गायब हो गए झूले और वर्षा के स्वागत में गाए जाने वाले ये गीत

पहले ग्रामीण परिवेश की महिलाएं सावन के झूलों से विशेष स्नेह रखती थी। सावन लगते ही बेटियों को ससुराल से पीहर लाने का काम शुरू हो जाता था।

Update:2020-07-25 17:56 IST

गोंडा। एक समय था जब सावन के महीने में गांवों में जगह-जगह पेड़ों की डाली पर झूले ही झूले नजर आते थे। रात के अंधेरे में गांव की विवाहिता महिलाएं, नववधुएं और युवतियां पींग मारते हुए ‘आंगन निबिया बाबा लगायो रेशम डोरी डारयो ंिहंडोला, झूला परा मणि पर्वत पर झूलैं अवध बिहारी न‘ और ‘हरे रामा रिमझिम बरसे पनिया चली तो आव धनिया रे हारी, जैसे लोक धुनों पर आधारित गीत व कजरी गातीं थी तो सारा वातावरण उल्लासित हो उठता था।

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सावन मास चले पुरवइया रिमझिम पड़त फुहार

 

जब खेतों में धान की रोपाई करती महिलाओं के ‘सावन मास चले पुरवइया रिमझिम पड़त फुहार‘ और मक्का व बाजरा के खेतों में चिड़िया उड़ाते किसान जब ‘मकई के खेत में चिरई उड़ावै गोरिया‘ गीत सुनकर राह चलते लोगों के पैर ठिठक जाते थे। लेकिन अब सावन के माह में न तो पेड़ों पर झूले हैं, न कजरी के साथ वर्षाऋतु के लोक गीतों की धुनें।

एक ओर ‘झूला बंद करौ बनवारी‘ से चलकर बालीबुड के ‘मेरा लाखांे का सावन जाय‘ तक पहुंचते-पहुंचते सावन के झूले आधुनिकता की चकाचौंध में शहरी संस्कृति की भेंट चढ़ते गए तो वहीं सावनी, कजरी और मल्हार गाती महिलाएं भी नजर नहीं आतीं। ऐसे में सिनेमा, टेलीविज़न और इण्टरनेट के बढ़ते चलन से वर्षा ऋतु में प्रकृति के संग झूला झूलने और गीतों की परम्परा अब विलुप्त होती जा रही है।

लोकजीवन में झूले और वर्षाऋतु के गीत

भारतीय संस्कृति में झूला झूलने की परंपरा वैदिक काल से चली आ रही है। कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण राधा संग झूला झूलते और गोपियों संग रास रचाते थे। मान्यता है कि इससे प्रेम बढऩे के साथ ही प्रकृति के निकट जाने व उसकी हरियाली बनाए रखने की प्रेरणा मिलती है। घर के आंगन में पेड़ पर झूले पड़ जाते थे और महिलाएं गीत गाती हुई उसका आनंद लेती थीं।

एक समय था जब सावन के आते ही गली-गलियारों और बगीचों में मोर, पपीहा और कोयल की मधुर बोली के बीच युवतियां झूले का लुत्फ उठाया करती थीं। ग्रीष्म ऋतु में सूर्य का प्रचण्ड ताप जहां सबको आकुल कर देता है, वहीं शिशिर की शीतल मन्द बयार सम्पूर्ण वातावरण में जड़ता तथा वसन्त ऋतु का सुधामयी चन्दा मानव की कल्पनाओं में माधुर्य बिखेर देता है।

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छःमासा पद्धतियों का भी आश्रय लिया

प्रकृति के इन्हीं मदमाते रूपों को देख कर स्त्री पुरुषों के सुमन झूम उठते हैं और उनकी अभिव्यक्ति ऋतुगीतों के रूप में साकार हो उठती है। हिन्दी साहित्य के आदिकालीन ग्रंथों में भी ऋतु वर्णन की परम्परा दृष्टिगत होती है। भक्तिकालीन साहित्य की दोनों धाराओं (निर्गुण-सगुण) में भी ऋतु वर्णन की यह परम्परा विद्यमान है।

जायसी जैसे महाकवियों ने तो ऋतु वर्णन की सफलता हेतु बारहमासा एवं छःमासा पद्धतियों का भी आश्रय लिया है। गोस्वामी तुलसीदास ने प्रकृति चित्रण में उपदेशात्मकता को महत्व दिया है। जबकि रीतिकालीन साहित्य में श्रृंगार रस में ऋतु वर्णन किया गया है। ऋतुगीतों की यह परम्परा लोकभाषाओं में अधिक मुखर हुई है। अवधी भाषी क्षेत्रों में सावन मास में गाया जाने वाला कज़री गीत श्रृंगार रस से परिपूर्ण एक गीत विधा है, जिसमें विरह प्रेम, सभी प्रकार के भाव देखने को मिलते हैं।

