिक्षा-सिद्धान्तों पर आधारित हैं।
गोरखनाथजी द्वारा प्रवर्तित योगी सम्प्रदाय सामान्यतः 'नाथ योगी', 'सिद्ध-योगी', 'अवधूत-योगी', 'दरसनी योगी' या 'कनफटा-योगी' के नाम सेप्रसिद्ध है। ये सभी नाम साभिप्राय हैं। योगी का लक्ष्य नाथ अर्थात् स्वामी होना है। प्रकृति के ऊपर पूर्ण स्वामित्व स्थापित करने के लिये योगी कोअनिवार्यतः नैतिक, शारीरिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक नियमों की क्रमिक विधि का पालन करना पड़ता है। "सिद्ध-योगी" से तात्पर्य यह है कि जो योगी भौतिक जगत् के स्थूल, सुक्ष्म एवं सूक्ष्मतम तत्त्वों पर तथा स्थूल वसूक्ष्म शरीर के नियन्त्रण द्वारा "सिद्धि" अथवा "आत्मोपलब्धि" प्राप्तकरता है। जो योगी आत्मानुभूति की उच्चतम स्थिति को प्राप्त कर लेता है, वह 'अवधूत' कहलाता है। अवधूत योगी प्रकृति की शक्तियों एवं नियमों से परे होने के कारण भौतिक जगत् के दुःखों और बन्धनों से मुक्त होकर शिव के साथ एकत्व को प्राप्त कर लेता है।
इस सम्प्रदाय के योगी कुछ निश्चित प्रतीकों का प्रयोग आध्यात्मिक अर्थ के अभिप्राय से करते हैं। नाथ-योगी का एक प्रकट चिह्न कानों में पहने हुएकुण्डल हैं। इस सम्प्रदाय का प्रत्येक व्यक्ति संस्कार की तीन स्थितियों का अनुभव करता है। तीसरी अथवा अन्तिम स्थिति में गुरु शिष्य के दोनों कानों के मध्यवर्ती कोमल भागों को फाड़ देता है और घाव भरने पर उनमेंदो बड़े छल्ले पहना दिये जाते हैं। अतएव इस सम्प्रदाय के योगी को कनफटा योगी कहा जाता है। योगी के द्वारा पहना जाने वाला 'मुद्रा', 'दरसन', 'कुण्डल' आदि नामों से प्रसिद्ध हैं। यह गुरु के प्रति शिष्य के पूर्ण आत्म समर्पण का प्रतीक है।
'औघड़ योगी' गोरखनाथजी के उन अनुयायियों को कहा जाता है जो सभी सांसारिक सम्बन्धों का परित्याग कर योग-सम्प्रदाय में प्रविष्ट हो गये हैं पर अन्तिम दीक्षा-संस्कार के रूप में कान नहीं फड़वाया है। "दरशनीयोगी" वे हैं जिन्होंने सांसारिक जीवन का पूर्णतः परित्याग करलक्ष्य-सिद्धि प्राप्ति तक योग साधना के मार्ग से विरत न होने का दृढ व्रत लिया है। "औघड" तथा "दरशनी" योगी ऊन का पवित्र उपवीत (जनेऊ) पहनते हैं। इसी में एक छल्ला जिसे 'पवित्री' कहते हैं, लगा रहता है। छल्लेमें एक नादी लगी रहती है जो 'नाद' कहलाती है और इसी के साथ रुद्राक्षकी मनियाँ भी रहती हैं। 'नाद' प्रणव (ॐ) की अनाहत ध्वनि तथा 'रुद्राक्ष' तत्त्वदर्शन का प्रतीक है।
इस प्रकार 'अवधूत' ही सच्चे अर्थों में नाथ, सिद्ध या दर्शनी है। अवधूत(गुरु) की पूर्ण मुक्त आत्मा के साथ एकत्व स्थापित करके कनफटा योगी की आत्मा अहंकारमयी प्रवृत्तियों और इच्छाओं के बन्धन से मुक्ति को प्राप्त हो जाती है। वह भी साधना के उच्चतम भूमि तक पहुंचकर शिवत्व को प्राप्त हो जाता है।
