कोरोना और नीतीशः क्या सीएम की गलती से फैली महामारी, ये है सच

बिहार में कोरोना वायरस की स्थिति हर दिन बिगड़ती ही जा रही है। बिहार की स्वास्थ्य सेवा और अस्पताल की हालत काफी ज्यादा खराब है।

Update:2020-07-19 13:06 IST

पटना: बिहार में कोरोना वायरस की स्थिति हर दिन बिगड़ती ही जा रही है। बिहार की स्वास्थ्य सेवा और अस्पताल की हालत काफी ज्यादा खराब है। लोगों को टाइम पर इलाज नहीं मिल पा रहा है और लोगों को अपने इलाज के लिए काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। राज्य में हर दिन कोरोना वायरस की स्थिति बिगड़ती ही जा रही है। इसका अंदाजा तीन बातों से लगाया जा सकता है।

पहला

पहला राज्य में हर दिन टेस्ट की संख्या और संक्रमित पाए जाने वाले मरीजों का प्रतिशत तकरीबन 15 फीसदी से ऊपर है। हालांकि राज्य सरकार लोगों में भ्रम बनाए रखने के लिए यह आंकड़ा हर दिन उलट-पलट कर पेश कर रही है।

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दूसरा

दूसरा जांच की गति से। राज्य के कई जिलों में जांच की रिपोर्ट तीन से पांच दिन के अंतराल में आ रही है या तो सैम्पल जांच के अभाव में खराब हो जाते हैं।

तीसरा

तीसरी यह कि राज्य में राजनीतिक दल भाजपा के दफ़्तर को 70 से अधिक व्यक्ति कोरोना संक्रमित पाए जाने के बाद सील करना पड़ा। राज्य इकाई के अध्यक्ष डॉक्टर संजय जायसवाल भी फिलहाल संक्रमित पाए जाने के बाद अस्पताल में भर्ती हैं।

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यहीं नहीं, बिहार सरकार किसी भी स्तर का अधिकारी या मंत्री या फिर अन्य दल के नेता सभी पटना के एम्स में अपने पद और पहुंच के आधार पर एडमिट हो रहे हैं। इनमें से कोई भी बिहार के सरकारी अस्पातल में इलाज नहीं कराना चाहता, जिससे यह साबित होता है कि बिहार में स्वास्थ्य सेवा और अस्पताल की हालत बेहद खराब है। खुद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के संबंधी भी इलाज के लिए AIIMS पटना बेहतर समझते हैं।

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार क्यों हैं जिम्मेदार?

इसके बाद अब सवाल ये उठता है कि आखिर केंद्र को किन कारणों की वजह से रविवार को अपनी विशेष टीम को पटना भेजना पड़ा और मौजूदा परिस्थितियों के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार क्यों जिम्मेदार हैं? उनके ऊपर विपक्ष द्वारा लगाए जा रहे आरोप कितने सही हैं?

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स्पेशल ट्रेनों के आवागमन पर रोक

नीतीश कुमार इस स्थिति के लिए इसलिए भी जिम्मेदारी हैं क्योंकि उन्होंने कोरोना काल शुरू से ही कमान अपने हाथों में रखी। उन्होंने सबसे बड़ी भूल तब कि जब उन्होंने मार्च महीने में स्पेशल ट्रेनों के आवागमन पर रोक लगवा दी थी, क्योंकि मार्च में कोरोना के मामले तेजी से नहीं बढ़ रहे थे, संक्रमण की स्थिति मौजूदा समय से बेहतर थी। अगर वो उसी समय श्रमिकों को राज्य में आने देते तो उन्हें बाहर के राज्यों में परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ता।

सरकारों के कदम पर लगाया अड़ंगा

वहीं जब मार्च महीने के आखिरी में उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली सरकार की मदद से लोग अपने राज्यों में आ रहे थे, उस वक्त भी नीतीश सरकार ने इस कदम का विरोध किया। उस समय भी जब लोग आए तो अब तक राज्य सरकार स्वास्थ्य विभाग यह साबित नहीं कर सका है कि उन लोगों में से एक भी व्यक्ति संक्रमित था।

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बिहारी नागरिकों का किराया नहीं दिया

तीसरा, सीएम नीतीश की ही मांग पर केंद्र की ओर से अंतर्राज्यीय लोगों के आने-जाने की अनुमति दी गई, लेकिन क्या उस समय उनका ये फैसला सही था कि ट्रेन के जरिए लोगों की वापसी कराई जाए। वहीं उन्होंने इस आधार पर ट्रेन से आने वाले बिहारी नागरिकों का किराया नहीं दिया था कि जब तक वो कैंप में आकर नहीं रहेंगे, तब तक न्यूनतम एक हजार रुपये उनके अकाउंट में नहीं डाला जाएगा।

