संघ लोक सेवा आयोग: UPSC को तो नफरत की आग से बचाइए, करिए भरोसा

अब देश में एक ऐसी ट्रोल आर्मी खड़ी हो रही है जो यूपीएससी जैसी विश्वसनीय संस्थाओं पर हमले कर रही है। उसके निशाने पर तो कोई और है लेकिन हालात "गेहूं के साथ घुन पिसने" वाले बनते जा रहे हैं।

Update:2020-09-21 16:57 IST
संघ लोक सेवा आयोग: UPSC को तो नफरत की आग से बचाइए, करिए भरोसा

रतिभान त्रिपाठी

लखनऊ: हिंदी के कवि गोपाल दास नीरज ने किसी दौर में एक कविता लिखी थी.."कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है।" यह कविता जिंदगी की कविता है, उम्मीद की कविता है, भरोसा जगाने वाली कविता है, प्रेम उगाने वाली कविता है। लेकिन यह ऐसा समय है जब नफरत उगाई जा रही है। हमारे देश के पैमाने पर ही नहीं, दुनिया के पैमाने पर। कहीं नस्लों के नाम पर, कहीं संप्रदायों और धर्म के नाम पर, कहीं जाति के नाम पर, कहीं रंग के नाम पर।

कौन नहीं जानता कि नफरतों से निर्माण नहीं विध्वंस होता है लेकिन इसे अपरिपक्वता कहें, साजिश कहें या फिर राजनीतिक स्वार्थ, हमारे देश में भी एक तबका ऐसा उभर रहा है जो सोशल मीडिया को हथियार बनाकर नफरत फैला रहा है। संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) जैसी देश की पुरानी और भरोसेमंद संस्था पर सवाल किए जा रहे हैं।

संघ लोक सेवा आयोग की विश्वसनीयता पर आंच नहीं आयी

पिछले तीस बत्तीस सालों में समाजवाद, दलितवाद या ऐसे ही कुछ और नामों पर देश के अलग अलग हिस्सों में राज करने वाले क्षेत्रीय दलों के लोगों ने प्रदेश स्तर की परीक्षा प्रणालियों व परीक्षा संस्थाओं को तो बरबाद कर ही रखा है लेकिन इन्हीं सबके कुत्सित प्रयासों के बावजूद संघ लोक सेवा आयोग की विश्वसनीयता पर आंच नहीं आयी। अब देश में एक ऐसी ट्रोल आर्मी खड़ी हो रही है जो यूपीएससी जैसी विश्वसनीय संस्थाओं पर हमले कर रही है। उसके निशाने पर तो कोई और है लेकिन हालात "गेहूं के साथ घुन पिसने" वाले बनते जा रहे हैं।

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यूपीएससी पर लग रहे हैं ये आरोप

सोशल मीडिया पर एक अरसे से अभियान सा छिड़ा दिख रहा है। फेसबुक, ट्वीटर और व्हाट्सऐप जैसे अनेक प्लेटफार्मों का दुरुपयोग करते हुए एक तबका यूपीएससी जिहाद हैशटैग जैसे अलग अलग नामों से समाज में यह भ्रम फैला रहा है कि यूपीएससी की परीक्षाओं में मुसलमानों को प्राथमिकता दी जा रही है। कहीं पर लिखा दिखता है कि यूपीएससी की परीक्षाओं में मुसलमानों को 9 मौके और हिंदुओं को 6 ही मौके तो कहीं उम्र को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं।

लिखा जाता है कि हिंदुओं के लिए परीक्षा की उम्र 32 रखी गई है और मुसलमानों के लिए 35 की गई है। इससे भी आगे यह सवाल कि इस्लामिक स्टडीज के जरिए मुसलमानों को आईएएस, आईपीएस बनने का मौका दिया जा रहा है। जबकि हिंदुओं के लिए वैदिक या हिंदू स्टडीज जैसा विषय रखा ही नहीं गया। ये सारे दावे वैसे ही मिथ्या हैं जैसे कोई कहे कि सूरज पश्चिम से निकलता है।

यूपीएससी की परीक्षाओं में मुसलमानों को 9 मौके और हिंदुओं को 6

यूपीएससी जैसी संस्था भला इस पर बेवजह सफाई क्यों दे लेकिन देश के नीति निर्माताओं की जिम्मेदारी तो बनती ही है कि वह ऐसे विषयों पर गंभीरता से अपनी बात रखें और स्थिति साफ करें कि ऐसा बिल्कुल नहीं है। फेसबुक, ट्वीटर या दूसरे मीडिया प्लेटफार्मों के प्रबंधन को ऐसे मिथ्या, भड़काऊ या नफरत भरे संदेशों को रोकने का प्रयास करना चाहिए।

