उद्धव की कुर्सी पर संकट बढ़ा, राज्यपाल ने लटकाया मनोनयन का प्रस्ताव
महाराष्ट्र में कोरोना संकट का सामना कर रहे मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के सामने एक और मुसीबत खड़ी हो गई है। उनकी सीएम की कुर्सी के लिए बड़ा संकट खड़ा हो गया है।
मुंबई: महाराष्ट्र में कोरोना संकट का सामना कर रहे मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के सामने एक और मुसीबत खड़ी हो गई है। उनकी सीएम की कुर्सी के लिए बड़ा संकट खड़ा हो गया है। उन्हें विधान परिषद का सदस्य मनोनीत करने के प्रस्ताव पर राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी 12 दिनों से चुप्पी साधे हुए हैं। राज्यपाल की इस चुप्पी से शिवसेना और मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे का टेंशन काफी बढ़ गया है।
राज्यपाल ले रहे कानूनी राय
राज्य मंत्रिमंडल ने उद्धव को विधान परिषद का सदस्य मनोनीत करने का प्रस्ताव 6 अप्रैल को राज्यपाल कोश्यारी के पास भेजा था। राज्यपाल ने अभी तक इस प्रस्ताव पर कोई फैसला नहीं लिया है। जानकार सूत्रों का कहना है कि उद्धव को एमएलसी मनोनीत करने के मुद्दे पर राज्यपाल कानूनी जानकारों से राय ले रहे हैं। राज्यपाल की चुप्पी के कारण उद्धव सरकार के भविष्य पर सवाल उठने लगे हैं। मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के पास अब सिर्फ 40 दिन बचे हैं।
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यदि इस दौरान वे विधान परिषद के लिए निर्वाचित या मनोनीत नहीं हुए तो उनका मुख्यमंत्री पद अपने आप छिन जाएगा। जानकारों का कहना है कि अगर ऐसा हुआ तो कोरोना संकट से जूझ रहे महाराष्ट्र को एक अभूतपूर्व संवैधानिक और राजनीतिक संकट का सामना करना पड़ सकता है। हर किसी की नजर इस बाबत राजभवन की ओर लगी हुई है। लेकिन राज्यपाल कोश्यारी ने अभी तक उद्धव के मनोनयन को हरी झंडी नहीं दिखाई है।
चुनाव टलने से पैदा हुआ संकट
कोरोना वायरस का सबसे भीषण प्रकोप महाराष्ट्र में फैला हुआ है और राज्य के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे इन दिनों कोरोना वायरस के भारी संकट से जूझ रहे हैं। इस बीच एक दूसरा बड़ा संकट उनकी कुर्सी के लिए खड़ा हो गया है। महाराष्ट्र में सीएम का पद संभालने के बाद अभी तक उद्धव विधानसभा या विधानपरिषद के सदस्य नहीं बन सके हैं। कोरोना संकट की वजह से महाराष्ट्र में एमएलसी का चुनाव भी टाल दिया गया है। इस कारण उद्धव की सीएम की कुर्सी पर भी संकट के बादल मंडराने लगे थे।
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उद्धव को महाराष्ट्र की कमान संभाले करीब साढ़े चार महीने हो चुके हैं। उन्होंने पिछले साल 28 नवंबर को सूबे की कमान संभाली थी। संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार उन्हें छह महीने के भीतर राज्य के किसी सदन का सदस्य होना जरूरी है। उनके लिए यह छह महीने की अवधि 28 मई तक है और उसके पहले ही उन्हें विधानमंडल का सदस्य बनना होगा। लेकिन कोरोना ने उनके रास्ते में बाधाएं खड़ी कर दीं।
संभव नहीं था चुनाव कराना
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यदि उद्धव ठाकरे विधानसभा का सदस्य बनना चाहते तो इसके लिए उन्हें अपनी पार्टी के किसी विधायक का इस्तीफा दिलवाना होता। महाराष्ट्र की सियासत की स्थितियों को देखते हुए उद्धव ठाकरे इसके लिए तैयार नहीं थे। यदि उद्धव ठाकरे इसके लिए तैयार भी हो जाते तो मुश्किलें खत्म होती नहीं दिख रहीं थीं। सूबे में मौजूदा स्थितियों को देखते हुए चुनाव कराना संभव नहीं था। दूसरा रास्ता विधानपरिषद का सदस्य बनना है और इसके लिए आयोग को सिर्फ 15 दिन पहले ही अधिसूचना जारी करनी होती है। महाराष्ट्र विधानपरिषद के 9 सदस्यों का कार्यकाल 24 अप्रैल को खत्म होने वाला है। इन नौ सीटों पर चुनाव होने वाले थे मगर कोरोना संकट की वजह से चुनाव आयोग ने इसे टाल दिया है और वह भी बेमियादी।
मनोनयन वाली दो सीटें रिक्त
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इसके बाद शिवसेना नेता उद्धव कुर्सी को बचाने के लिए दूसरे विकल्पों पर विचार करने लगे। अब उद्धव के सामने सिर्फ दो ही विकल्प बचे थे। इसमें पहले विकल्प का फैसला राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी के हाथों में है। विधानपरिषद में राज्यपाल द्वारा मनोनीत किए जाने वाले सदस्यों की दो सीटें अभी रिक्त पड़ी हैं। इनमें एक सीट के लिए राज्य सरकार ने उद्धव का नाम राज्यपाल के पास भेजा है। यदि राज्यपाल इस सिफारिश पर अपनी सहमति जता देते हैं तो उद्धव की कुर्सी बच सकती है। अब हर किसी को राज्यपाल के कदम का इंतजार है।
राज्यपाल से सकारात्मक फैसले की उम्मीद
उद्धव के सामने जो दूसरा विकल्प बचा था वह काफी मुश्किलों भरा था। दूसरा विकल्प यह था कि शपथ ग्रहण से 6 माह की अवधि पूरा होने से पहले ही उद्धव ठाकरे अपने पद से इस्तीफा दे देते और उसके बाद दोबारा सीएम पद की शपथ लेते। ऐसा करने पर उन्हें विधानमंडल का सदस्य बनने के लिए छह महीने का और समय मिल जाएगा। कोरोना वायरस के इस दौर में केवल कुर्सी बचाने के लिए यह सब करना संभव नहीं दिख रहा था।
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इसीलिए उद्धव को राज्यपाल कोटे से विधानपरिषद का सदस्य मनोनीत कराने का फैसला किया गया। राज्य के एक वरिष्ठ मंत्री का कहना है कि हमें उम्मीद है कि राज्यपाल उद्धव के मनोनयन पर जल्द फैसला लेंगे। हमें राज्यपाल से सकारात्मक फैसले की उम्मीद है। उन्होंने कहा कि राज्य को हर कीमत पर संवैधानिक संकट से बचाना ही होगा। राज्य को संवैधानिक संकट से बचाने की जिम्मेदारी राज्य सरकार के साथ ही राज्यपाल की भी है।