आंदोलन तो ठीक लेकिन 75 फीसद महिला किसानों की आवाज कहां?
पिछले तीन दशकों में यह देखने में आया है कि ग्रामीण युवा खेती-किसानी से लगातार विमुख होते जा रहे हैं। उनका रुझान शहरों में जाकर नौकरी या व्यापार करने की ओर बढ़ता जा रहा है। जिन छोटे और मध्यम किसान परिवारों के पुरुष खेती छोड़कर दूसरे काम-धंधों से जुड़ रहे हैं।
रामकृष्ण वाजपेयी
देश में एक ओर जोरदारी से किसान आंदोलन चल रहा है। किसानों के हित के लिए बड़े बड़े दावे किये जा रहे हैं लेकिन इस सबके बीच किसी भी राजनीतिक पार्टी को महिला किसानों की याद नहीं आयी। वह हाशिये पर सिमटती जा रही हैं जबकि संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, खेती-किसानी के क्षेत्र में 43 फीसदी योगदान महिलाओं का होता है, लेकिन इन महिलाओं को किसान नहीं, मजदूर कहा जाता है। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक, पूरे देश में छह करोड़ महिला किसान थीं, जबकि महिला किसानों की वास्तविक संख्या इससे कई गुना ज्यादा है।
भारत की खेती में 86.21फीसदी हिस्सेदारी छोटे और सीमांत किसानों की
2015-16 की कृषि जनगणना के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा खेती का रकबा है। इसके बाद बिहार और महाराष्ट्र का नंबर आता है। भारत की खेती में 86.21 फीसदी हिस्सेदारी छोटे और सीमांत किसानों की है। इनके पास दो हेक्टेयर से कम खेती योग्य जमीन है, जबकि 10 हेक्टेयर और अधिक जमीन महज 0.57 फीसदी लोगों के पास है।
किसान आंदोलन तो ठीक है लेकिन महिला किसानों की सुध न तो कोई लेता है न किसी को इसकी फुर्सत है, जबकि खेती-किसानी में होने वाले हादसे और नुकसान की कीमत ज्यादातर महिला किसानों को ही चुकानी पड़ती है। 'महिला किसान अधिकार मंच' के मुताबिक, खेती-किसानी से जुड़े 75 फीसदी काम महिलाएं ही करती हैं, लेकिन उनके नाम पर केवल 12 फीसदी जमीन ही है। जब देश की आर्थिक रूप से सक्रिय 80 प्रतिशत महिलाएं खेती-किसानी में लगी हैं।
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इससे जाहिर होता है खेती-किसानी की जिम्मेदारी धीरे-धीरे महिला किसानों पर बढ़ती जा रही है। फिर भी उनकी अलग से न कोई पहचान है और न ही कोई श्रेणी तय की जा रही है। ऐसे में वे सरकारी सहयोग से भी वंचित हो रही हैं।
ग्रामीण युवा खेती-किसानी से लगातार विमुख होते जा रहे
पिछले तीन दशकों में यह देखने में आया है कि ग्रामीण युवा खेती-किसानी से लगातार विमुख होते जा रहे हैं। उनका रुझान शहरों में जाकर नौकरी या व्यापार करने की ओर बढ़ता जा रहा है। जिन छोटे और मध्यम किसान परिवारों के पुरुष खेती छोड़कर दूसरे काम-धंधों से जुड़ रहे हैं, उनकी जगह महिलाएं ही खेती संभाल रही हैं। महाराष्ट्र, कर्नाटक व मध्यप्रदेश में बड़ी संख्या में आत्महत्या करने वाले किसानों के परिवार की महिलाओं पर ही खेती की जिम्मेदारी आयी है। इन सबके बावजूद उनका कोई सम्मान नहीं है। जिन्होंने अपने दम पर कृषि क्षेत्र में पुरुषों के मुकाबले बेहतर मुकाम हासिल किया है। फिर भी उन्हें किसान नहीं माना जाता है।
