बहुओं का भी खूब रहा है राजनीति में दबदबा
देश में राजनेताओं के पुत्रों का जिक्र तो अक्सर होता है लेकिन बहुओं का कभी नहीं जबकि सच्चाई इसके विपरीत है। जिस तरह से राजनीति के क्षेत्र में नेता पुत्रों ने उंचाईयां छूकर राजनीतिक विरासत को आगे बढाने का काम किया है उसी तरह राजनीतिक परिवारों की बहुओं ने भी अपना अलग मुकाम हासिल किया ।
श्रीधर अग्निहोत्री
लखनऊ: देश में राजनेताओं के पुत्रों का जिक्र तो अक्सर होता है लेकिन बहुओं का कभी नहीं जबकि सच्चाई इसके विपरीत है। जिस तरह से राजनीति के क्षेत्र में नेता पुत्रों ने उंचाईयां छूकर राजनीतिक विरासत को आगे बढाने का काम किया है । उसी तरह राजनीतिक परिवारों की बहुओं ने भी अपना अलग मुकाम हासिल किया ।इन दिनों मुलायम परिवार की दो बहुओं डिम्पल यादव और अपर्णा यादव की राकनीति में खूब चर्चा है।
अब देश के बडे नेताओं में शुमार मुलायम सिंह यादव की छोटी बहू अपर्णा यादव की बात की जाए तो इस समय वह यूपी की राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने को तैयार हैं। मुलायम परिवार में हुइ अंतर्कलह के बाद अपर्णा जिस तरह से अपने चाचा शिवपाल सिंह यादव के खेमें में बताई जा रही है। उससे अपर्णा के बढते राजनीतिक कद का अंदाजा लगाया जा सकता है। समाजवादी पार्टी से अलग होकर प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) बनाने वाले शिवपाल सिंह यादव को परिवार में अपर्ना का समर्थन मिला है। मुलायम सिंह यादव की छोटी बहू अपर्णा यादव कह चुकी हैं कि अगर शिवपाल की पार्टी से मौका मिला तो लोकसभा चुनाव भी लडूंगी। इसके पहले अपर्णा यूपी विधानसभा का चुनाव लखनऊ की कैण्ट विधानसभा सीट से लड चुकी है। यह बात अलग है कि मोदी लहर के चलते उन्हे हार का सामना करना पड़ा। क्योोंकि उनका जानी मानी कददावर नेत्री डा रीता बहुगुणा जोषी से टक्कर लेना कोई छोटी बात नहीं थी।
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प्रदेश की राजनीति में अपनी पार्टी की पहचान बनाने में जुटे शिवपाल सिह यादव को बहू अपर्णा का साथ मिलने से ताकत मिली है। अपर्णा शिवपाल की पार्टी से लोकसभा का चुनाव लडने को तैयार बैठी है। इससे पहले मुलायम सिंह यादव की बडी बहू और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव की पत्नी डिम्पल यादव भी कन्नौज से सांसद बन चुकी है। अगरराजनीति में बहुओं के बारे में चर्चा की जाए तो सबसे पहले कांग्रेस के कद्दावर नेता व कई बार कैबिनेट मंत्री रहे पं कमलापति त्रिपाठी का नाम आता है। जिनके बारे में कहा जाता है कि उनके परिवार में उनकी बहू यानी लोकपति त्रिपाठी की पत्नी की काफी चलती थी। वह कभी खुलकर राजनीति में सक्रिय नहीं रहीं लेकिन कमलापति त्रिपाठी व उनके बेटे लोकपति त्रिपाठी को समय- समय पर अपने राजनीतिक टिप्स वही दिया करती थीं। वह कई बार बड़ें राजनीतिक फैसले भी लिया करती थीं। कहा जाता है ‘बहूजी’ के इशारे पर ही पिता- पुत्र कार्यकर्ता की पूरी मदद करते थें।
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दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की पहचान प्रारम्भिक रूप में एक बहू के रूप् में ही हुई। वह कांग्रेस के पुराने नेता पं उमाशंकर दीक्षित की बहू बनी और फिर घर पर राजनीतिक माहौल मिलने के कारण उन्होने एक राजनीतिक मुकाम हासिल किया। स्व उमाशंकर दीक्षित अपने पु़त्र को राजनीति में लाना चाहते थें लेकिन उनके पु़त्र ने राजनीति में न आकर सिविल सेवा में दिलचस्पी दिखाई। श्री दीक्षित को शीला दीक्षित में राजनीतिक क्षमता दिखाई दी तो उन्होंने अपनी बहू को राजनीति का ककहरा सिखाया। शीला दीक्षित ने अप्ने श्वसुर की देखरेख में राजनीति के दांवपेंच सीखकर राजनीति में उंचाइयों को छुआ।