वह ऐसा कर नहीं रहे हैं, जबकि इन सोशल मीडिया प्लेटफार्मों के प्रबंधक दावा करते हैं कि वह नफरत फैलाने वालों पर लगाम लगाते हैं। कुछ मसलों पर ऐसा करके दिखाया भी है लेकिन भारत की सबसे विश्वसनीय परीक्षा संस्था पर उठे सवालों को लेकर कार्रवाई नहीं की गई। इस मसले पर इनकी चुप्पी समझ से परे है।

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यूपीएससी भारत की सर्वश्रेष्ठ प्रशासनिक सेवा

यूपीएससी भारत की सर्वश्रेष्ठ प्रशासनिक सेवाओं के लिए परीक्षा लेने वाली संस्था है। यहां से भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय वैदेशिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा, भारतीय राजस्व सेवा जैसी नौकरियों के लिए अभ्यर्थी चुने जाते हैं। पुख्ता परीक्षा प्रणाली है, जिसमें संवैधानिक व्यवस्था के अनुरूप नियमों का पालन किया जाता है।

संप्रदाय और रंगभेद को कोई स्थान नहीं है। हर साल आयोजित होने वाली इस परीक्षा प्रणाली के नियम कानून बाकायदा प्रकाशित किए जाते हैं। अर्हता, आयु, आरक्षण व्यवस्था, विषय आदि के संबंध में विस्तार से जानकारी दी जाती है।

यूपीएससी की परीक्षा के लिए ये योग्यताएं होनी चाहिए

आईएएस, आईएफ़एस या आईपीएस कौन कौन बन सकता है? यह भी स्पष्ट किया जाता है कि उसे भारत का नागरिक होना आवश्यक है न कि किसी धर्म विशेष, जाति या नस्ल का। यह भी बताया जाता है कि इसके लिए न्यूनतम आयु 21 साल है जबकि अधिकतम 32 साल है लेकिन इसमें भी सिर्फ़ अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, शारीरिक रूप से अक्षम और पूर्व सैन्यकर्मियों के लिए उम्र में छूट दी जाती है।

अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए अधिकतम आयु 37 वर्ष, पिछड़े वर्ग के लिए अधिकतम 36 वर्ष और शारीरिक रूप से अक्षम के लिए 42 वर्ष है। इसके अलावा सिविल सेवा की मुख्य परीक्षा तक अभ्यर्थी का स्नातक होना आवश्यक होता है।

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सोशल मीडिया पर एक तबका यहीं से नफरत के बीज बोना शुरू करता है

इस श्रेणी में मुसलमान या किसी और समुदाय का नाम कहीं भी नहीं है। मतलब साफ है कि उम्र का पैमाना समुदाय के आधार पर तय किया गया है न कि धर्म या संप्रदाय के आधार पर। सोशल मीडिया पर एक तबका यहीं से नफरत के बीज बोना या देश के एक बड़े वर्ग के दिमाग में जहर घोलना शुरू करता है, जब वह यह लिखता है कि मुसलमानों को यूपीएससी की परीक्षाओं में मौक़ा 9 बार दिया जाता है।

जबकि यूपीएससी का विज्ञापन कहता है कि अनुसूचित जाति-जनजाति और शारीरिक रूप से अक्षम अभ्यर्थियों के लिए परीक्षा देने की कोई सीमा नहीं है। शेष हर वर्ग के अभ्यर्थी 6 बार ही परीक्षा दे सकते हैं। ऐसे में मुसलमान कहां से इसका लाभ ले रहे हैं?

पढ़ाई करने वाले मुसलमानों का चयन ज्यादा किया जा रहा है

सोशल मीडिया पर कुछ लोग दावा करते हुए पोस्ट लिखते हैं कि यूपीएससी इस्लामिक स्टडीज़ विषय के आधार पर मुसलमानों को परीक्षा में चयन का मौका दिया जाता है।

जबकि हकीकत यह है कि इसकी मुख्य परीक्षा के 26 वैकल्पिक विषयों में इस्मामिक स्टडीज जैसा कोई विषय है ही नहीं। और न ही हिंदू या वैदिक विषय है। हां, उर्दू साहित्य विषय जरूर है जिसमें साहित्य से संबंधित ही सवाल होते हैं। मुग़लकाल या मुसलमानों के इतिहास के सवाल भी नहीं होते हैं।

