जयंती विशेष : मुंशी प्रेमचंद ‘डार्क पीरियड़’ में पैदा हुआ भारत का गोर्की

निर्विवाद रूप से हिन्दी कथा साहित्य उर्दू के धनपत राय यानि हिन्दी के कथा सम्राट प्रेमचंद बिना अधूरा है। आज भी प्रेमचंद हिन्दी साहित्य का वह नाम है जिसने केवल किस्सागोई नहीं की या मनगढ़ंत गल्प नहीं लिखे वरन जीवन को अंदर तक छूती और झकझोरती कहानियां लिखी हैं।

Update:2019-07-31 11:10 IST

लखनऊ : निर्विवाद रूप से हिन्दी कथा साहित्य उर्दू के धनपत राय यानि हिन्दी के कथा सम्राट प्रेमचंद बिना अधूरा है। आज भी प्रेमचंद हिन्दी साहित्य का वह नाम है जिसने केवल किस्सागोई नहीं की या मनगढ़ंत गल्प नहीं लिखे वरन जीवन को अंदर तक छूती और झकझोरती कहानियां लिखी हैं।

प्रेमचंद ऐसे कथाकार हैं जिनका हर पात्र ऐसा लगता है जैसे हमारे बीच का कोई जीवंत आदमी पन्नों पर उतर आया हो। होरी हो या बंशीधर , गोबर हो या धनिया अथवा शतरंज के खिलाड़ी के नवाब सब पात्र केवल पुस्तक के पन्नों तक नहीं रहते अपितु अपने काल व वातावरण का एकदम असली रंग बिखेरते हुए रोजमर्रा के जीवन में कहीं न कहीं दिख जाते हैं।

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यह यूं ही नहीं है कि प्रेमचंद को सार्वकालिक रूसी कथाकार लियो टालस्टाय व मैक्सिम गोर्की का मिश्रित अवतार माना जाता है। मुंशी प्रेमचंद वस्तुत भारतीय हिन्दी साहित्य के एक ऐसे कालजयी रचनाकार हैं कि उन्हे एक तरफ करने पर हिंदुस्तानी साहित्य अपूर्ण रह जाता है।

मुंशी प्रेमचंद ऐसे ‘डार्क पीरियड़’ में पैदा हुए जिसमें गुलामी का दंश गहरे डस रहा था , आम भारतीय सुख की जिंदगी जीने की कल्पना नहीं कर सकता थे।

अंग्रेजी शासन के तले भारतीय बुरी तरह त्रस्त थे। गरीबी का पोषण बहुत असामान्य बात थी , वर्गभेद व छुआ-छूत से त्रस्त भारतीय समाज शोषण का एक आइना था और भारतीयों को उच्च शिक्षा से दूर रखने व उच्च पदों तक न पंहुचने देने का पूरा इंतजाम अंग्रेजी शासन ने कर रखा था इन्ही परिस्थितियों में अजायबराय व आनंदी देवी का बेटा धनपत राय अपने दूसरे भाई बहनों के साथ बड़ा हुआ।

पढ़ाई लिखाई के प्रति उसमें बहुत रुचि न थी। परिणामतः लगातार पिछड़ते गये , यहां तक कि बारहवीं भी नहीं ही पास नहीं कर पाए।

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कथा व उपन्यास के लाइटहाऊस

मेहनत करते करते प्रेमचंद ‘डिप्टी एजुकेशन आफिसर’ के पद तक पंहुचे , हालांकि गरीबी प्रेमचंद से जोंक की तरह ता उम्र चिपकी रही। लिखने प्रति जुनून के चलते प्रेमचंद ने पद से इस्तीफा दे जीविकोपार्जन के लिए दोस्तों के कहने पर प्रिटिंगप्रेस भी खोली पर पैसा उनके हाथ कभी भी नहीं लगा और यही किल्लत धनपत राय को अपेक्षाकृत बड़े कैनवास हिन्दी लेखन में ले आई।

कलम की महजब एक बार एक लेखक के तौर पर बजने लगा था तो फिर वें कथा व उपन्यास के ऐसे लाइटहाऊस बने कि आज तक रोशन कर रहे हैं ।

मज़बूरियों ने दी व्यापक दृष्टि

प्रेमचंद के समय के हिन्दी लेखन की यह एक विडम्बना रही कि इस काल के अधिकांश रचनाकारफ़ाकाकशी के शिकार रहे । वैसे सच यह भी है कि कि निर्धनता ,भूख व मज़बूरी ने उन्हें जीवन के कठोर व कड़वे सच को बहुत नज़दीक से देखने , समझने का मौका भी दिया जो उनके लेखन में उभर कर आया है और शायद इन्ही मज़बूरियों ने उन्हे व्यापक दृष्टि भी दी। प्रेमचंद हिन्दी साहित्य को परिस्थितियों की देन भी कहे जा सकते हैं।