अवध में कज़री गायन की परम्परा

बदलते दौर में जहां सावन के झूले पुरानी बात होते जा रहे हैं। वहीं सावन के कजरी के गीत भी अप्रासंगिक हो रहे हैं। सावन लड़कियों के लिए यह झूले में बैठकर आकाश नापने का मौका है। विवाहिता स्त्रियों के लिए यह कजरी गीतों के माध्यम से मायके में छूट गए रिश्तों की व्यथा सुनाने और रोजी-रोटी की तलाश में परदेस गए प्रिय को याद करने का मौसम है।

नवविवाहित महिलाएं पहला सावन अपने पीहर में ही मनाती थीं और सावन लगते ही अपने हाथों में मेंहदी रचाकर मायके आ जाती थीं। इस त्योहार के आने पर औरतें लाल रंग की साड़ी पहनकर मेंहदी आदि लगाती हैं। अवध के गोंडा व अन्य जनपदों में सावन, कजरी व इससे सम्बन्धित गीतों का बड़ा महत्व रहा है। यही कारण है कि झूला झूलते हुए विवाहित महिलाएं बड़े आस्था व प्रसन्नता के साथ ‘झूला बंद करौ बनवारी, हम घर मारी जाबै नाय‘ और ‘खिरकी खुली रही सारी रतिया, रतिया कहां बितायउ न‘ गाती हैं।

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आपसी रिश्तों के जुड़ाव का वर्णन

अश्लीलता और फूहड़पन से दूर अवध की कजरी भगवान राम के प्रति श्रद्धा और प्रेम के साथ आपसी रिश्तों के जुड़ाव का वर्णन करती है। भगवान राम के वन गमन पर महिला कहती है ‘अरे रामा वन का चले दोनों भाई अवध रघुराई रे हारी।‘ महिलाओं द्वारा गाए जाने वाले इस गीत में आपसी रिश्तों की पहचान भी है। ससुराल गई बेटी पिता का संदेश पाने के लिए गाती है ‘सुगना लाल पियर तोरा टोटवा बाबूजी के लउत्या संदेशवा न।‘ तो वहीं मां कहती है ‘चंदा छिपी रहा बदरे मा बेटी मोरी सासुर बांटी न।‘

समय के साथ लोकसंगीत के दूसरे प्रारूपों में तो बहुत बदलाव आए, लेकिन कजरी जस की तस बनी रही। तेरहवीं शताब्दी के सूफी कवि अमीर ख़ुसरो की कजरी गीत की यह बहुप्रचलित रचना है ‘अम्मा मेरे बाबा को भेजो जी कि सावन आया।’ भारत में अन्तिम मुगल बादशाह बहादुरशाह ज़फर की एक रचना ‘झूला किन डारो रे अमरैया’ भी अवध में खूब प्रचलित रही है।

वर्षाऋतु के लोकगीत

वर्षा ऋतु का मौसम वह मौसम है जब महीनों की झुलसाती धूप और ताप से बेचैन धरती की प्यास बुझती हैं। जब पृथ्वी और बादल मिलकर सृष्टि और हरियाली के कीर्तिमान रचते हैं। बरसात की झोली में किसानों के लिए धरती की गोद में फसल के साथ सपने बोने के दिन हैं। प्रेमियों के लिए यह बसंत के बाद प्रेम का दूसरा सबसे अनुकूल मौसम है।

सावन माह में अगर बर्षा अच्छी हो जाती है तो खरीफ की फसल जिसमें धान, उड़द, अरहर, आदि की उपज अच्छी हो जाती हैं जिससे महिलायें सावन की फुहार देखकर खुशी से गा उठती हैं-

हरे रामा रिमझिम बरसै बदरिया, पियवा नहिं आये रे हारी।

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बादर बरसै बिजुरी चमकै, जियरा ललचौ मोर सखिया

अवध के सावनी बारहमासा गीतों में मुख्यतः विरहणी की विरह वेदना की अभिव्यक्ति पायी जाती है। नौकरी चाकरी या व्यापार-व्यवसाय के लिए पति परदेश गया है जो बरसों से वापस नहीं आया है। बरसात का दिन है, छप्पर चू रहा है परन्तु कोई छाने वाला नहीं है ऐसी दशा में विरहणी स्त्री का विरह बढ़ जाता है तथा उसकी वेदना ‘बारहमासा’ गीत के रूप में प्रकट होती है। प्रसिद्ध कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने अपने प्रसिद्ध महाकाव्य पद्मावत में अवधी भाषा में बारहमासा लिखा है। उन्होंने नागमती के विरह का वर्णन किया है-

