Camp : कलेजे के टुकड़े के लिए मांग रहीं मौत

Update:2019-12-13 13:08 IST

पूर्णिमा श्रीवास्तव

गोरखपुर। क्या कोई मां अपने कलेजे के टुकड़े के लिए मौत मांग सकती है? कोई बहन ये चाहेगी कि उसके भाई को इस दुनिया से मुक्ति मिल जाए? शायद नहीं। पर पूर्वांचल में तमाम मां ऐसी हैं जो अपने कलेजे के टुकड़े के लिए मौत मांग रही हैं। ऐसा नहीं कि उन्हें अपने लाडले से ममता नहीं है, पर दर्द में सिमटी बेबस जिंदगी से इन मांओ को मौत ही बेहतर दिख रही है। दिसम्बर के पहले सप्ताह में बीआरडी मेडिकल कॉलेज में इंसेफेलाइटिस से विकलांग हुए किशोर-किशोरियों के लिए दो दिवसीय शिविर में दिखी बेबसी सरकारी कोशिशों पर सवाल खड़े करती है।

यहां पहुंचे लोगों की बेबसी को देख पत्थर दिल इंसान की भी आंखें नम हो गईं। इनकी बेबसी तस्दीक कर रही है कि सरकारें इंसेफेलाइटिस विकलांगों को लेकर सिर्फ कागजी कोशिश कर रही है। प्रदेश की योगी सरकार की नजर में सबकुछ ऑल इस वेल नजर आ रहा है जबकि हकीकत चिंताएं बढ़ाने वाली है। कोई 18 साल की उम्र में नाक में लगी नली से भोजन ले रहा है, तो कोई बेवजह रो रहा है। इनकी चीख खुद-ब-खुद हकीकत बयां कर रही है।

झकझोरने वाली तस्वीरें

प्रशासन और पहल नाम की संस्था के संयुक्त प्रयास से इंसेफेलाइटिस से विकलांग हुए करीब 500 बच्चों की बेहतरी को लेकर बीआरडी मेडिकल कॉलेज में दो दिवसीय शिविर का आयोजन किया गया। मेडिकल कॉलेज के कम्युनिटी हाल के साथ टेंट और बाहर दो दिनों तक शारीरिक-मानसिक विकलांगता की जो तस्वीर दिखी, वह मन को भीतर तक झकझोरने वाली है। चिकित्सा शिविर में सेवा करने आए लोगों का भी कलेजा भी अंदर से कांप गया। कोई चल नहीं पा रहा है तो किसी का दिमाग काम नहीं कर रहा है। माता-पिता शिविर में उम्मीद के साथ पहुंचे। उम्मीद यह कि कलेजे का टुकड़ा ठीक हो जाएगा। पर, सच्चाई तो वह भी ठीक से जानते हैं। शिविर में इनकी जांच हुई। इंसेफेलाइटिस से विकलांग हुए बच्चों के माता-पिता और भाई-बहन का यहां दर्द झलका। गोरखपुर के कुंदन को तीन साल की उम्र में इंसेफेलाइटिस हो गया था। अब वह 16 साल का हो चुका है। कुंदन की बेबसी देख मां विजयंता कहती हैं कि जब तक हम पति-पत्नी जीवित हैं तब तक तो सेवा करेंगे, लेकिन उसके बाद कुंदन का क्या होगा? पट्टीदार किसके अपने होते हैं। विजयंता की तरह ही ऐसी कई मां हैं जो चाहकर भी कुछ बोल नहीं पा रही हैं। उनके चेहरे की बेबसी और अकुलाहट को आसानी से पढ़ा जा सकता था।

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किस्मत का रो रहे रोना

महराजगंज जिले के धरमौली गांव निवासी शिब्बन यादव ड्राइवर हैं। खेतीबारी भी मामूली है। तीन साल पहले इंसेफेलाइटिस ने उनके कलेजे के टुकड़े कुंदन को अपनी गिरफ्त में ले लिया। शरीर ही नहीं वह मानसिक रूप से भी विकलांग हो गया। छह माह तक बेटे को लेकर विजयंता मेडिकल कालेज में रही। बावजूद इसके वह कुछ खा नहीं पाता है। सिर्फ दूध का सेवन किसी तरह से कर पाता है। शिब्बन बताते हैं कि जमा पूंजी खत्म हो गई। कुशीनगर जनपद के तितला गांव निवासी लोरिक का 22 वर्षीय इकलौता पुत्र ऋषिकेश इंसेफेलाइटिस के चलते दिव्यांग हो चुका है। वह चौदह साल से ऐसा ही है। लोरिक की दो लड़कियां हैं। दिव्यांग बेटे की मां कमलावती देवी कहती है कि क्या करूं किस्मत ही खराब है? हम पति-पत्नी के न रहने पर इसका क्या होगा? कौन इसकी देखभाल करेगा? महराजगंज के बेलवा गांव निवासी रामभवन निषाद का 16 वर्षीय पुत्र आकाश इंसेफेलाइटिस के चलते पूरी तरह से दिव्यांग हो गया है। दिमाग और शरीर दोनों काम नहीं कर रहा है। रामभवन और उसकी पत्नी इसरावती चिकित्सा शिविर में बच्चे को लेकर पहुंचे थे। उन्हें इस बात की चिंता है कि उनकी मौत के बाद बच्चे की देखभाल कौन करेगा।