इसके पीछे की सोच यह रही कि अगर बिहार सरकार की ओर से एक बार ट्रेनों के किराए का भार उठा लेगी तो लोगों की संख्या में काफी ज्यादा बढ़ोत्तरी हो जाएगी। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, देश में करीब 22 लाख लोगों ने ट्रेनों से वापसी की, जबकि करीब दस लाख लोग अपने साधन से लौटे। वहीं राज्य वापसी करने वाले लोगों की जांच की कोई सटीक व्यवस्था नहीं थी, जबकि लाखों की संख्या में लोग उस समय के हॉट स्पॉट एरिया से आए थे।

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चुनाव प्रभावित ना हो इसलिए दिया ये निर्देश

वहीं मुख्यमंत्री के बारे में यह कहा गया कि चुनाव प्रभावित ना हो इसलिए मई महीने में बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूरों के संक्रमण पाए जाने पर उनके ही इशारे पर दिल्ली, मुंबई और गुजरात से आने वाले लोगों को टेस्टिंग से अलग रखने का निर्देश दिया गया। इस बात का साक्ष्य बिहार सरकार के स्वास्थ्य विभाग के आंकड़ों से खुद मिलता है। जब विभाग से यह पूछा जाता है कि तीस लाख श्रमिकों में से कितनों की टेस्टिंग हुई तो वो जवाब देने से बचते हैं।

स्वास्थ्य विभाग के प्रधान सचिव का ट्रांसफर

इसके अलावा मुख्यमंत्री नीतीश ने बीजेपी के दबाव में मई महीने में स्वास्थ्य विभाग के प्रधान सचिव संजय कुमार का ट्रांसफर कर दिया। खुद नीतीश कुमार के कट्टर समर्थकों का भी यह मानना है कि यह एक आत्मघाती फैसला रहा, जिसका खामियाजा अब मुख्यमंत्री समेत पूरे राज्य को भुगतना पड़ रहा है। क्योंकि उनकी जितनी विभाग के ऊपर पकड़ थी उसका विकल्प नीतीश कुमार के पास नहीं था।

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लगातार कहने के बाद बढ़ी जांच की गति

वहीं जांच की गति CM के लगातार कहने के बाद पिछले पांच दिनों से दस हजार तक पहुंच सकी है, जो कि उनके निर्देश के दो महीने के बाद संभव हुआ। इसकी वजह यह भी बताई जाती है कि मशीन तो हैं, लेकिन चलाने वाले लोगों की कमी हैं। खुद लैब के डॉक्टर और स्टाफ्स कोरोना पॉजिटि पाए जा रहे हैं तो ऐसे में जांच कई दिनों तक अटक जा रही है।

वहीं विपक्षियों का कहना है कि राज्य में जांच इसलिए भी कम रखी गईं क्योंकि नीतीश कुमार को लगा कि जांच कम करने से पॉजिटिव मरीज कम पाए जायेंगे, जिससे बिहार में समय पर विधानसभा चुनाव का आयोजन हो सकेगा, लेकिन यह सोच अब उल्टी पड़ती हुई दिखाई दे रही है।

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कार्यकर्ताओं को छह दिनों तक सिखाते रहे मास्क पहनना, लेकिन...

इसके अलावा नीतीश लगातार छह दिनों तक अपने पार्टी के कार्यकर्ताओं को सरकार के काम काज के अलावा मास्क कैसे पहने ये भी सिखाया, लेकिन राज्य का मुखिया होने के नाते उन्होंने एक बार भी आम लोगों को यह सिखाने और बताने की जरूरत नहीं समझी।

भविष्य में कोरोना की स्थिति होगी और भयावह

बिहार के गांव-गांव तक अब कोरोना बुरी तरह से फैल चुका है। जिसका मुख्य वजह बाहर से आए लोगों की जांच ना करना और राज्य में स्वास्थ्य केंद्रो की खस्ता हालत भी है। कोविड अस्पताल में मरीजों के बढ़ने के साथ ही अराजकता और अव्यवस्था भी बढ़ती जा रही है। इसके बाद भी सरकार कोरोना से बचने के लिए कोई कदम उठाने से ज्यादा इस पर ध्यान दे रही है कि संक्रमित मरीजों के आंकड़े अखबारों के पहले पन्ने पर ना छपे। जिससे यह माना जा रहा है कि भविष्य में कोरोना की स्थिति और बिगड़ सकती है।

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