चढ़ा अषाढ ़ गगन घन गाजा, साजा विरह दुन्द दल बाजा।

धूम, साम, धौरे घन धाये, सेत धजा बक पांति देखाये।

सावन बरसि मेह अति पानी, भरनि परी, हौं विरह झुरानी।

लाग पुनरवसु पीउ न देखा, भइ बाउरि, कह कंत सरेखा।

रकत के आंसु परहि मंुह टूटी, रेंगि चली जस वीर बहूटी।

लोकगीत मेघों के वर्णन से भरे पड़े हैं जो प्रकृति के अनुपम रूप हैं तथा वर्षा ऋतु में मड़राते काले मेघों का दृश्य देखते ही बनता है-

हरे रामा बरखा की आई बहार बदरिया कारी रे हारी।

हरे रामा घेरि घेरि नभ में छाई बदरिया कारी रे हारी।

अरे रामा बरसत रिमझिम पनिया, चली तो आओ जनिया रे हारी।

धान रोपाई का गीत

अवध क्षेत्र मंे वर्षा ऋतु में होने वाली धान की रोपाई के समय महिलाओं द्वारा गीत गाये जाने का दृश्य दिखायी पड़ता है। यह लोकगीत ‘रोपाई के गीत’ या ‘रोपनी के गीत’ के नाम से जाने जाते हैं। खेत में पानी लगा हुआ है, कभी-कभी बादलों से बारिस हो रही है। ऐसे समय भीगी हुई महिलायें खेतों में धान के पौधे रोपती जाती हैं तथा अपने गीतों द्वारा श्रोताओं को मन्त्र मुग्ध कर देती हैं। ऐसे सुन्दर प्राकृतिक वातावरण में यह गीत गाने वाले तथा सुनने वाले की थकावट एवं गृहस्थ जीवन के दुखों को भुला देता है। रोपनी के इस गीत में पत्नी के हृदय की पीड़ा गीत बनकर निकली है-

जबसे आई पिया तोहरी महलिया में,

रात दिन करी टहलिया हो पिया।

घर कै करत काम सूख गय देहिया कै चाम,

सुखवा तो सपनवा होइगा पिया।

हर जोति तोहार गोड़वा पिरावै,

रूपिया कै मुंह नहिं देखे पिया।

उपरी का पाथ पाथ दिन हम काटब,

अब न अइबै तोहरे दुअरवा पिया।

आषाढ़ में बोये हुए खेत में जब फसल अच्छी प्रकार से उग जाती है तब किसान सावन में उसमें उगी हुई व्यर्थ घास को खुरपी व हंसिया से छीलकर या काटकर निकालने का कार्य करता है। इस कार्य को निराई, निखाही या सोहनी कहते हैं। इस समय जो गीत गाये जाते हैं उन्हें सोहनी या निराई के गीत कहते हैं। खेत को निराते समय महिलायें अपनी थकान को दूर करने के लिए गीत गाती हैं। इन गीतों की लय बहुत ही मनमोहक होती है, जिसे सुनकर श्रोता अनायास ही आकर्षित हो जाता है।

गीतों में वर्षा ऋतु की झलक

वर्षा काल में वैसाख, आषाढ़ माह में तेज हवाओं के साथ बादलों से तेज बारिस होती है। सावन माह में धीर-धीरे रिमझिम वर्षा की झड़ी तथा निरन्तर तेज हवा चलती रहती है। सावन माह में आकाश कभी काला, कभी भूरा, कभी लाल दिखता है तथा संध्या सुहानी लगती है। जेठ की भयंकर गर्मी के उपरान्त आषाढ़ माह में वर्षा की शुरूआत होती है तथा सावन माह तक पृथ्वी पूर्ण रूप से भीग कर हरी-भरी हो जाती है। इस लोकगीत में वर्षा ऋतु के समय की झलक मिलती है-