इंसेफेलाइटिस ने तोड़ दिया सपना

महराजगंज के कोल्हुआ निवासी रामप्यारे भारती का पुत्र सूरज पढ़ाई में बहुत तेज था। उससे परिवार को बड़ी उम्मीद थी, लेकिन इंसेफेलाइटिस ने उनके सपनों को चकनाचूर कर दिया। सूरज सोलह साल का हो चुका है, लेकिन पूरी तरह से दिव्यांग हो गया है। रामप्यारे लुधियाना में एक फैक्ट्री में मजदूरी करता है। खेतीबारी मात्र 20 डिस्मिल है। मां का जेवर इलाज में बेच दिया गया। चिकित्सा शिविर में सूरज को लेकर उसका चाचा प्रेमचंद भारती लेकर आया था। उसने बताया कि सूरज सर्वजीत रामदास इंटर कालेज में पढ़ता था। हर कोई उसकी सराहना करता था, लेकिन ऊपर वाले को पता नहीं क्या मंजूर था? उसने बताया कि ऊपर वाले की यही मेहरबानी है कि हम लोग सड़क पर नहीं आए। जब तक चल रहा है हम लोग सेवा कर रहे हैं। आगे क्या होगा, समझ में नहीं आ रहा। दिव्यांग बच्चों के भविष्य को लेकर हर माता-पिता, भाई-बहन व नात-रिश्तेदार तक चिंतित हैं। कई ने तो यहां तक कहा कि ऐसों को सरकारी सहायता की दरकार है।

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सरकारी सुविधाएं भी नहीं मिलीं

इंसेफेलाइटिस से विकलांग हुए बच्चों में से ज्यादातर सरकारी सुविधाओं से वंचित हैं। मदद के नाम पर उन्हें आधी अधूरी रकम मिली। वह भी बीमारी में खर्च हो गई। कई दिव्यांगों के परिजनों ने कहा कि साहब क्या करें? ऊपर वाले को ऐसा ही मंजूर था। वाकई इंसेफेलाइटिस का दूसरा चेहरा खौफनाक है क्योंकि हम लोग तो यही जानते हैं कि इतने मरीज भर्ती हुए और इतने मरीज ठीक होकर घर चले गए। गोरी-चिट्टी विलकिस उमर को देखकर सब ठीक लगता है। 12 साल की विलकिस को इंसेफेलाइटिस ने इतना लाचार बना दिया कि वह चल नहीं सकती। दिमाग भी ठीक से काम नहीं कर रहा है। पिता शेख उमर जो देवरिया जनपद के रूद्रपुर के हैं, अपनी पत्नी के साथ बच्ची को लेकर शिविर में पहुंचे थे। वे खेतीबारी करते हैं। करीब 19 माह पहले उन पर कहर टूट गया। सरकारी मदद के नाम पर उन्हें फूटी कौड़ी नहीं मिली है। खोराबार के बेलवार निवासी तुलसी अपनी पत्नी सरिता के साथ शिविर में पहुंचे थे। साथ में था इंसेफेलाइटिस का शिकार 16 वर्षीय पुत्र सिकंदर। जब वह बारह साल का था तभी इंसेफेलाइटिस हो गया। पिछले चार सालों से दवा कराने पर भी कुछ लाभ नहीं हुआ। मदद के नाम पर उसे 40 हजार रुपये दो साल पहले मिले थे।

परिजनों को चमत्कार की उम्मीद

चौरीचौरा के उसरहा गांव की प्रीति पुत्री प्रह्लाद भी शिविर में उम्मीद से आई थी। बुखार और झटका उसे बचपन में आया था। तभी से उसका दिमाग काम नहीं कर रहा है। पिता खेतीबारी करते हैं। इस उम्मीद में आर्थिक रूप से कमजोर ज्यादातर परिजन अपने-अपने दिव्यांग बच्चों को लेकर आए थे कि कहीं कोई चमत्कार हो जाएगा। अजमेर को उसके विकलांग पिता अनीफ पथरदेवा देवरिया से लेकर आए थे। दो साल पहले वह इंसेफेलाइटिस की गिरफ्त में आ गया। अब वह विकलांग है और दिमाग भी काम नहीं कर रहा है। कई विकलांग तो ऐसे आए थे जो बिस्तर से उठ भी नहीं सकते। सिकरीगंज के दिव्यांश पुत्र रिपुंजय ही नहीं, उसकी बहन कात्यायनी भी इंसेफेलाइटिस के चलते विकलांग हो गयी है। पिता मजदूरी करता है। ऐसे में वह दवा कराए या फिर दो जून की रोटी की व्यवस्था करे। रंजेश कुमार जो पिपराइच के सोहसा गांव का रहने वाला है वह जून माह में इंसेफेलाइटिस का शिकार हो गया। वह कक्षा 9 का छात्र था। पिता वेदलाल को अपने बेटे से बड़ी उम्मीदें थी, लेकिन अब सब खत्म हो चुका है। बेटा बोल भी नहीं पाता है और शरीर भी उसके काबू में नहीं है। परिजनों की आर्थिक स्थिति भी ठीक नहीं है। पर फिर भी जहां मौका मिलता है बच्चे को लेकर भागते हैं ताकि वह किसी तरह से ठीक हो जाए।

