BJP पर संकट: टूटा इस पार्टी से नाता, अब होगा इन परेशानियों से सामना
भाजपा के सबसे पुराने साथियों में शामिल शिरोमणि अकाली दल 1998 से ही एनडीए का हिस्सा था और उसका अलग होना भाजपा के लिए एक बड़ा झटका माना जा रहा है।
अंशुमान तिवारी
नई दिल्ली: एनडीए में भाजपा के दो सबसे विश्वसनीय सहयोगी माने जाने वाले दलों शिवसेना और अकाली दल ने अलग राह चुन ली है। पहले शिवसेना ने झटका दिया और अब अकाली दल एनडीए से अलग हो चुका है। भाजपा के सबसे पुराने साथियों में शामिल शिरोमणि अकाली दल 1998 से ही एनडीए का हिस्सा था और उसका अलग होना भाजपा के लिए एक बड़ा झटका माना जा रहा है। किसानों के मुद्दे पर अकाली दल के एनडीए से अलग होने के बाद भाजपा की चुनौतियां भी बढ़ गई हैं और पार्टी पर अपने अन्य सहयोगियों को साथ बांधे रखने की बड़ी जिम्मेदारी आ गई है।
भाजपा को ही ठहराया दोषी
मोदी सरकार में अकाली दल की प्रतिनिधि हरसिमरत कौर बादल के इस्तीफा देने के नौ दिनों बाद अकाली दल ने बड़ा फैसला करते हुए एनडीए से अलग होने का एलान किया। इसके लिए अकाली दल ने भाजपा को ही जिम्मेदार ठहराया है। अकाली दल का कहना है कि भाजपा ने किसान बिलों को न लाने की उसकी मांग अनसुनी कर दी और ऐसे में उसके सामने कोई रास्ता बाकी नहीं बचा था।
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पार्टी के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल का कहना है कि जब अकाली दल के विरोध के बावजूद सरकार ने किसानों से जुड़ा बिल संसद में लाने का फैसला किया तब हमने मोदी सरकार छोड़ दी थी और अब किसानों के साथ संघर्ष करने के लिए काफी सोच विचार के बाद एनडीए से अलग होने का फैसला किया है।
सबसे विश्वसनीय साथी का झटका
अकाली दल का एनडीए से अलग होना इसलिए भी बड़ा झटका माना जा रहा है क्योंकि अकाली दल को भाजपा का सबसे विश्वसनीय सहयोगी माना जाता था। अकाली दल के शीर्ष नेता प्रकाश सिंह बादल ने कई मौकों पर भाजपा और अकाली दल के नजदीकी रिश्ते को रेखांकित किया है।
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वे कहते रहे हैं कि भाजपा और अकाली दल का रिश्ता नाखून और मांस का है जो कभी कभी अलग हो ही नहीं सकता। मगर अब सियासी पिच पर दोनों दलों ने अलग रास्ते पर चलने का फैसला कर लिया है।
सहयोगियों का विश्वास जीतना बड़ी चुनौती
शिवसेना के बाद अकाली दल के भी अलग हो जाने के बाद भाजपा के लिए सहयोगियों का विश्वास कायम रखना एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। इन दोनों दलों के बाद रामविलास पासवान की लोजपा को लेकर भी सवाल खड़े हो रहे हैं। बिहार चुनाव में एनडीए में सीटों के बंटवारे में पेंच फंसा हुआ है और लोजपा इसे लेकर खासी नाराज है। लोजपा की ओर से समय-समय पर नीतीश कुमार पर बड़े हमले किए जा रहे हैं और सीट शेयरिंग का मुद्दा न सुलझ पाने पर उसके भी अलग होने का खतरा पैदा हो गया है।
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सियासी जानकारों का कहना है कि इस समय सहयोगी दलों के अलग होने पर भी केंद्र ने सत्तारूढ़ मोदी सरकार की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ने वाला क्योंकि वह अपने दम पर भी कायम रह सकती है। मगर भविष्य में भाजपा को विश्वसनीय साथी मिलने में मुश्किल हो सकती हैं। भाजपा के दो सबसे अधिक विश्वसनीय साथी शिवसेना और अकाली दल ने एनडीए को झटका दे दिया है जबकि ये दोनों दल विचारधारा के मामले में भी भाजपा के काफी नजदीक माने जाते रहे हैं।
एनडीए में सबसे पुराना सहयोगी
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई और लालकृष्ण आडवाणी ने 1998 में एनडीए बनाने का फैसला किया था। उस समय प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व वाले अकाली दल, बाल बाल ठाकरे की शिवसेना, जॉर्ज फर्नांडीज की समता पार्टी और जयललिता की अन्नाद्रमुक ने सबसे पहले एनडीए को ज्वाइन किया था। समता पार्टी का नाम बाद में बदलकर जदयू हो गया।
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जदयू ने बाद में एक बार एनडीए को झटका दिया था। मगर एक बार अलग होने के बाद अब वह फिर एनडीए का हिस्सा बन चुकी है। अन्नाद्रमुक भी बीच में एनडीए से अलग हो चुकी है। शिवसेना ने अब कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर महाराष्ट्र में सरकार बना ली है। ऐसे में अकाली दल ही ऐसी पार्टी थी जिसने गठन के बाद से अब तक एनडीए का साथ नहीं छोड़ा था।