गुरु गोरखनाथ तथा उनकी परम्परा के महायोगी किसी निश्चित दार्शनिक सिद्धांत की स्थापना किसी शुष्क तर्क के आधार पर न करके पूर्णतःव्यावहारिकता तथा साधना के अनुभवों के आधार पर करते हैं। सिद्ध योगी संप्रदाय का सबसे अधिक प्रामाणिक दार्शनिक ग्रन्थ"सिद्ध-सिद्धान्त-पद्धति" है। योग-सिद्धान्त के अनुसार विश्व, शक्ति-तत्त्व की भेदात्मक आत्म-अभिव्यक्ति है। शक्तितत्त्व शिव या ब्रह्म से शाश्वतरूप से सम्बद्ध तथा अभिन्न है - "शिवस्य अभ्यन्तरे शक्तिः शक्तेरभ्यन्तरेशिवः।" शिव और शक्ति एक दूसरे में अन्तरस्थ है। परमतत्त्व 'सत्ता' रूप मेंद्वैतात्मक और सापेक्षिक स्थिति से ऊपर तथा स्थान और समय की सीमाओं से परे 'शिव' है और स्वरूपात्मक स्थिति में इस द्वैतात्मक सापेक्षिक जगत् में समय और स्थान की सीमाओं में बंधकर अभिव्यक्तरूप में 'शक्ति' है।
योगी गोरखनाथजी के दर्शन की यह विशेषता है कि वह न केवल व्यक्तिकी आत्मा को विश्वात्मा से अभिन्न मानते हैं, वरन् "व्यष्टिपिण्ड" को भी समस्त ब्रह्माण्ड से अभिन्न मानते हैं। उनके मत के अनुसार 'पिण्ड' ब्रह्माण्ड का ही वैयक्तिक मूर्तरूप है। व्यक्ति के पिण्ड के रहस्यों के पूर्ण ज्ञान एवं उस टपर पूर्ण आधिपत्य द्वारा सम्पूर्ण विश्व का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।जब व्यक्ति के 'आत्मा' और 'विश्वात्मा' तथा 'व्यष्टिपिण्ड' और'ब्रह्माण्ड' (समष्टिपिण्ड) का अज्ञानजन्य भेद समाप्त हो जाता है और एकही शक्तियुक्त शिव भीतर और बाहर सर्वत्र अनुभूत होता है, तभी 'समरसकरण' की स्थिति आती है। इस स्थिति को प्राप्त करना ही योगी के जीवन का आदर्श एवं लक्ष्य है। गोरखनाथजी तथा उनके सम्प्रदाय की दार्शनिक पद्धति को "द्वैताद्वैतविवर्जित" तथा "पक्षापक्षविनिर्मुक्त" कहते हैं।
नाथयोग द्वारा साधना-पद्धति में पातंजल योग का अनुसरण किया गया है।नाथ-योग द्वारा 'षडङ्ग-योग' को स्वीकार किया गया है तथा पातंजल योगप्रदत्त 'अष्टांग योग' के 'यम' एवं 'नियम' को 'षडंग-योग' में समाहित नहीं किया गया, क्योंकि 'यम' एवं 'नियम' का सम्बन्ध विश्वजनीन नैतिकता से है।तथा प्रत्येक मनुष्य को जीवन में नैतिक सिद्धान्तों का पालन करना चाहिए ।ऐसा नाथ सम्प्रदाय का मत है।
नाथ-सम्प्रदाय के द्वारा प्रारम्भिक योग साधना के रूप में 'यम' एवं 'नियम' को महत्त्व देते हैं। पतंजलि द्वारा निर्धारित पाँच 'यम' और पाँच 'नियम' के भेदों के स्थान पर 10 'यम' (अहिंसा सत्यम् अस्तेयम् ब्रह्मचर्यम् क्षमाधृतिः। दयार्जवं मिताहारं शौचं चैव यमो दश।।) तथा 10 'नियम' (तपःसन्तोषं आस्तिक्यं दानमीश्वरपूजनम्। सिद्धान्त वाक्य-श्रवणं ह्री मतिश्चजपो हुतम्।। नियमा दश संप्रोक्ता योगशास्त्रविशारदैः।।) का प्रतिपादन करते हैं जिनका क्रमशः अभ्यास प्रत्येक योग साधना के जिज्ञासु के लिये आवश्यक है।