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इसी तरह देश के रक्षा मंत्री रहे बाबू जगजीवन राम के बेटे सुरेश राम ने भी राजनीति के क्षेत्र में कदम रखा। वह बहुत ज्यादा सफल नहीं हो सके। लेकिन उनकी पत्नी कमलजीत की खूब चलती थी। कहा जाता है कि बाबू जगजीवन राम अपने बेटे से ज्यादा अपनी बहू की बातों को तवज्जों देते थें। कमलजीत ने राजनीति में सक्रिय भूमिका तो कभी नहीं निभाई लेकिन पर्दे के पीछे उनका अहम रोल रहा।
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इंदिरा गांधी की मौत के बाद उनकी बहू मेनका गांधी ने राजनीति में कदम रखा। मेनका ने अपने पति संजय गांधी की याद में संजय विचार मंच बनाया। यह बात अलग है कि इस छोटे राजनीतिक दल ने कोई खास मुकाम हासिल नहीं किया लेकिन इससे मेनका का राजनीतिक कद जरूर बढा। गांधी-नेहरू परिवार की बहू मेनका गांधी ने जो कुछ भी राजनीति में हासिल किया अपने विवेक और कौशल से ही हासिल किया। जिस समय मेनका का संजय गांधी से विवाह हुआ। तब उनके राजनीति में आने के बारे में किसी ने सोचा भी नहीं था। इंदिरा गांधी की देश व परिवार में अलग हनक हुआ करती थी। उनके इशारे बगैर एक पत्ता भी नहीं हिलता था लेकिन परिस्थितियां बदली और इस परिवार में सब कुछ बदल गया।
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यही हाल परिवार की बड़ी बहू सोनिया गांधी का भी रहा। सपने में भी नहीं सोचा था कि उन्हें राजनीति में आना पड़ेगा लेकिन सास इंदिरा गांधी, देवर संजय गांधी व पति राजीव गांधी की मौत तथा देवरानी मेनका के कांग्रेस से अलग हो जाने के बाद उन्हें मजबूरन राजनीतिक विरासत संभालनी पड़ी और पिछले एक दशक से ज्यादा कांग्रेस की बागडोर अपने हाथ में लिए हुए हैं।
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महाराष्ट्र की राजनीति के नम्बर एक कहे जाने वाले बाला साहेब ठाकरे के राजनीतिक परिवार में बहू स्मिता ठाकरे ने भी शिवसेना की राजनीति की। लेकिन बेटे बिंदा की मौत के बाद बहू स्मिता ठाकरे के सामाजिक जीवन को लेकर बाला साहब नाराज रहने लगे। बाद में स्मिता ने भी राजनीति में दिलचस्पी दिखाना बंद कर दिया। इसके बाद स्मिता ठाकरे बाला साहब ठाकरे परिवार से पूरी तरह से अलग हो गयी। वैसे स्मिता को समाज में जो भी पहचान मिली वह अपने ससुर के ख्यातिप्राप्त होने के कारण ही मिल सकी।
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इसी तरह हरियाणा की राजनीति में बंसीलाल परिवार की बहू किरन चैधरी भी उंचाईयों को खूब छुआ है। आपातकाल के दौरान चर्चा में आये बंसीलाल का जब राजनीतिक कद कम हो गया तो उसे बढाने में उनकी बहू किरण चैधरी ने खूब मदद की। कहा तो यहां कहा गया कि जब बंसीलाल हरियाणा के दोबारा मुख्यमंत्री बने तो उसमें किरण चौधरी की महती भूमिका थी।
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इधर यूपी की राजनीति में एक साथ दो बहुओं का नाम बहुत तेजी से उभर उभरा। यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की पत्नी और मुलायम सिंह यादव की बहू डिम्पल यादव ने काफी कम समय में राजनीतिक क्षेत्र में खुद को स्थापित करने का काम किया। कन्नौज संसदीय सीट से चुनी जा चुकी डिम्पल यादव की सरलता और सहजता के कारण उनका राजनीतिक प्रभाव दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। वह एक बार फिर लोकसभा का चुनाव मैदान मैं हैं । यही हाल मुलायम परिवार की छोटी बहू अपर्णा यादव का भी है। सामाजिक कार्याे में आगे रहने के बाद अब वह पहली बार विधानसभा के चुनाव मैदान में किस्मत आजमाने के बाद अब लोकसभा चुनाव में फिर से उतरने की तैयारी कर रही है। अब यह देखना है कि देश के राजनीतिक परिवारों की दूसरी बहुओं की तरह ही अपर्ण यादव भी भविष्य में राजनीति की कितनी उंचाईयों को छू पाती है।