NCRB के आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2017 में भारत में कृषि में शामिल 10,655 लोगों ने आत्महत्या की है। हालाँकि यह आँकड़ा वर्ष 2013 के बाद सबसे कम है। आत्महत्या करने वालों में 5,955 किसान/कृषक और 4,700 खेतिहर मज़दूर थे। हालाँकि आत्महत्या करने वाली महिला किसानों की संख्या 2016 के 275 से बढ़कर 2017 में 480 हो गई है जो कि उनकी उपेक्षा की ओर इशारा करता है।
वर्ष 2017 में कृषि क्षेत्र में सबसे अधिक आत्महत्याएँ महाराष्ट्र में (34.7 प्रतिशत) हुई हैं, उसके बाद कर्नाटक (20.3 प्रतिशत), मध्य प्रदेश (9 प्रतिशत), तेलंगाना (8 प्रतिशत) और आंध्र प्रदेश (7.7 प्रतिशत) में आत्महत्याएँ हुई हैं।
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कृषि क्षेत्र में आत्महत्याओं में महाराष्ट्र शीर्ष पर
गौरतलब है कि वर्ष 2016 में कृषि क्षेत्र में आत्महत्याओं का प्रतिशत क्रमशः महाराष्ट्र में 32.2 प्रतिशत, कर्नाटक में 18.3 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 11.6 प्रतिशत, आंध्र प्रदेश में 7.1 प्रतिशत और छत्तीसगढ़ में 6 प्रतिशत था तथा वर्ष 2015 में भी कृषि क्षेत्र में आत्महत्याओं में महाराष्ट्र शीर्ष पर था एवं कर्नाटक और मध्य प्रदेश वर्ष 2016 की भाँति दूसरे और तीसरे स्थान पर थे।
खेती के रकबे में वर्ष 2010-11 की तुलना में 1.53 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है। इस गणना के प्रारंभिक आंकड़ों के अनुसार, देश में खेती का रकबा 15 करोड़ 71.4 लाख हेक्टेयर है। प्रारंभिक आंकड़ों के अनुसार, 2015-16 में कृषि जोत का औसत आकार घटकर 1.08 हेक्टेयर रह गया। 2010-11 में यह 1.15 हेक्टेयर था।
रिपोर्ट के अनुसार, 2010-11 में कृषि जोत रखने वालों में महिलाओं का हिस्सा 12.79 फीसदी से बढ़कर वर्ष 2015-16 में 13.87 फीसदी हो गया। इसी तरह खेती के रकबे के हिसाब से महिलाओं का हिस्सा 10.36 फीसदी से बढ़कर 11.57 फीसदी हो गया। एक सरकारी बयान में कहा गया है, 'इससे पता चलता है कि कृषि भूमि के प्रबंधन और परिचालन में महिलाओं की संख्या बढ़ रही है.'
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महिला किसान का कहना है कि कोई मदद नहीं मिली
उत्तर प्रदेश की एक महिला किसान का कहना है कि खेती करते-करते सत्रह बरस बीत गए हैं। अब तक सरकार से कोई ख़ास मदद नहीं मिली है। हम अपने खेत में सब्ज़ी उगा लेते हैं और उसे बेच लेते हैं जिससे कुछ कमाई हो जाती है। लेकिन अब सुन रहे हैं कि बड़ी कंपनियां गाँव आकर खेती करेंगी। अभी तो हमें तीन हज़ार रुपये साल पर दो बीघा ज़मीन बटाई पर मिल जाती है। कल को कोई कंपनी इसी दो बीघा के लिए ज़मीन वाले को 5000 रुपये दे देगी तो हमारे पास मज़दूरी करने के अलावा क्या विकल्प बचेगा?”
एक अन्य महिला किसान का कहना है कि असल बात ये है कि महिलाओं को पता ही नहीं है कि ये कृषि क़ानून उनके लिए कितने ख़तरनाक साबित हो सकते हैं। गाँव तक जानकारी ही नहीं पहुँची है, लेकिन धीरे धीरे ये जानकारी पहुंच रही है। महिलाएं संगठित हो रही हैं।
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