गोरख सम्प्रदाय हठयोग साधना में प्रवीण है। हठयोग का अर्थ है 'हठेनबलात्कारेण योगसिद्धिः' अर्थात् बलपूर्वक व कठिन अभ्यास से योगसाधना में सिद्धि लाभ करना। हठयोग के ग्रन्थों में 48000 आसनों काउल्लेख है। योग साधना की दृष्टि से चार प्रकार के आसनों- सिद्धासन, पद्मासन, सिंहासन और भद्रासन को उत्तम माना गया है। इन चारों में से सर्वोत्तम"सिद्धासन" है, क्योंकि यह 72000 नाड़ियों को शुद्ध करता है एवं मुक्ति का मार्ग प्रदान करता है। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि गोरखनाथ जी तथा उनके अनुयायियों ने हठयोग की साधना को एक वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किया तथा उन विविध शारीरिक एवं मानसिकप्रक्रियाओं का विस्तृत वर्णन किया जिनके अभ्यास से शारीरिक अवयवों, नाड़ी, मण्डल, इन्द्रियों तथा मन पर पूर्ण संयम स्थापित किया जा सके।इस योगी-सम्प्रदाय से सम्बद्ध अनेक उपलब्ध ग्रन्थों में मुख्यतः 'आसन', 'प्राणायाम', 'धौति', 'मुद्रा', 'चक्रभेद' व नाडीशुद्धि आदि की कठिन प्रक्रियाओं का तथा उनके महत्त्वपूर्ण परिणामों का उल्लेख प्राप्त होता है।नाथ-सम्प्रदाय द्वारा 'हठयोग' को साध्य न मानकर केवल 'साधन' के रूप मेंस्वीकार किया गया है तथा उन्होंने अपनी यौगिक प्रणाली में कर्म, शक्तिएवं ज्ञान के समन्वय की आवश्यकता को स्वीकार करते हुए इस लक्ष्य परअधिक बल दिया है कि योगाभ्यास की सम्पूर्ण का साध्य सभी प्रकार कीदुर्बलताओं, दुःखों और बन्धनों से मुक्त होकर "शक्तियुक्त शिव" के साथ एकत्व स्थापित करना है जिसके परिणामस्वरूप योगी की चेतना नानात्वऔर सापेक्षकत्व के क्षेत्र, समय तथा स्थान के आवरण एवं शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि की सीमाओं का अतिक्रमण करके परमतत्त्व शिव, ब्रह्म यापरमात्मा से आनन्दपूर्वक मिलकर पूर्णतः प्रकाशित हो जाती है। यहाँ नाथततत-योग-सम्प्रदाय के प्रत्येक योगी का साध्य है। वर्तमान में भारतीययोग-परम्परा व सनातन धर्म, जिसके मूल में वैदिक धर्म है, को अक्षुण्ण बनाये रखने में नाथ-योग-सम्प्रदाय का प्रमुख योगदान है। अतएवनाथ-योग- सम्प्रदाय भारतभूमि का गौरव है जिसके प्रति भारत का प्रत्येक नागरिक नतमस्तक है।
उपसंहार
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि वर्तमान में व्याप्त समस्याओं के समाधान हेतु योग का पालन व अध्ययन-अध्यापन अत्यन्त आवश्यक है। योग के माध्यम से ही चेतना को समझा जा सकता है। प्राचीन काल से प्राप्त, भारतीय संस्कृति की धरोहर योग-विद्या की महत्ता को अब अंतर्राष्ट्रीय स्तरपर स्वीकार कर लिया गया है। ।। दिसंबर, 2014 को संयुक्त राष्ट्रमहासभा के 193 सदस्यों ने रिकॉर्ड 177 सह-समर्थक देशों के साथ 21 जून को "अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस" मनाने का संकल्प सर्वसम्मति से अनुमोदित किया। अपने संकल्प में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने स्वीकार किया कि योग स्वास्थ्य एवं कल्याण के लिए पूर्णतावादी दृष्टिकोण प्रदान करना है। योग विश्व की जनसंख्या के स्वास्थ्य के लिए तथा उनके लाभ के लिए विस्तृत रूप में कार्य करेगा। 27 सितंबर, 2014 को संयुक्त राष्ट्रमहासभा (यूएन जी ए) के 69वें सत्र को संबोधित करते हुए भारत के माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने विश्व समुदाय से अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाने का आह्वान किया।