तीन बार बनाई पंजाब में सरकार
पंजाब में भारतीय जनता पार्टी और शिरोमणि अकाली दल के गठबंधन को काफी मजबूत माना जाता था और दोनों दल लोकसभा और विधानसभा दोनों चुनाव मिलकर लड़ा करते थे। दोनों पार्टियों के रिश्ते पर काफी सौहार्दपूर्ण माने जाते थे।
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और इन दोनों दलों ने मिलकर तीन बार पंजाब में सरकार बनाई। तीनों बार दोनों दलों की सरकार ने 5 साल का कार्यकाल पूरा किया। इसलिए दोनों दलों के बीच पैदा हुई इस गलतफहमी को भाजपा के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है।
अनसुनी कर दी थी सिद्धू की मांग
पंजाब में अकाली दल और भाजपा की दोस्ती में कभी दरार नहीं देखी। अकाली दल के झगड़े के कारण ही नवजोत सिद्धू जैसे लोकप्रिय स्टार प्रचारक को भाजपा छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। दरअसल सिद्धू चाहते थे कि पंजाब में अकाली दल से दोस्ती तोड़ दी जाए मगर भाजपा हाईकमान ने अकाली दल से दोस्ती को तरजीह दी जिससे सिद्धू के लिए भाजपा छोड़ने के सिवा कोई विकल्प नहीं बचा।
मोदी और शाह ने नहीं छोड़ा साथ
पंजाब में हुए 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान भी भाजपा का एक बड़ा धड़ा अकाली दल से अलग होकर चुनाव लड़ने की मांग कर रहा था। मगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने अपने सबसे पुराने सहयोगी दल का साथ न छोड़ने का फैसला किया और अकाली दल के साथ मिलकर ही चुनाव लड़ा।
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हालांकि कुछ सियासी जानकारों का कहना है कि भाजपा को इस फैसले की कीमत भी चुकानी पड़ी। उसके बाद से ही भाजपा के भीतर यह मांग जोर पकड़ रही थी कि अब उसे पंजाब में अकाली दल का साथ छोड़कर अपने बलबूते चुनाव लड़ना चाहिए। मगर कोई उचित और तार्किक कारण न होने के कारण दोनों दलों का साथ बना रहा।
किसानों का मुद्दा बना बड़ी चुनौती
भाजपा के लिए अकाली दल का अलग होना इसलिए भी एक बड़ी चुनौती माना जा रहा है कि वह किसानों के मुद्दे पर छोड़ने का फैसला किया है। किसानों का मुद्दा देश के जनमानस और चुनावों को काफी हद तक प्रभावित करता है। ऐसे में जबकि बिहार में विधानसभा चुनाव सर पर हैं,
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अकाली दल का किसानों के मुद्दे पर एनडीए से अलग होना भाजपा के लिए मुसीबत बन सकता है। यही कारण है कि भाजपा की ओर से कई मंत्रियों को किसानों के बीच तथ्य रखने के लिए उतारा गया है ताकि किसानों की नाराजगी को दूर किया जा सके।
अन्नदाता से महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं
एनडीए से अलग होने के फैसले का एलान करते हुए शिरोमणि अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल ने कहा कि हमारे लिए कोई भी गठबंधन या मंत्रालय अन्नदाता से अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। हम पहले दिन से ही किसानों और खेत मजदूरों के साथ हैं और यही कारण है कि हमने किसान विधेयकों का विरोध करते हुए मंत्रिमंडल से हटने के साथ ही अब एनडीए से हटने का फैसला ले लिया है।
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उन्होंने कहा कि इन विधेयकों को निरस्त करने के लिए हम किसानों के आंदोलन के पूरी तरह साथ हैं और अकाली दल के नेता और कार्यकर्ता भी सड़क पर उतर कर इन विधेयकों का विरोध करेंगे।
नहीं पसीज रहा भारत सरकार का दिल
अकाली दल के एनडीए से अलग होने के एलान के बाद पूर्व केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर ने भी कहा कि यह वह एनडीए नहीं है जिसकी कल्पना बाजपेयी जी और बादल साहब ने की थी। उन्होंने कहा कि तीन करोड़ पंजाबियों की पीड़ा और विरोध के बावजूद भारत सरकार का दिल नहीं पसीजा रहा है।
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उन्होंने कहा कि ऐसा गठबंधन जो अपने सबसे पुराने सहयोगी की बात नहीं सुनता है और पूरे देश का पेट भरने वालों से भी नजरें फेर लेता है तो ऐसा गठबंधन कभी भी पंजाब के हित में नहीं है। हरसिमरत कौर के इस ट्वीट से समझा जा सकता है कि अकाली दल किसानों के मुद्दे पर अब खुलकर सामने आ गया है और भाजपा और अकाली दल के बीच पैदा हुई खाई को पाटना अब इतना आसान नहीं रह गया है।