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जुम्मन व अलगू

प्रेमचंद के सहित्य में जहां अपने समय की विसंगतियां , विद्रूपतायें , सामाजिक असमानता , अत्याचार , विवषता , सब कुछ सह लेने की कायरता समाहित है वहीं अमीर वर्ग की अय्याशी , असंवेदनशीलता , चाटुकारिता , व अहंकार का भाव जिस सहजता से आया है वह अन्यत्र दुर्लभ है । ‘गोदान’ के होरी झुमरु, गोबर , धनिया, ‘ईदगाह’ के हमीद , ‘नमक के दारोगा’ के वंशीधर व पं0 अलोपीदीन, ‘पंच परमेश्वर’ के जुम्मन व अलगू ,निर्मला की निर्मला, बड़े ‘भाई साहब’ के बड़े भाई ,‘पूस की रात’ के हरखू आदि अपने युग के कालजयी प्रतिनिधि पात्र बन हैं व अपने कालखंड तथा जीवन की पीड़ा का प्रामाणिक प्रतिनिधित्व करते हैं।

कथ्य , शिल्प , संदेश व ताने बाने का अद्भुत समन्वय

प्रेमचंद ने हिन्दी साहित्य को अकेले दम इतना कुछ दिया है कि बाद की कई पीढ़ियां भी उतना नहीं दे पाई। अपनी लगभग हर कहानी में प्रेमचंद ने समाज को एक न एक नैतिक पाठ जरूर पढ़ाया है। साठोत्तरी कहानी के तो प्रेमचंद बादशाह है , उनकी कहानियों में कथ्य , शिल्प , संदेश व ताने बाने का अद्भुत समन्वय है । खड़ी बोली हिन्दी के साथ साथ हिन्दुस्तानी व उर्दू में भी में प्रेमचंद ने कथा , कहानी , नाटक ,उपन्यास ,लघुकथा सब में सृजन के मानक रचे हैं।

कथा व कहानी के क्षेत्र तो प्रेमचंद बेजोड़ हैं।उन जैसा लेखन न तो उन से पहले और न ही उनके बाद आज तक हो पाया है । उनकी बूढ़ी काकी, पंच परमेश्वर, ईदगाह , नमक का दारोगा , पूस की रात , दो बैलों की जोड़ी आदि आज भी अनुपम कहानियां हैं तो उपन्यासों में वाग्दान ,निर्मला ,प्रेमाश्रम , गबन ,रंगभूमि , कर्मभूमि , व गोदान आज भी सर्वश्रेष्ठ कृतियों में शुमार हैं।

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भले ही प्रेमचंद जीते जी गरीबी व फ़ाक़ाकशी में रहे पर मरने के बाद उनके साहित्य ने उनके बेटे , प्रकाशकों व आलोचकों को मालामाल किया है। लमही का यह धरतीपुत्र अपने कर्म व आचरण में सदैव ही विनम्र व यथार्थवादी रहा। पर, अपने पीछे एक महाप्रश्न भी छोड़ गया कि अखिर वें कौन से कारण व कारक हैं जिनके चलते भारतीय लेखकों को अपने जीते जी अभावों से जूझना ही होता है।

आज के कुछ लेखकों के पास पैसा है शोहरत है अगर चल गए तो कोई कमी नहीं है पर आज भी सच यही है कि काम कम और नाम ज्यादा चलता है , नाम के आगे – पीछे लगे झूठ, सच्चे विशेषण व पद ज्यादा प्रभावकारी हो वनस्पति स्तर के छपने के लिए भी जोड़ – जुगाड़ व संसाधन , सिफारिश व धड़े बंदियां , प्रकाशकों की चिरौरी करना अब छिपा नहीं है।

प्रकाशक भी अधकचरे , अनपके लेखकों की छपने की लिप्सा को पूरी तरह दुह रहे हैं अपने पैसे से चंद प्रतियां छपवाने वाले बंटवाने वाले विमोचन समारोही लेखकों के अलावा भी सोशल मीड़िया व वेब पेजों तक सीमित रहने वाले कुकुरमुत्तों टाइप लेखको के बीच क्यों एक दूसरा प्रेमचंद पैदा नही हुआ इस बात पर प्रेमचंद की जयंती पर चिंतन मनन करने की आज महती आवश्यकता है।

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आज उनकी जयंती पर उन्हे साहित्य जगत उन्हे विनम्र प्रणाम कर रहा है होना तो यह भी चाहिए कि हम अपने समय में भी कुछ ऐसे प्रेमचंद तराशें व तलाशें जो समकालीन भारतीय जीवन को वांछित मूल्य प्रदान करने वाले साहित्य का सृजन कर प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ा सकें।

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