श्री मोदी ने कहा, "योग प्राचीन भारतीय परम्परा एवं संस्कृति की अमूल्यदेन है। योग अभ्यास शरीर एवं मन, विचार एवं कर्म, आत्मसंयम एवं पूर्णता की एकात्मकता तथा मानव एवं प्रकृति के बीच सामंजस्य स्थापित करना है। यह स्वास्थ्य एवं कल्याण का पूर्णतावादी दृष्टिकोण है। योगमात्र व्यायाम नहीं है, बल्कि स्वयं के साथ, विश्व और प्रकृति के साथ एकत्व खोजने का भाव है। योग हमारी जीवन-शैली में परिवर्तन लाकर हमारे अन्दर जागरुकता उत्पन्न करता है तथा प्राकृतिक परिवर्तनों से शरीर में होने वाले बदलावों को सहन करने में सहायक हो सकता है। आइए, हम से मिलकर योग को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में स्वीकार करने की दिशा में कार्य करें।"
वर्तमान में माननीय प्रधानमन्त्रीजी श्री नरेन्द्र मोदीजी के विशेष प्रयासों से योग से सम्पूर्ण विश्व परिचित हो गया है परन्तु योग-परम्परा केअधिकांशतः ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखे होने के कारण सामान्यजन इसमें वैज्ञानिक तथ्यों एवं नूतन शोध की सम्भावनाओं से सर्वथाअपरिचित है। अतएव इस दिशा में चिन्तन की नितान्त आवश्यकता है, जो कि संस्कृत शास्त्रों के गहन अध्ययन से ही सम्भव है।
वर्तमान काल में विज्ञान की प्रगति के साथ-साथ भौतिक सुविधाओं के बढ़ने एवं उसके अधिक उपयोग से पर्यावरण एवं मानव जीवन असुरक्षित हो गया है। बाह्य पर्यावरण के दूषित होने एवं कृत्रिम जीवन-यापन से मनुष्य की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होने से नयी-नयी बीमारियों ने अपने पांव पसारने शुरू कर दिये हैं। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान निरन्तर इन बीमारियों को उद्घाटित तो कर रहा है परन्तु इनका इलाज अभी भी नहीं खोजी जा सका है। वस्तुतः आज एक ऐसी समन्वित चिकित्सा पद्धति कीआवश्यकता है जिससे व्यक्ति को रोगी बनने से रोका जा सके। अतएव योग चिकित्सा विज्ञान को अन्य चिकित्सा विधाओं के साथ जोड़कर एकसमन्वित चिकित्सा पद्धति के पाठ्यक्रम एवं गहन शोध की आवश्यकता है। योगसूत्र में विशेष रूप से मन का विश्लेषण किया गया है। आज के आधुनिक मनोवैज्ञानिक भी मस्तिष्क की संरचना को समझने का प्रयास कर रहे है, क्योंकि मानसिक रोगों के निदान हेतु मन का पूर्णतया अध्ययन आवश्यक है परन्तु उनका सम्पूर्ण अध्ययन पाश्चात्य विद्वानों के मतों परआश्रित है। अतएव योग एवं मनोविज्ञान के क्षेत्र में समन्वित शोध कीआवश्यकता है। योग एवं मनोविज्ञान के समन्वित शोध से ब्रेन-मैपिंग जैसीआधुनिकी तकनीकी का विकास सम्भव है तथा मानसिक सन्तुलन, मस्तिष्क की स्मृति और भविष्य कल्पना जैसे गम्भीर विषयों पर भी शोधकार्य सम्भव है। मनोविज्ञान के क्षेत्र (Cognitive Science) के शोध-क्षेत्र में भी योग का समन्वय अत्यन्त आवश्यक है। इसी प्रकार योग का उद्देश्य मन के नियन्त्रण के द्वारा स्व-चेतना के स्तर को प्राप्त करना है, जिसके योग में चिति शक्ति कहा गया है। पाश्चात्य चिकित्सा विज्ञान कीशाखा तन्त्रिका- विज्ञान (Neuroscience) के शोध का कार्य क्षेत्र मानवशरीर व चेतना है। आज भी तन्त्रिका-वैज्ञानिकों (Neuroscientist) के लिये यह एक पहेली है कि किस तरह से शारीरिक-क्रिया से चेतना(Consciousness) उत्पन्न हो जाती है? क्या शरीर व चेतना दो भिन्न चीजें हैं अथवा एक? योग एवं तन्त्रिका विज्ञान के समन्वित शोध से इन सभी प्रश्नों के हल से तन्त्रिका विज्ञान के क्षेत्र में नूतन शोध कार्य सम्भव है जो मानव एवं प्राणि-वर्ग के लिये कल्याणकारी होगा। योगसूत्रव्यासभाष्य में भाषा- सम्बन्धी चिन्तन का पूर्ण विश्लेषण प्राप्त होता है, जिसके अध्ययन से भाषा-वैज्ञानिकों को निश्चित रूप से एक नूतन शोध-दृष्टि प्राप्त होगीएवं (Speech Therapy) में भी आशातीत सफलता प्राप्त होगी।योगसूत्रव्यासभाष्य एवं योग के अन्यान्य ग्रन्थों में सृष्टि की उत्पत्ति सम्बन्धीसम्पूर्ण प्रक्रिया का पूर्ण विश्लेषण प्राप्त होता है। अतएव इसके अध्ययन से भौतिक-वैज्ञानिकों (Physicist) एवं ब्रह्माण्ड-विज्ञान (Cosmology) के क्षेत्र में कार्य करने वालों को इस सृष्टि के मूल कारण को जानने में से प्राप्त होगी जिससे वर्तमान विज्ञान-जगत् के अन्य सभी क्षेत्रों में शोध के नये मार्ग खुलेंगे।
इस प्रकार हमें पाश्चात्य-ज्ञान की एकाकी दृष्टि का परित्याग करते हुए योग, , जो प्राचीन ऋषियों की देन है, का स्वतन्त्र रूप से एवं अध्ययन की अन्यान्य शाखाओं के साथ जोड़कर शोध एवं अध्ययन आवश्यक है।पतंजलि प्रदत्त अष्टाङ्ग-योग का पालन करने वाला प्रत्येक मनुष्य - चाहे वह किसी धर्म अथवा जाति का हो उच्च मानवीय मूल्यों, समग्र स्वास्थ्यएवं उच्चतम - प्रज्ञा से युक्त होकर स्व-विकास एवं सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण हेतु कार्य करेगा। अतएव योग को किसी धर्म, जाति, देश की सीमाओं में संकुचित न करके हमारी इस वसुधा पर उत्पन्न उच्चतर प्रज्ञा से युक्त ऋषियों द्वारा सम्पूर्ण मानव जाति के लिये प्रदत्त एक अत्यन्त उपयोगी वैज्ञानिकी विधा के रूप में ग्रहण करना चाहिये, जो कि इस संपूर्ण विश्व के उपयोग के लिये है।
सन्दर्भ सूची
1. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः । योगसूत्र 1/2
2. योगः समाधिः स च सार्वभौमश्चित्तस्य धर्मः। योगसूत्रव्यासभाष्य।/1संयोगो योग इत्युक्तो जीवात्मपरमात्मनोश्चेति। योगियाज्ञवल्क्य
3. हिरण्यगर्भो योगस्य वेत्ता नान्यः पुरातनः। महाभारत 12/349/65
4. इदं हि योगेश्वर योगनैपुणं हिरण्यगर्भो भगवान् जगाद् यत्। श्रीमद्भागवत3/19/13
5. इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।विवस्वान्मनवे प्राहमनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ।। श्रीमद्भगवद्गीता - 4/1
6. एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता योगो नजूः पतन्तप ।। श्रीमद्भगवद्गीता - 4/2
7. स एवायं मया तेऽद्य योग प्रोक्तः पुरातनः।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ।। श्रीमद्भगवद्गीता - 4/3
8. यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह। बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहुःपरमां गतिम् ।। तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणम्। अप्रमत्तस्तदाभवति योगो हि प्रभवाप्ययौ।। कठोपनिषद् (- 2/3) / 10 - 11
9. लययोगश्चित्तलयः कोटिशः परिकीर्तितः ।गच्छंस्तिष्ठन्स्वपन्भुजन्ध्यायेन्निष्कलमीश्वरम् ।। स एव लययोगः।योगतत्त्वोपनिषद् - 23, 24 ।।
10. यच्छेद्वाङ्गनसी प्राज्ञस्तद्यच्छेज्ज्ञान आत्मनि। ज्ञानमात्मनि महतिनियच्छेत्तद्यच्छेच्छान्त आत्मनि ।। कठोपनिषद् - 1/3/13
11. सर्वे हठलयोपाया राजयोगस्य सिद्धये। राजयोगसमारूढ़ः पुरुषःकालवञ्चकः ।। हठयोगप्रदीपिका - 4/103
12. एतेषां लक्षणं ब्रह्मन्वक्ष्ये शृणु समासतः। मातृकादियुतं मन्त्रं द्वादशाब्दंतु यो जपेत् ।। क्रमेण लभते ज्ञानामणिमादिगुणान्वितम्। अल्पबुद्धिरिमंयोगं सेवते साधकाधमः ।। योगतत्त्वोपनिषद्-21, 22
13. तस्य वाचकः प्रणवः तज्जपस्तदर्थभावनम्। योगसूत्र 1/27, 28
14. ज्ञानयोगेन सांख्यानाम्। श्रीमद्भगवद्गीता - 3/3
15. ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः। यज्ज्ञात्वा नेहभूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते।। तदेव - 7/2
16. अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्। एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानंयदतोऽन्यथा ।। तदेव - 13/11
17. मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ।। तदेव 13/18
18. कर्मयोगेन योगिनाम्। श्रीमद्भगवद्गीता - 3/3
19. तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर। असक्तो ह्याचरन्कर्मपरमाप्नोति पुरुषः ।। कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ।। श्रीमद्भगवद्गीता - 3/19 -20
20. अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः। सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरुयतात्मवान् श्रीमद्भगवद्गीता - 12/11
21. ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्।। श्रीमद्भगवद्गीता - 12/12
22. सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा।। नारद-भक्तिसूत्र - 1/2
23. अमृतस्वरूपा च। तदेव - 1/3
24. यल्लब्ध्वा पुमान् सिद्धो भवति, अमृतो भवति, तृप्तो भवति। तदेव - 1/4
25. मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते। श्रद्धया परयोपेतास्ते मेंयुक्ततमा मताः ।।
श्रीमद्भगवद्गीता - 12/12
26. मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ।। तदेव - 12/10
27. श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानत्याद्धनं विशिष्यते।
28. ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ।। तदेव - 12/12
29. भाव्यं च द्विविधम् ईश्वरस्तत्त्वानि च। स. द. सं. पृ. 587
30. तान्यपि द्विविधानि जडाजडभेदात्। वही
31. प्रकृतिमहदहंकारादीनि चतुर्विंशतिः। अजडः पुरुषः । वही
32. चित्तवृत्तिबोधे पुरुषस्यानादिः सम्बन्धो हेतुः। योगसूत्र-व्यासभाष्य- 1/4