जबकि सोशल मीडिया के शोशेबाज दावा करते हैं कि यही पढ़ाई करने वाले मुसलमानों का चयन ज्यादा किया जा रहा है। केवल बीते साल के अभ्यर्थियों की बात करें तो भारतीय प्रशासनिक सेवा का प्रशिक्षण देने वाली संस्था लाल बहादुर शास्त्री प्रशासनिक एकेडमी के फाउंडेशन कोर्स में 326 प्रशिक्षणार्थी थे। इनमें उर्दू विषय का एक भी नहीं था। इनमें अंग्रेजी माध्यम वाले 315, हिंदी वाले 8, मराठी,गुजराती और कन्नड़ भाषा वाले एक एक थे। यही नहीं 2016ृ 2017 और 2018 में भी उर्दू माध्यम वाले प्रशिक्षणार्थी नहीं थे।

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परीक्षा में 22 भाषाओं को मुख्य वैकल्पिक विषय के रूप में मान्यता

इस परीक्षा में 22 भाषाओं को मुख्य वैकल्पिक विषय के रूप में मान्यता है, जो संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हैं। भाषा देखने पर पता चलता है कि 2017 में उर्दू विषय वाले 26 अभ्यर्थी ही थे जबकि हिंदी के 265, मलयालम के 111, तमिल के 106 और कन्नड़ के 114 अभ्यर्थी थे। ऐसे ही 2018 में 16 छात्रों ने ही इस परीक्षा के लिए उर्दू विषय चुना था।

सच यह है कि पिछले एक दशक में संस्कृत साहित्य के सर्वाधिक छात्रों ने इस परीक्षा का लाभ उठाया है। संस्कृत के सामने उर्दू कहीं ठहरती ही नहीं। 1750 अंकों की लिखित परीक्षा होती है। साक्षात्कार के 275 अंक ही होते हैं। मुख्य मूल्यांकन लिखित परीक्षा के आधार पर होता है।

मुसलमानों का जनसंख्या प्रतिशत 15 प्रतिशत से अधिक

दरअसल बखेड़ा तब से खड़ा होना शुरू हुआ जब 2016 में 28 और 2017 व 2018 की परीक्षा में 50-52 मुसलमान अभ्यर्थी इस परीक्षा के जरिए सेवा में आ गए। 2019 में 42 मुसलमान अभ्यर्थी चुने गए। हालांकि यह संख्या परीक्षा में पास हुए कुल अभ्यर्थियों के 5 प्रतिशत के करीब ही है, जबकि देश भर में मुसलमानों का जनसंख्या प्रतिशत 15 प्रतिशत से अधिक है।

सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग ने अनुसूचित जाति-जनजाति और पिछड़ा वर्ग के छात्रों को अपनी पसंद के कोचिंग सेंटर में कोचिंग लेने के लिए योजना शुरू की है जिसमें पैसा मंत्रालय देगा, साथ ही छात्रवृत्ति भी देगा। जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, जामिया हमदर्द विश्वविद्यालय और ज़कात फ़ाउंडेशन जैसी कई ग़ैर-सरकारी संस्थाएं सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी कराती हैं। ये सभी अल्पसंख्यकों, महिलाओं, आर्थिक रूप से पिछड़े, दलित समुदाय के छात्रों के लिए कोचिंग चलाते हैं।

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यूपीएससी स्तर से किसी के साथ भेदभाव किया जाता है, सवाल खड़े करना ग़लत

ऐसे में यह सवाल खड़े करना ग़लत होगा कि यूपीएससी स्तर से किसी के साथ भेदभाव किया जाता है। जैन समुदाय के लोग अपने वर्ग के छात्रों के लिए एक हजार करोड़ का फंड बनाकर कोचिंग सेंटर चलाते हैं। इस समुदाय के अभ्यर्थी बड़ी संख्या में इस परीक्षा के जरिए चुने जाते हैं तो क्या संस्था पर इल्जाम लगाया जाना चाहिए?

लेकिन सोशल मीडिया का एक तबका जिसके प्रश्रय पर इस तरह के अनर्गल और झूठे मुद्दे उछाल रहा है, वह देश का और ऐसी विश्वसनीय संस्थाओं का भला नहीं चाहता है, यह तो साफ है। ऐसे में सोशल मीडिया प्लेटफार्मों के साथ ही सरकार को इस पर ध्यान देना चाहिए और जरूरी कदम उठाने चाहिए ताकि देश को सर्वोच्च सेवा के लिए अधिकारी देने वाली संस्था की गरिमा बनी रहे और देश का माहौल भी सही रहे।

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