चारि महीना राजा बरखा होतु है, टपटप चुवै बंगलवा हो।

के छवावै मोर बंगलवा, बालम गये हैं विदेसवा, हो हम्मै नीक न लागे।

इसी प्रकार वर्षा ऋतु का सजीव चित्रण इस कजरी लोकगीत में दिखता है-

हरे रामा घिरि-घिरि नभ मा छाई, बदरिया कारी रे हारी।

बदरा मा नाचै बिजुरिया रामा, मोरवा नाचै बनवा रामा।

हरे रामा अमवा की डाली पे बोलै, कोयलिया कारी रे हारी।

पुरवैया सन सन बहै रामा, अंचरा न सिर पै रहै रामा।

हरे रामा विरहिन कै बैरिनिया, बदरिया कारी रे हारी।

बैरी बिजुरिया तड़पै रामा, जियरा रहि-रहि धड़कै रामा,

हरे रामा कान्हा गए परदेश, नींद न आवै रे हारी।

वर्षा ऋतु में सावन की हरियाली, भादों की अंधेरी रात में हाथ को हाथ नहीं सूझता, खुली खिड़कियों से आती हवा, झींगुरों की झनकार आदि इस लोकगीत में चित्रित है-

आइ बरखा की बहरिया अरे सांवरिया।

पहिला मास असाढ ़ गोरी करथीं विचार, पिया नाहीं घर हमार,

केह पर करुं सिंगरिया हरे सांवरिया।

दूजे सावन की हरियारी, सासु लागै डर भारी,

नाहीं केहूबा संघारी, इहां आईबा बहरिया अरे सांवरिया,

तीजे भादों की अन्हियारी हाथ सूझे न पसारी।

सावन के मनोमुग्धकारी मौसम में बादलों से भरा आकाश, बिजली की चमक तथा शीतल बयार एवं रिमझिम बूंदें जैसा मंत्रमुग्ध करने वाला प्रकृति का यह रूप सभी को उल्लासित एवं आनन्द विभोर कर देते हैं। एक लोक कवि ने आकाश में बादलों का घिरना तथा गर्जना, बिजली की चमक, पुरवैया हवा का बहना, रिमझिम-रिमझिम होती बर्षा का सुन्दर दृश्य प्रस्तुत किया है-

सावन आइ गयो मनभावन, बदरा घिरि घिरि आवै ना।

मोर पपीहा बोलन लागै, मेढक ताल लगावै ना।

चमकि चमकि बिजुली घन गरजै, सीतल जल बरसावै ना।

भई अंधेरी घटा घेरे से, रिमिझिम झरि लावै ना।

जुगुनू जगमग जोति निराली, हमरो जिया लुभावै ना।

लोकगीत में वर्षा ऋतु में चारों ओर जलमग्न होने का दृश्य दिखायी देता है-

चढ़त असाढ़ नवल जल बरसै,

सावन गगन गंभीर,

भादों बिजली चमाचम चमकै,

सखि चहुं दिसि भरिगै है नीरा,

धरौं कैसे धीरा।

सिनेमा, टेलीविज़न ने छीना लोक साहित्य

पहले ग्रामीण परिवेश की महिलाएं सावन के झूलों से विशेष स्नेह रखती थी। सावन लगते ही बेटियों को ससुराल से पीहर लाने का काम शुरू हो जाता था। इसी माह में नागपंचमी, रक्षाबंधन जैसे त्योहार भी शुरू होते थे। अब मनुष्य की प्रकृति के संग जीने की परम्परा थमती जा रही है। सावन की फुहार के बीच झूला झूलने की परम्परा को ग्रहण सा लग गया है। सावन की परम्परा का निर्वाह अब घर की छत लान या आंगन में ही रेडीमेड फ्रेम वाले झूले, लोहे और बांस के झूलों ने ले लिया है।

आधुनिकीकरण का नतीजा

आधुनिकीकरण का नतीजा है कि महिलाएं कम्यूनिटी सेंटरों में जाकर तीज पर्व मनाने लगी हैं। मनोरंजन के साधन के तौर पर गांव-गांव में सिनेमा और और घर-घर में टेलीविज़न और इण्टरनेट के आमद के बाद तमाम लोक साहित्य में कलाओं के साथ लोकगीतों के भी दुर्दिन शुरू हो गए थे। अब मांगलिक अवसरों पर शहरों और गांवों में लोकभाषाओं के संस्कार गीतों की जगह फिल्मी गीतों या फिल्मी धुनों पर आधारित गीतों ने ले ली है।

गिनती के शास्त्रीय और लोकगायक रह गए हैं जो कभी कभार संगीत के मंचों पर लोकगीतों का अलख जगाने की कोशिश करते हैं। लोक साहित्य और परम्पराओं के विलुप्त होने का यह सिलसिला ऐसे ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब वर्षा ऋतु का हाहाकार तो रह जाएगा लेकिन उसका जादू, संवेदना और सौन्दर्य इतिहास की बात हो जाएंगे।

रिपोर्टर- तेज प्रताप सिंह,गोंडा

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