33. न विशेषेभ्यः परं तत्त्वान्तरमस्ति, इति विशेषाणां नास्तितत्त्वान्तरपरिणामः तेषां तु धर्मलक्षणावस्थापरिणामा व्याख्यायन्ते ।योगसूत्र-व्यासभाष्य - 2/19
34. तद्यथा-शब्दतन्मात्रं, स्पर्शतन्मात्रं, रूपतन्मात्रं, रसतन्मात्रं, गन्धतन्मात्रंचेत्येकद्वित्रिचतुष्पंचलक्षणाः शब्दादयः पंचविशेषाषष्ठाश्चाविशेषोऽस्मितामात्र इति। एते सत्तामात्रस्यात्मनो महतःषडविशेषपरिणामाः । तदेव
35. तत्राकाशवाय्वग्न्युदकभूमयो भूतानिशब्दस्पर्शरूपरसगन्धतन्मात्राणामविशेषाणां विशेषाः। तथाश्रोत्रत्वक्वक्षुर्जिह्वाघ्राणानि बुद्धीन्द्रियाणि। वाक्पाणिपादपायूपस्थानिकर्मेन्द्रियाणि। एकादशं मन्त्रः सर्वार्थम् । इत्येतान्यस्मितालक्षणस्याविशेषस्य विशेषाः। तदेव
36. चित्तिशक्तिरपरिणामित्यप्रतिसंक्रमा दर्शितविषया शुद्धा चानन्ता च।योगसूत्र-व्यासभाष्य- 1/2
37. क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः। योगसूत्र 1/24
38. क्लेशहेतुकाः कर्माशयप्रचय क्षेत्रीभूताः क्लिष्टाः। योगसूत्रव्यासभाष्य- 1/5
39. तस्मिन् समाहितचित्तस्य या प्रज्ञा जायते तस्या ऋतम्भरेति संज्ञाभवति। योगसूत्रव्यासभाष्य - 1/48
40. यस्त्वेकाग्रे चेतसि सद्भूतमर्थ प्रद्योतयति, क्षिणोति च क्लेशान्, कर्मबन्धनानि श्लथयति, निरोधमभिमुखं करोति, स सम्प्रज्ञातो योगइत्याख्यायते। योगसूत्र-व्यासभाष्य- ।/।
41. विशेषेण तर्कणमवधारणं वितर्कस्तेनानुगतो युक्तो निरोधोवितर्कानुगतनामा योग इति भावः। योगवार्तिक - 1/17
42. वितर्काश्चित्तस्यालम्बने स्थूल आभोगः। योगसूत्रव्यासभाष्य 1/17
43. सूक्ष्मो विचारः। योगसूत्र-व्यासभाष्य दृ।/17
44. तस्य स्थूलस्य कारणं पञ्चतन्मात्रादिकं सूक्ष्मं तस्य ध्यानेनसाक्षात्कारी विचारः। मणिप्रभा - 1/17
45. इन्द्रिये स्थूल आलम्बने चित्रस्याभोगो ह्लाद आनन्दः। तत्त्ववैशारदी - 1/17
46. सत्त्वं सुखमिति तान्यपि सुखानीति तस्मिन्नाभोगो ह्लाद इति। तदेव
47. तदानीं चानन्दगोचर एवाहं सुखीति चित्तवृत्तिर्भवति। तथा च गीता
48. सुखमात्यन्तिकं यत्तद् बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
49. वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितिश्चलति तत्त्वतः ।।
50. तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।। इति गीता 6/21, 23 - योगवार्तिक 1/17
51. दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतेवास्मिताम्। योगसूत्र - 2/6
52. सत्त्वपुरुषयोरहमस्मीत्येकताभिमानोऽस्मितेत्यर्थः। योगसुधाकर - 2/6
53. एकात्मिका संविदस्मिता। योगसूत्र 1/17
54. अस्मितायां प्रमातृमात्रम्। पातंजल-रहस्य-1/17
55. सर्ववृत्तिनिरोधे त्वसम्प्रज्ञातः समाधिः। योगसूत्र-व्यासभाष्य - 1/1
56. (1) तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्णयम्। योगसूत्र - 1/16
(2) सत्त्वगुणात्मिका चेयमतो विपरीता विवेकख्यातिरिति । अतस्तस्यांविरक्तं चित्तं तामपि
ख्यातिं निरुणिद्ध। योगसूत्र-व्यासभाष्य 1/2
57. तदवस्थं चित्तं संस्कारोपगं भवति। स निर्बीजः समाधिः।योगसूत्र-व्यासभाष्य 1/2