पीडि़त 70 फीसदी बच्चे दिव्यांग

तीन दशक से पूर्वांचल के बच्चों को अपनी आगोश में लेने वाला इंसेफेलाइटिस उनके लिए जिंदगी भर का अभिशाप बन रहा है। बीआरडी मेडिकल कॉलेज के आंकड़े तस्दीक कर रहे हैं कि इंसेफेलाइटिस से बचकर निकलने वाले 25 से 70 फीसदी बच्चे जिंदगी भर के लिए विकलांग हो जाते हैं। प्रदेश सरकार इंसेफेलाइटिस के विकलांग बच्चों के परिजनों को एक लाख रुपये की मदद करती है। जिनकी मौत हो जाती है, उनके परिवारीजनों को 50 हजार की मदद मिलती है। देवरिया के हनीफ कहते हैं कि एक लाख में से 50 हजार रुपये सरकार ने बैंकों में फिक्स करा दिया था, उसे भी तोडऩा पड़ा। इस महंगाई के समय में एक लाख कितने दिन चलेगा। सरकार को इंसेफेलाइटिस विकलांगों के लिए पेंशन की व्यवस्था करनी चाहिए।

दूर की जा सकती हैं छोटी-छोटी दिक्कतें

शिविर आयोजित करने वाले पहल संस्था के डॉ.वीके श्रीवास्तव कहते हैं कि शिविर का आयोजन ही इसलिए किया गया था कि एक छत के नीचे इंसेफेलाइटिस प्रभावित बच्चों को समाज कल्याण विभाग, विकलांग विभाग, बेसिक शिक्षा विभाग द्वारा चलाई जा रही योजनाओं का लाभ मिल सके। डॉ.श्रीवास्तव कहते हैं कि शिविर में आए बच्चों को देखकर साफ होता है कि कई में छोटी-छोटी दिक्कतें हैं। उन्हें दूर कर मुख्यधारा में लाया जा सकता है। जो बच्चे बोल नहीं पाते हैं उन्हें स्पीच थेरेपी दी जा रही है। जो सुन नहीं पाते हैं, उन्हें सुनने वाली मशीन की व्यवस्था की गई है। इंसेफेलाटिस विकलांग 20 फीसदी बच्चे ऐसे हैं कि जिनके सिर में लगातार दर्द रहता है। उन्हें भी इलाज दिलाया गया है।

खुशी की उम्मीद

राप्तीनगर निवासी अनिल सक्सेना की बेटी खुशी बचपन में ही इंसेफेलाइटिस के क्रूर पंजे में फंस गई थी। माता-पिता के प्रयासों से खुशी 11वीं कक्षा में पढ़ रही है। वह एक कोचिंग संस्थान में पीएमटी की तैयारी भी कर रही है। पिता अनिल सक्सेना बताते हैं कि जो होना था, वह हुआ। अब बेहतर के लिए ही प्रयास करना है। बेटी 11वीं में पढ़ रही है। वहीं खुशी को देख प्रशासनिक अमला भी काफी संजीदा है। शिविर के उद्घाटन में पहुंचे कमिश्नर जयंत नार्लिकर और जिलाधिकारी के बिजयेन्द्र पांडियन ने खुशी की सक्रियता देख उसे ही मुख्य अतिथि बना दिया था।

बेकाम के पुनर्वास सेंटर

शिविर के आए इंसेफेलाइटिस विकलांगों का दर्द देख हर किसी की आंखें नम थीं, पर सरकार इनके पुनर्वास को लेकर संजीदा नहीं दिख रही है। कहने को इनके पुर्नवास के लिए कंपोजिट रिजिनल सेंटर खोले गए हैं, लेकिन वहां कोई सुविधा नहीं है। बीआरडी मेडिकल कॉलेज में इंसेफलाइटिस से विकलांग मरीजों के इलाज व पुनर्वास लिए बने विभाग की हालत खस्ता है। यहां के चिकित्सकों और पैरा मेडिकल स्टॉफ को छह-छह महीने तक वेतन नहीं मिलता है। महराजगंज के विजय कुमार कहते हैं कि मेडिकल कॉलेज का प्रिवेंटिव मेडिसिन एवं रिहैब्लिटेशन (पीएमआर) विभाग बंद हो जाए तो ही बेहतर है। यहां किसी प्रकार की सुविधा नहीं मिलती है। कई बार आया, लेकिन निराशा ही हाथ लगी।

 

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