58. न तत्र किंचित्सम्प्रज्ञायत इत्यसम्प्रज्ञातः । तदेव
59. (1) तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्। योगसूत्र - 1/3
(2) तस्मिन्निवृत्ते पुरुषः स्वरूपमात्रप्रतिष्ठितोऽतः शुद्ध केवलो मुक्तइत्युच्यत इति । योगसूत्रव्यासभाष्य - 1/51
60. पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वाचितिशक्तिरिति। योगसूत्र 4/34
61. तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः। योगसूत्र - 2/1
62. व्युत्थानचित्तोऽपि योगयुक्तः स्यादित्येतदारभ्यते ।योगसूत्र-व्यासभाष्य - 2/1
63. क्रिया एव योगः योगसाधनत्वात्, योगोपायत्वाद्योगः। योगवार्तितक - 2/1
64. अनादिकर्मक्लेशवासनाचित्रा प्रत्युपस्थितविषयजाला चाशुद्धिर्नान्तरेणतपः सम्भेदमापद्यत इति तपस उपादानम्। योगसूत्र-व्यासभाष्य - 2/1
65. तपो द्वन्द्वसहनम्। योगसूत्र-व्यासभाष्य-2/32
66. तच्च चित्तप्प्रसादनमबाधमानमनेनाऽऽसेव्यमिति । तदेव
67. स्वाध्यायः प्रणवादिपवित्राणां जपो मोक्षशास्त्राध्ययनं वा। तदेव
68. ईश्वरप्रणिधानं सर्वक्रियाणां परमगुरावर्पणं तत्फलसंन्यासो वा। तदेव
69. समाधिभावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च । योगसूत्र - 2/2
70. यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयो ष्टावङानि ।योगसूत्र - 2/29
71. अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाः यमाः। योगसूत्र - 2/30
72. शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः। योगसूत्र - 2/32
73. स्थिरसुखमासनम्। योगसूत्र - 2/46
74. तस्मिन् सति श्वासप्रश्वास्योर्गतिविच्छेदः प्राणायामः। योगसूत्र - 2/49
75. स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः।योगसूत्र- - 2/54
76. देशबन्धश्चित्तस्य धारणा। योगसूत्र - 3/1
77. तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्। योगसूत्र - 3/2
78. तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरुपशून्यमिव समाधिः। योगसूत्र - 3/3
79. धा योगाङ्गानुश्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः। योगसूत्र - 2/28
80. योगसूत्र 1/23
81. क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः। योगसूत्र 1/24
82. तत्त्ववैशारदी - 1/24
83. तस्य वाचकः प्रणवः । योगसूत्र - 1/27
84. ईश्वरप्रणिधानं तस्मिन् परमगुरौ सर्वकर्मार्पणम्। योगसूत्र-व्यासभाष्य- 2/32
85. समाधिसिद्धीरीश्वरप्रणिधानात्। योगसूत्र- - 2/45
86. प्रणिधानाद्भक्तिविशेषादावर्जित ईश्वरस्तमनुगृह्णात्यभिध्यानमात्रेण।योगसूत्र- व्यासभाष्य - 1/23
87. तदभिध्यानमात्रादपि योगिन आसन्नतमः समाधिलाभः समाधिफलं चभवतीति । तदेव
88. नाथ-योग, श्री अक्षय कुमार बनर्जी, अनुवादक-डा. रामचन्द्र तिवारी, दिग्विजयनाथ ट्रस्ट, गोरखनाथ मन्दिर, गोर्खपुर, संस्करण- 1968.
( लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय के तहत आने वाले इंद्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय में संस्कृत विभाग में सहायक आचार्य हैं।)